"जलवायु संकट और वैश्विक खाद्य सुरक्षा"
-डॉ दीपक कोहली-
वर्ष 2030 तक विश्व को भुखमरी से मुक्त करने और सतत् विकास लक्ष्यों के लक्ष्यों की पूर्ति करने के लिये विश्व परिवर्तन की कगार पर है । सर्वाधिक कमज़ोर लोगों की रक्षा के लिये संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन के काॅप-26 शिखर सम्मेलन में योगदानकर्त्ता राष्ट्रीय और क्षेत्रीय सरकारों द्वारा नए समर्थन के रूप में 356 मिलियन डॉलर की राशि भी जुटाई गई। निश्चित रूप से ये सभी प्रयास सराहनीय हैं। लेकिन विश्व में खाद्य सुरक्षा का संकट अभी भी बना हुआ है और कोविड महामारी द्वारा इस समस्या को और गहरा ही किया गया है। वैश्विक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये विकास एवं संवहनीयता के संतुलन, जलवायु परिवर्तन के शमन, स्वस्थ, सुरक्षित एवं किफायती भोजन की सुनिश्चितता और इसके लिये सरकारों एवं निजी क्षेत्र की ओर से निवेश की दिशा में खाद्य प्रणाली की पुनर्कल्पना की जाने की आवश्यकता है।
जलवायु संकट वैश्विक खाद्य प्रणाली के सभी भागों, अर्थात उत्पादन से लेकर उपभोग तक को प्रभावित करता है।यह भूमि एवं फसलों को नष्ट करता है, पशुधन का ह्रास करता है, मत्स्य पालन को कम करता है एवं बाज़ारों को आपस में जोड़ने वाले परिवहन में कटौती करता है, जिससे यह खाद्य उत्पादन, उपलब्धता, विविधता, पहुँच और सुरक्षा को भी प्रभावित करता है। इसके साथ ही, खाद्य प्रणालियाँ भी पर्यावरण को प्रभावित करती हैं और जलवायु परिवर्तन की वाहक हैं। आँकड़े बताते हैं कि खाद्य क्षेत्र विश्व के लगभग 30 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है। काॅप-26 का आयोजन अग्रगामी संयुक्त राष्ट्र खाद्य प्रणाली शिखर सम्मेलन के बाद हुआ जो इस तथ्य के संदर्भ में ‘वेक-अप कॉल’ की तरह था कि खाद्य प्रणालियाँ असमानता और बधायुक्त हैं क्योंकि 811 मिलियन लोग भूखे सोने को मज़बूर हैं।
वैश्विक भुखमरी और कुपोषण को उसके सभी रूपों में समाप्त करने का एजेंडा विकट चुनौतियों का सामना कर रहा है, क्योंकि जलवायु संकट लगातार बिगड़ता जा रहा है। कोविड महामारी ने चरम भुखमरी की शिकार आबादी की संख्या को दोगुना (130 मिलियन से बढ़कर 270 मिलियन) करते हुए इस संकट को और गहन कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम के अनुसार, औसत वैश्विक तापमान में पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि 189 मिलियन अतिरिक्त लोगों को भुखमरी की ओर धकेल देगी। एक नवीनतम रिपोर्ट में बताया गया है कि जलवायु संकट न केवल खाद्य उत्पादन और आजीविका को प्रभावित करेगा, बल्कि मल्टी-ब्रेडबास्केट विफलताओं के माध्यम से पोषण को भी खतरा पहुँचाएगा।
कमज़ोर समूह-न्यूनतम उत्सर्जक, अधिकतम भुखमरी और कुपोषण से पीड़ित हैं। कमज़ोर समुदाय, जिनका एक विशाल बहुमत निर्वाह कृषि, मछली पकड़ने और पशुधन पालन पर निर्भर है और जो जलवायु संकट में न्यूनतम योगदान करता है, अपने सीमित साधनों के साथ प्रभावों से सर्वाधिक हानि सहना जारी रखेंगे। शीर्ष 10 सबसे अधिक खाद्य-असुरक्षित देश वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 0.08% का योगदान करते हैं।फसल विफलता, जल की कमी और घटते पोषण स्तर से उन लाखों लोगों को खतरा है जो कृषि, मछली पकड़ने और पशुधन पर निर्भर हैं।खाद्य सुरक्षा जाल जैसे सामाजिक सुरक्षा उपायों की अनुपस्थिति खाद्य असुरक्षित लोगों को अस्तित्व बनाए रखने के लिये मानवीय सहायता पर निर्भर रहने हेतु मज़बूर करती है।
खाद्य उत्पादन, सुरक्षित आय और आघात सहने की क्षमता को प्रभावित करने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रति समुदायों को अनुकूल बनाने के लिये विश्व खाद्य कार्यक्रम उनके साथ कार्य कर रहा है। इसने 39 सरकारों का समर्थन किया है और यह उन्हें अपनी राष्ट्रीय जलवायु महत्त्वाकांक्षाओं को साकार करने में सहायता प्रदान कर रहा है। वर्ष 2020 में विश्व खाद्य कार्यक्रम
ने 28 देशों में जलवायु जोखिम प्रबंधन समाधान लागू किये, जिससे छह मिलियन से अधिक लोगों को लाभ हुआ ताकि वे जलवायु झटके और तनाव के प्रति बेहतर तरीके से तैयार हो सकें और तेज़ी से पुनरुद्धार कर सकें। भारत में विश्व खाद्य कार्यक्रम और पर्यावरण मंत्रालय अनुकूलन कोष से संभावित समर्थन के साथ अनुकूलन और शमन पर एक सर्वोत्तम अभ्यास मॉडल विकसित करने की योजना बना रहे हैं।
गरीब और कमज़ोर समुदायों के लिये अनुकूलन और लचीली व्यवस्था का निर्माण खाद्य सुरक्षा के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि लोगों और प्रकृति पर जलवायु चरम घटनाओं के प्रतिकूल प्रभाव बढ़ते तापमान के साथ बढ़ते रहेंगे, सर्वोत्तम उपलब्ध विज्ञान के अनुरूप और विकासशील देश पक्षकारों की प्राथमिकताओं एवं आवश्यकताओं पर विचार करते हुए कार्रवाई एवं समर्थन (वित्त, क्षमता-निर्माण, और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण) की वृहद्ता, अनुकूलन क्षमता की वृद्धि, प्रत्यास्थता के सुदृढ़ीकरण और भेद्यता को कम करने पर बल दिया जाना आवश्यक है।
भारत को राष्ट्रीय और राज्य स्तरों पर जारी और अब पर्याप्त रूप से कार्यान्वित नीतिगत कार्य के साथ एक बड़ी भूमिका निभानी है। उच्च कृषि आय और पोषण सुरक्षा के लिये इसे अपनी खाद्य प्रणालियों को रूपांतरित करते हुए इन्हें अधिक समावेशी और संवहनीय बनाना होगा।जल के अधिक समान वितरण और संवहनीय एवं जलवायु आधारित कृषि के लिये बाजरा, दलहन, तिलहन, बागवानी की ओर फसल पैटर्न के विविधीकरण की आवश्यकता है। विकासशील देशों में अनुकूलन का समर्थन करने के लिये जलवायु वित्त को बढ़ाने पर विकसित देशों द्वारा हाल में जताई गई प्रतिबद्धता एक स्वागत योग्य संकेत है। हालाँकि अनुकूलन के लिये मौजूदा जलवायु वित्त का स्तर और हितधारकों का आधार बदतर होते जलवायु परिवर्तन प्रभावों का मुकाबला कर सकने के लिये अपर्याप्त है।बहुपक्षीय विकास बैंक, अन्य वित्तीय संस्थान और निजी क्षेत्र को जलवायु योजनाओं को साकार करने हेतु आवश्यक वृहत संसाधनों की आपूर्ति के लिये वित्त जुटाने में और तेज़ी लानी होगी।विभिन्न पक्षकारों को अनुकूलन के लिये निजी स्रोतों से वित्त जुटाने हेतु नवीन दृष्टिकोणों और साधनों का पता लगाना जारी रखना होगा।
कमज़ोर समुदायों की आजीविका की रक्षा और उनमें सुधार के माध्यम से प्रत्यास्थी आजीविका एवं खाद्य सुरक्षा समाधान का सृजन करना।पोषण सुरक्षा के लिये बाजरा जैसे जलवायु-प्रत्यास्थी खाद्य फसलों का अनुकूलन।उत्पादन प्रक्रियाओं एवं संपत्तियों पर महिलाओं के नियंत्रण एवं स्वामित्व को सक्षम बनाना और मूल्यवर्द्धन एवं स्थानीय समाधानों में वृद्धि करना।
जलवायु सूचनाओं एवं तैयारियों के साथ छोटे किसानों के लिये संवहनीय अवसरों, वित्त तक पहुँच और नवाचार के सृजन के माध्यम से प्रत्यास्थी कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देना।भेद्यता विश्लेषण के लिये नागरिक समाज एवं सरकारों की क्षमता एवं ज्ञान का निर्माण करना ताकि खाद्य सुरक्षा और जलवायु जोखिम के बीच की संबंध को संबोधित करते हुए खाद्य सुरक्षा की वृद्धि की जा सके। उत्पादन, मूल्य शृंखला और उपभोग में संवहनीयता हासिल करनी होगी। जलवायु-प्रत्यास्थी फसल पैटर्न को बढ़ावा देना होगा। संवहनीय कृषि के लिये किसानों को इनपुट सब्सिडी प्रदान करने के बजाय नकद हस्तांतरण किया जा सकता है। श्रम-प्रधान विनिर्माण और सेवाएँ कृषि पर से दबाव को कम कर सकती हैं।
छोटे जोतदारों और अनौपचारिक श्रमिकों के लिये कृषि से होने वाली आय पर्याप्त नहीं है। खाद्य प्रणालियों की पुनर्कल्पना के लिये इसे जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और शमन के नज़रिये से देखना होगा, जहाँ उन्हें हरित और संवहनीय बनाने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन एवं महामारियों के प्रति लचीला बनाना भी आवश्यक है।
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प्रेषक - डॉ दीपक कोहली, संयुक्त सचिव, उत्तर प्रदेश शासन, 5/104, विपुल खंड, गोमती नगर लखनऊ - 226010( उत्तर प्रदेश)( मोबाइल - 9454410037)
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