वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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बीती सदी में बापू ने कहा था

"किसी राष्ट्र की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से मापा जाता है कि वह अपने यहां जानवरों से किस तरह का सलूक करता है"- मोहनदास करमचन्द गाँधी

ये जंगल तो हमारे मायका हैं

May 4, 2022

एक गुज़रे हुए ज़माने की बात: आम की वह पुरानी बागें औऱ बुजुर्गो की चौपालें!

 



पुरखों के बगीचे में पुरानी आम की बाग जिसकी एक एक अमिया (कच्चा आम) मेरे लिए एक एक करोड़ की हैं अब बात करोङ की नही है हमने तो देखे भी नही करोड़ कैसे होते है बात भावनाओं की है और इस प्रकृति माँ की है, लखीमपुर खीरी पुरानी आम की बागों के लिए मशहूर रहा पुराना आम के दरख़्त में ट्री होल्स यानी खोहे होती थी जिनमे तोते उल्लू और न जाने कितनी पक्षी प्रजातियां अपना जीवन चक्र चलाती थी गजेटियर की बात करे या पुरखों की जुबानी गौधूलि में जब पक्षी खासतौर से तोते वापस इन बागों में अपने ठिकानों पर वापस आते थे तो पूरा आसमान सुआ पंखी यानी हरियाला हो जाता था अब बौनी प्रजातियां आम की लगाकर 5 या 10 साल फसल लेकर बाग खत्म और उसमें भी उन बौने हाइब्रिड आयाम के पौधों न कि वृक्ष क्योंकि वृक्ष बनने में सदियां लगती है कोई दो चार साल में वृक्ष नही बन जाता....सो इन बौने आम की बागों के मध्य खेती भी...अब वे बाज धड़ल्ले से कट र्रही है जो 100 या दो सौ साल पुरानी थी नई पीढ़ियों को कोई दिलचस्पी नही पुरानी बाग और उनके खुशबूदार रंग बिरंगे आमों से जो पुरानी बागों में लगते नही लदते थे एक वृक्ष में ही इतना आम की तोता भी कहरे कोयल भी और पूरा गांव भी और चलते हुए राहगीर भी....अब बौनी बाज व्यवसायिक हो गई परिंदा भी पर नही मार सकता आदमी की मजाल क्या, आम की फसल आने से पहले बागों की बोलियां लग जाती है चंद नोटों के लिए....बाग जो कभी गांवों की पार्लियामेंट होती थी लोग बाग दोपहर में सुस्ताते थे खलिहान लगते थे, बारातें रुका करती थी, अब उन बागों को बेचकर उस जमीन पर गन्ना बोकर अमीर हो रहा है आदमी पर कितना अमीर और किस तरह का...उसके जीवन मे कितना सुख है उस अमीरियत  से ये विचारणीय है...खैर मुझे याद है गांवों में बाज वही रखवा पाते थे जो सक्षम थे बीसों साल पौधों की सेवा करनी पड़ती थी, तब बाग तैयार होती थी फिर उसके नीचे झाड़ियां वृक्षो फैलती हुई लताएं किस्म किस्म के जंगली फूल उन पर मंडराती तितलियां और भूरे अब सब नदारद है बौनी बाजारू बगीचों में पेस्टिसाइड और जालों से घिरे वे कलमी पेड़ की परिंदा भी टोट न मार दे! और हां याद है मुझे जब रात में आधी आती तो बड़े बच्चे सब आम की बागों की तरफ भागते किसी की भी बाग हो गिरे हुए आम बीनते कोई किसी को मना नही करता...जानते हो क्यूं क्यों वे विशाल वृक्षों वाली बागें विशाल ह्रदय वालों की हुआ करती थी अब बौने लोग और बौनी बागें.....

सम्पादक की कलम से 

कृष्ण कुमार मिश्र

Email: krishna.manhan@gmail.com

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