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International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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ये जंगल तो हमारे मायका हैं

May 4, 2022

धरती को दोज़ख में तब्दील करने की मुसलसल कोशिशों में जुटा हुआ आदमी!

 


जलवायु परिवर्तन - धरती को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती

- डॉ. कृष्ण कुमार मिश्र


जलवायु परिवर्तन आज समूची मानव सभ्यता के समक्ष संकट बनकर खड़ा है। यह धरती को बचाने की चुनौती है। आज पूरी दुनिया में जिन मुद्दों की सर्वाधिक चर्चा होती है उनमें जलवायु परिवर्तन सर्वोपरि है। कहा जा रहा है कि यदि हमने अपने तौर-तरीकों में बहुत जल्दी, तथा व्यापक बदलाव नहीं किया तो फिर धरती पर भयावह संकट का आना करीब तय है। जलवायु परिवर्तन से धरती का तापमान बढ रहा है। मौसम-चक्र में दिनोंदिन परिवर्तन आ रहा है। भूमंडल का तापमान बढ़ने से धरती पर समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा। इससे दुनिया के तमाम तटीय इलाके सागर में समा जाएंगे। छोटे-छोटे टापुओं का अस्तित्व मिट जाएगा। वे महासागर में विलीन हो जाएंगे। धरती पर मौजूद अनेक जीव प्रजातियां हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएंगी। मौसम में अप्रत्याशित परिवर्तन देखने को मिलेंगे। कहीं अतिवृष्टि होगी, तो कहीं भयंकर सूखा पड़ेगा। पृथ्वी के बहुत बड़े भूभाग पर वातावरणीय परिवर्तनों के चलते खाद्यसंकट पैदा हो जाएगा।  


महान भौतिकीविद् प्रोफेसर स्टीफन हॉकिंग धरती पर जीवन तथा सभ्यता को लेकर सजग तथा चिंतित थे। उन्होंने धरती पर इंसानी सभ्यता के भविष्य को लेकर महत्वपूर्ण बातें कही थीं। वे मोटर न्यूरॉन डिजीस से ग्रस्त दिव्यांग थे, तथा बाद में चलकर उनका जीवन ह्वीलचेयर तक सिमटकर रह गया था। लेकिन उनके शोध तथा चिंतन का दायरा विराट ब्रह्माण्ड था। ब्लैकहोल तथा बिगबैंग थ्योरी में उन्होंने बुनियादी शोधकार्य किया था। वे अपने जीवनकाल में एक किंवदंती बन गये थे। 14 मार्च 2018 को 74 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। निधन से चंद साल पहले बीबीसी के लिए तैयार की जा रही डॉक्यूमेंटरी में दिये गये अपने इंटरव्यू में उन्होंने चेताया था कि इंसान के धरती पर रहने का समय पूरा होता जा रहा है। अब उसे अपने लिए दूसरी धरती खोज लेनी चाहिए। यह कार्य उसे अगले 100 वर्षों में कर लेना चाहिए। उनका मानना था कि जलवायु परिवर्तन, मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है। उनका कहना था कि धरती की सेहत बुरी तरह बिगड़ चुकी है। यदि बहुत जल्दी इसे बचाने के कदम नहीं उठाए गये तो बाद में चलकर वह ऐसी स्थिति में पहुंच जाएगी कि हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाएंगे। फिर लाख उपाय करके भी धरती को नहीं बचाया जा सकेगा। उनके अनुसार वर्तमान भौतिकवाद के चलते सन् 2600 ई. तक यह धरती आग के गोले में बदल जाएगी। सभ्यता का नामोनिशान हमेशा-हमेशा के लिए मिट जाएगा। उन्होंने लोगों को खबरदार किया था कि तकनीकी विकास, विशेष करके कृत्रिम बुद्धि, शायद मानव सभ्यता की अंतिम उपलब्धि होगी। राष्ट्रों के बीच शत्रुता तथा द्वेष के कारण परमाणु या जैव युद्ध के जरिये सब कुछ नष्ट होने का खतरा हमेशा रहेगा। 

जलवायु परिवर्तन बने स्कूली शिक्षा का हिस्सा   

जलवायु परिवर्तन पर चर्चा के लिए दुनिया के नेता ग्लासगो में 31 अक्टूबर से 12 नवम्बर 2021 के दौरान होने वाले COP26 सम्मेलन में भाग लेने के लिए जुटे थे। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी 1 नवम्बर 2021 को इस सम्मेलन में भाग लेने ग्लासगो पहुंचे थे। उन्होंने जलवायु परिवर्तन की चिंताओं तथा भारत की भूमिका को रेखांकित किया। उन्होंने सुझाव दिया कि जलवायु परिवर्तन को हमारे स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए जिससे इस बारे में शुरू से ही व्यापक समझ विकसित हो सके। सम्मेलन में एक बार फिर से जलवायु परिवर्तन का प्रश्न वैश्विक स्तर पर उठा। समाचारों में विस्तार से लेख तथा रिपोर्टें छपीं। इस खतरे से लोगों को वाकिफ करने के प्रयास किये गये। मीडिया में इस पर खूब चर्चा हुई। सम्मेलन के विचारणीय बिन्दु ये थे।  

1) पहला लक्ष्य है इस सदी के मध्य तक शून्य उत्सर्जन के स्तर को हासिल करना, जिससे कि सदी के अंत तक 1.5 अंश सेल्शियस की तापवृद्धि के महत उद्देश्य को पाया जा सके। इसके लिए जरूरी होगा कि कोयले के इस्तेमाल को शीघ्रता से घटाया जाए, वनों का कटाव रोका जाए, तथा इलेक्ट्रिक वाहनों की ओर तेजी से बढ़ा जाए।

2) समुदायों, तथा प्राकृतिक आवासों को बचाना। इसके लिए अपेक्षित है कि पारिस्थितकी तंत्रों की रक्षा की जाए तथा उन्हें बहाल किया जाए। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचने के लिए सुरक्षातंत्र बनाया जाए, चेतावनी प्रणाली तैयार की जाए, तथा टिकाऊ आधारभूत अवसंरचना तथा कृषिप्रणाली निर्मित की जाए जिससे कि जनधन तथा आवासों को नुकसान से बचाया जा सके।

3)  उपरोक्त दोनों महत् उद्देश्यों की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिए विकसित देश अपने वचनानुसार हर साल करीब 100 अरब डॉलर की धनराशि मुहैया करायें। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान इस कार्य में अपना योगदान दें।

4) इस विकट समस्या से हम मिलकर ही पार पा सकते हैं। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम पेरिस समझौते का पालन करें, दुनिया भर की सभी सरकारें, निजी क्षेत्र तथा नागरिक समाज के मध्य परस्पर सहयोग से इस कार्य में तेजी लायें।


ग्लोबल वॉर्मिंग की चुनौती  

ऊर्जा की खपत तथा भौतिक विकास के मध्य परस्पर सीधा सम्बन्ध है। ऊर्जा के संसाधन के तौर पर कोयले, तेल तथा गैस का बहुत व्यापक इस्तेमाल हो रहा है। इससे उत्पन्न उत्सर्जन की वजह से धरती की जलवायु पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। जीवाश्म ईंधन के दहन से ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं। इनमें सबसे अधिक मात्रा कार्बन डाइऑक्साइड गैस की होती है। इन गैसों की सघन मौजूदगी के कारण धरती द्वारा निर्मुक्त सूर्य की अवशोधित गरमी वातावरण से बाहर नहीं जा पाती है। ये गैसें एक कंबल का काम करती हैं तथा ऊष्मा को बाहर नहीं जाने देतीं। फलतः वातावरण का तापमान बढ़ता है। यह सामान्य अनुभव की बात है कि बादलों वाली रातें अपेक्षाकृत गर्म होती हैं। उसका कारण यह है कि दिन में धरती द्वारा सोखी गयी गरमी रात्रि में बादलों के कारण वातावरण से बाहर नहीं जा पाती। यही कारण है कि बदरी वाली रातें बनिस्बत गर्म होती हैं। 


वैज्ञानिकों का कहना है कि 19वीं सदी की तुलना में धरती का औसत तापमान लगभग 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। आंकडे़ बताते हैं कि धरती के वातावरण में CO2 की मात्रा 50% तक बढ़ी है। वैज्ञानिकों का मत है कि अगर हम जलवायु परिवर्तन के बुरे परिणामों से बचना चाहते हैं तो हमें अपने क्रिया-कलापों पर ध्यान देते हुए तापमान वृद्धि के कारकों को नियंत्रित करने के बारे में ठोस क़दम उठाने चाहिए। ऐसे उपाय अपनाने चाहिए जिससे भू-तापन की दर कम हो। वैज्ञानिकों का मानना है कि हमारी कोशिश होनी चाहिए कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते वर्ष 2100 ई. तक धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखी जाए। उन्हें अंदेशा है कि यदि दुनिया के तमाम देशों ने मिलकर ठोस क़दम नहीं उठाये तो इस सदी के अंत तक धरती का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ सकता है। उनका आकलन बताता है कि यदि कुछ न किया गया तो फिर ग्लोबल वार्मिंग के चलते धरती का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस से अधिक भी बढ़ सकता है। अगर वाकई ऐसा हुआ तो यह सचमुच भयावह होगा। तब दुनिया को भयानक गर्म थपेड़ों (हीट-वेव) का सामना करना पड़ सकता है। समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी होने से लाखों लोग बेघर हो जाएंगे। अनेक प्राणियों तथा पेड़-पौधों की प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। 



जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव 

प्राकृतिक परिघटनाओं में जिस तरह से एकाएक बदलाव आए हैं वह जलवायु परिवर्तन का ही परिणाम है। धरती पर आने वाले तूफ़ानों की संख्या बढ़ गई है, भूकंप भी ज्यादा आने लगे हैं। नदियां बाढ़ के रूप में अकसर विकराल रूप धारण कर रही हैं। बेमौसम की बरसात हो रही है। बादल फटने की घटनाएं पहले से ज्यादा हो रही हैं। इतना ही नहीं, तड़ित के कारण जनधन की हानि की घटनाएं विगत वर्षों में बढ़ी हैं। इन सभी का असर मानव जीवन पर पड़ रहा है। तथ्य कहते हैं कि अगर तापमान यूं ही बढ़ता रहा तो धरती के कुछ क्षेत्र निर्जन हो सकते हैं। उपजाऊ जमीनें रेगिस्तान में तब्दील हो सकती हैं। तापवृद्धि से कुछ इलाक़ों में इसके उलट परिणाम भी हो सकते हैं। भारी बारिश के कारण बाढ़ आ सकती है। हाल ही में चीन, जर्मनी, बेल्जियम और नीदरलैंड में आई बाढ़ को इसी परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं। तापमान वृद्धि का सबसे बुरा असर ग़रीब मुल्कों पर होगा क्योंकि उनके पास जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पैसे तथा संसाधन ही नहीं हैं। अनेक विकासशील देशों में खेती और फसलों को पहले से ही बहुत गर्म जलवायु का सामना करना पड़ रहा है। ठोस क़दम न उठाए जाने से इनकी स्थिति बदतर ही होगी। 


सिर पर मँडराता खतरा  

जलवायु परिवर्तन से महासागरों और इनके जीवतंत्र पर भी ख़तरा मंडरा रहा है। ऑस्ट्रेलिया में सुप्रसिद्ध ग्रेट बैरियर रीफ़ का उदाहरण हमारे सामने है। वहां जलवायु परिवर्तन के कारण आधे मूंगे (कोरल) खतम हो चुके हैं। जंगलों में लगने वाली आग यानी दावानल की घटनाएं पिछले वर्षों के दौरान बढ़ी है। गर्म और शुष्क मौसम के कारण आग तेज़ी से फैलती है। इसलिए बार-बार आग लगने की आशंका बढ़ जाती है। तापमान वृद्धि का एक बुरा असर यह भी होगा कि साइबेरियाई क्षेत्रों में जमी बर्फ़ पिघलेगी। इससे सदियों से अवशोषित ग्रीनहाउस गैसें भी मुक्त हो जाएंगी। तापमान बढ़ने के कारण जीवों के लिए भोजन और पानी का संकट बढ़ जाएगा। उदाहरण के लिए, तापमान बढ़ने से ध्रुवीय भालू मर सकते हैं क्योंकि जब बर्फ़ ही नहीं बचेगी तो फिर वे कहां रहेंगे। हम जानते हैं कि ध्रुवीय इलाकों में बर्फ तेजी से पिघल रही है। बड़े जानवरों के लिए जिंदा रहना मुश्किल हो जाएगा। हाथी जिसे प्रतिदिन 150-300 लीटर पानी चाहिए, उसके लिए जीवन संघर्ष बढ़ जाएगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर समय रहते कार्रवाई नहीं की गई तो वर्तमान सदी में ही कम से कम 550 जीव प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। दुनिया के हर क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का अलग असर होगा। कुछ स्थानों पर तापमान तुलनात्मक रूप से बढ़ जाएगा, कुछ जगहों पर भारी बारिश होगी, तथा बाढ़ आएगी, और कुछ इलाक़ों को सूखे की मार झेलनी होगी। 


अगर धरती की तापवृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर नहीं रखा गया तो इसके भयानक नतीजे होंगे। अत्यधिक बारिश के कारण यूरोप और ब्रिटेन बाढ़ की चपेट में आ सकते हैं। मध्य-पूर्व के देशों में भयानक गर्मी पड़ सकती है और खेत रगिस्तान में बदल सकते हैं। प्रशांत क्षेत्र में स्थित द्वीप डूब सकते हैं। कई अफ्रीक्री देशों में भयानक सूखा पड़ सकता है और भुखमरी आ सकती है। पश्चिमी अमेरिका में सूखा पड़ सकता है जब कि दूसरे कई इलाक़ों में तूफानों में बढ़ोत्तरी हो सकती है। धरती के तापमान को नियंत्रित करने का एकमात्र उपाय यह है कि दुनिया भर के देश इस मुद्दे पर एक साथ आएं। साल 2015 में हुए पेरिस समझौते के तहत दुनिया के तमाम देशों ने कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने का प्रण लिया था ताकि ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर ना जाने दिया जाए।  


अमृत महोत्सव वर्ष में आत्मनिर्भरता का मंत्र  

वर्तमान में हम अपनी आजादी का अमृत महोत्सव वर्ष मना रहे हैं। स्वतंत्रता के 75वें साल में हम हैं। यह साल नये संकल्प लेने का है। नये विकल्पों पर विचार करने का भी है। ऊर्जा जरूरतों के मद्देनजर यह बात बहुत मायने रखती है। पेट्रोलियम पदार्थों के आयात पर हमारी निर्भरता करीब 83 प्रतिशत है। यह स्थिति बदलनी ही चाहिए। उत्पादक देशों से पेट्रोलियम मंगाने पर कीमती विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। इसलिए भारत सरकार ने पेट्रोल में 5 % इथेनॉल मिलाने की इज़ाज़त पहले से दी है। इसे वर्ष 2023-24 तक बढ़ाकर 20 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य है। जलवायु परिवर्तन के खतरे से निबटने के लिए वैश्विक समाज को जीवाष्म ईंधन पर निर्भरता कम करनी होगी। उसे ऊर्जा के और नवीकरणीय स्रोत खोजने होंगे। उपलब्ध स्रोत, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, तथा ज्वारीय ऊर्जा  विकसित करने होंगे। भारत उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में स्थित है जहां साल भर में करीब 10 महीना खूब धूप खिली रहती है। ऐसे में हम सौर ऊर्जा को अक्षय स्रोत के रूप में अधिकाधिक अपनाना चाहिए। भारत सरकार पहले से ही इस बार में जागरूक तथा सचेष्ट है। हम इस समय करीब 40,000 मेगावाट सौरविद्युत पैदा कर रहे हैं जो भारत की सकल स्थापित विद्युत क्षमता का करीब 10.6 प्रतिशत है। भारत का लक्ष्य वर्ष 2022 तक 100,000 मेगावाट सौरविद्युत उत्पादन का है जो बेहद महत्वाकांक्षी लक्ष्य है। देश की कोशिश है कि वर्ष 2022 तक, जब कि देश की आजादी के 75 वर्ष पूरे होंगे, देश में 175,000 मेगावॉट विद्युत नवीकरणीय स्रोतों से पैदा की जाए। भारत ने पहले करते हुए वर्ष 2015 में अंतरराष्ट्रीय सौर गठबन्धन स्थापित करने में मुख्य भूमिका निभायी। फ्रांस की राजधानी पेरिस में 30 नवम्बर 2015 को भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी तथा फ्रांस के राष्ट्रपति श्री फ्रांस्वां होलांड ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन संगोष्ठी (COP21) में इस गठबन्धन की बुनियाद रखी जो ऊर्जा के क्षेत्र में एक युगान्तरकारी घटना है। यह सुखद है कि विगत 10 नवम्बर 2021 को ग्लासगो में आयोजित संगोष्ठी में अमेरिका भी 101वें देश के रूप में इस गठबन्धन का सदस्य बन गया। इससे इस समूचे प्रयास को बहुत बल मिला है।  


उपसंहार 

जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए समाज को जीवाष्म ईंधन का इस्तेमाल कम करना होगा। इंसान को नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत खोजने होंगे, उन पर निर्भरता बढ़ानी होगी। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, तथा ज्वारीय ऊर्जा जैसे गैरपरम्परागत स्रोत विकसित करने होंगे। वास्तव में सरकारों को अपने स्तर पर बड़े और नीतिगत फैसले लेने होंगे। नागरिक समाज भी अपने स्तर पर इस प्रयास का हिस्सा बन सकते हैं। हमारे छोटे-छोटे प्रयास जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में उपयोगी साबित हो सकते हैं। पहला, पब्लिक ट्रांसपोर्ट का यथासंभव प्रयोग, या पर्यावरण अनुकूल साधनों का इस्तेमाल। पास-पड़ोस, तथा छोटी-मोटी दूरियों के लिए साइकिल का इस्तेमाल किया जाए। निजी साधनों, जैसे कारों, मोटरसाइकिलों का प्रयोग कम से कम किया जाए। बिजली की खपत को कम किया जाए। जरूरत न होने पर घरेलू विद्युत उपकरणों को बन्द रखा जाए। इसलिए कहते हैं- बिजली की बचत ही बिजली का उत्पादन है। तीसरा मंत्र है रीयूज़ यानी फिर से इस्तेमाल। चीजों तथा वस्तुओं को बारबार इस्तेमाल योग्य बनाना। और अंत में रीसाइकिलिंग यानी पुनर्चक्रण। यानी इस्तेमाल के बाद सामानों को फेंक न देना, बल्कि उसे पुनर्चक्रित करके फिर से उपयोगी सामान तथा वस्तुओं का निर्माण। इससे पर्यावरण की रक्षा करने में मदद मिलेगी। इस महान कार्य में सबकी भागीदारी जरूरी है। सवाल आखिर धरती को बचाने का है। इसमें किसी भी तरह की कोताही भविष्य के लिए बहुत भारी पड़ेगी। 

 (यह आलेख इलेक्ट्रानिकी आप के लिए पत्रिका में फरवरी 2022 में प्रकाशित हुआ है)






लेखक - 

डॉ. कृष्ण कुमार मिश्र

एसोशिएट प्रोफ़ेसर

होमी भाभा विज्ञान शिक्षा केन्द्र

टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान

(डीम्ड यूनिवर्सिटी

मुंबई-400088 

Email: vigyan.lekhak@gmail.com 

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