अगला मुद्दा : लागत, जोत और ग्रामीण संपत्ति कर ?
या
किसान आंदोलन : अब पूरी बात हो
लेखक: अरुण तिवारी
किसान आंदोलन स्थल की सड़कों पर कील, तार और दीवार लगा दी गई; बिजली-पानी के कनेक्शन काट दिए गए। हमने मंत्री-प्रधानमंत्री के रवैये को असंवेदनशील कहा। हम गुस्सा हुए। कहने वाले इन सब हरकतों को चंद के लिए, शेष को नकार देने की मोदी नीति कह सकते हैं। कह सकते हैं मोदी-शाह वाली नई भाजपा, अटल-आडवाणी जी वाली भारतीय जनता पार्टी से भिन्न है। नई भाजपा, वोटों के लिए अब सिर्फ भावनात्मक मुद्दों के भरोसे नहीं रहती; यह नोटों का भी पुख्ता इंतज़ाम रखती है। अतः नई भाजपा सबसे ज्यादा अमीरों के हित साधकर, सबसे अमीर बनने धुन में रमी पार्टी है। उसे भारत के हर राज्य, नगर, गांव की लोकप्रतिनिधि सभाओं पर काबिज हो जाने की उतावली है। उसे लगता है कि ऐसा करके वह अजेय हो जाएगी; गोया चुनाव कोई युद्ध हो। निःसंदेह, ऐसी उतावली को टोकने और रोकने की तत्काल ज़रूरत है। हम यह करें। इससे भारतीय लोकतंत्र और भाजपा... दोनो को दूरगामी शुभ हासिल होगा।
यह तो हुई सत्तारूढ़ दल की बात। अब सरकार की बात करें।
असल में ये हरकतें, जहां एक ओर सरकार-बाज़ार के बीच नापाक गठजोड़ की मज़बूती का लक्षण हैं, तो दूसरी ओर चंद काॅरपोरेट ताक़तों के समक्ष घुटना टेकने की सरकारी मज़बूरी का लक्षण। इसके लिए हमें सरकारों की मज़बूरी पर दया आनी चाहिए। उन्हेे ऐसी मज़बूरी से बाहर निकालने पर जुगत पर विचार करना चाहिए।
हमें देखना चाहिए कि किसी भी राज्य में सरकार किसी भी दल अथवा दलों की हो; पानी, पढ़ाई, दवाई, कमाई, आवास, बिजली, डाक, सुरक्षा जैसी जीवन जीने की ज़रूरी शासकीय जवाबदेही के कार्यों को भी तेज़ी के साथ पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के ज़रिए निजी कंपनियों को क्यों हस्तांतरित किया जा रहा है ? हमें इसमें खुद अपनी भूमिका, स्थिति तथा उन परिस्थितियों पर विचार करना चाहिए, जिनके चलते हमारे करोड़ों वोटों से चुनी सरकार भी चंद आर्थिक शक्तियों के आज्ञा पालन को मज़बूर होती जा रही है। क्या यह एक साल या सिर्फ मोदी काल में हुआ ?? हमें आर्थिक शक्तियों के वैश्विक गठजोड़ और एजेण्डे का विश्लेषण करना चाहिए।
एक चेतावनी, आर्थिक साम्राज्यवाद
आइए, गौर करें कि पंडित जवाहरलाल नेहरु ने अपनी पुस्तक 'ग्लिम्सिस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री' में संयुक्त राज्य अमेरिका के आर्थिक साम्राज्यवाद का खुलासा करते हुए 1933 में लिखा था,
''सबसे नये किस्म का यह साम्राज्य जमीन पर कब्जा नहीं करता; यह तो दूसरे देश की दौलत या दौलत पैदा करने वाले संसाधनों पर कब्जा करता है।.... आधुनिक ढंग का यह साम्राज्य आँखों से ओझल आर्थिक साम्राज्य है।’’ आर्थिक साम्राज्य फैलाने वाली ऐसी ताकतें राजनैतिक रूप से आजाद देशों की सरकारों की जैसे चाहे लगाम खींच देती हैं। इसके लिए वे कमजोर, छोटे व विकासशील देशों में राजनैतिक जोङतोङ व षडयंत्र करती रहती हैं।''
ऐसी विघटनकारी शक्तियों से राष्ट्र की रक्षा के लिए चेताते हुए पंडित नेहरु ने इसे अंतर्राष्ट्रीय साजिशों का इतना उलझा हुआ जाल बताया था कि इसे सुलझाना या इसमें एक बार घुस जाने के बाद बाहर निकलना अत्यंत दुष्कर होता है। इसके लिए महाशक्तियां अपने आर्थिक फैलाव के लक्ष्य देशों की सत्तााओं की उलट-पलट में सीधी दिलचस्पी रखती हैं।
इस लिखे के प्रति सचेत होने की बजाय, भारतीय राजनीतिक दलों ने अचेतन होने में अपना भला समझा। सरकार बनाने और चलाने में ज्यों-ज्यों काॅरपोरेट की भूमिका बढ़ती गई, सरकार-बाज़ार के बीच नापाक गठजोड़ का उत्साह बढ़ता गया। हालांकि सरकार और बाज़ार कभी किसान के नियंत्रण में नहीं रहे। किंतु कारपोरेट इशारों पर नाचने को जितनी उतावली और मज़बूरी... दोनो आज दिखाई दे रही है, उतनी पहली कभी न थी।
हमें शुक्रिया अदा करना चाहिए सरकार की हरकतों और किसान आंदोलन...दोनो का, जिन्होनेे अब और अधिक स्पष्ट कर दिया है कि गांव, ग़रीब, खेती और छोटे कारोबारियों के समक्ष असली चुनौती सरकार नहीं, कारपोरेट जगत् की बेलगाम मुनाफा कमाने की चालबाजियां हैं। बड़ी मछलियों द्वारा छोटी मछलियों को खा जाने की अनैतिकता है। इस लगाम कैसे लगेे ? कृषि क़ानूनों के लिफाफे में लिपटी काॅरपोरेट दुलत्ती, किसानों से ज्यादा उपभोक्ता हितों पर चोट करेगी। सोचें कि क्या यह समझ और उससे उपजी उपभोक्ता जागरुकता और एकता... लगाम लगाने में सहयोगी हो सकती है ?
01 फीसदी बनाम 99 फीसदी
ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की 50 प्रतिशत आबादी कुल मिलाकर जितनी संपत्ति हासिल कर सकी है, उतनी तो मात्र 09 अमीरों के पास मौजूद है। यह अंतर लगातार बढ़ रहा है। अमीर और ग़रीब की संपत्ति वृद्धि रफ्तार में हवाई जहाज और कछुआ चाल जैसा अंतर है। आंकड़ा है कि सबसे ग़रीब 10 फीसदी लोगों की आय बढ़ने की बजाय, 15 फीसदी से ज्यादा घट गई है। यह आंकड़ा तीन साल पुराना है। हालात बता रहे हैं कि कोरोना काल के पश्चात् यह विषमता कष्टकारी स्तर तक बढ़ी है।
दुःखद है कि भारत की संपत्ति के 58 प्रतिशत पर एक फीसदी आबादी का कब्जा है। इस एक फीसदी आबादी के अर्थ की उनकी मनचाही व्यवस्था करने की खातिर शेष 99 प्रतिशत की अनदेखी करने की सरकारी मज़बूरी से मुक्ति कैसे मिले ? बजट, नीति, क़ानून बनाते वक्त शेष 99 प्रतिशत आबादी प्राथमिकता पर कैसे आए ? अब लक्ष्य यह भी हो। 2019 के लोकसभा चुनावों में 67.11 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया था। क्या 100 फीसदी मतदान की अनिवार्यता से इसका समाधान निकलेगा ? इस पर विचार हो। तद्नुसार क़ानून बने। पालना सुनिश्चित हो।
सक्षमता का संबल ज़रूरी
आंदोलन को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर केन्द्रित करने के ताजा राग और चालों से सतर्क हो जाना चाहिए। यह सच है कि न्यूनतम समर्थन खरीद मूल्य और सरकारी खरीद...दोनो की क्षमता बढ़ाने तथा किसानों को न्यूनतम मूल्य से कम में फसल बेचने के लिए विवश करने वाले खुले बाज़ार पर सख्ती बरतकर किसानों को लाभ पहुंचाया जा सकता है। उत्पादक से उपभोक्ता के बीच सक्रिय दलालों के मुनाफे को नियंत्रित करना भी एक आवश्यक कदम है। किंतु कारपोरेट नियंत्रित वर्तमान राजनीतिक दौर को देखते हुए जन-दबाव बनाये बगैर ये कदम संभव नहीं दिखते।
बाज़ार और सरकार कभी किसान के नियंत्रण में नहीं रहे। लिहाजा, सरकार, कर्ज़ और बाज़ार के भरोसे खेती करना अब पूरी तरह जोखिम भरा सौदा है। जब तक किसान अपनी फसल के भण्डारण की स्वावलंबी क्षमता हासिल नहीं कर लेता; तब तक आगे भी ऐसी कोई संभावना नहीं होने वाली। अतः अब पूरी बात हो।
'खरी फसल, चोखा दाम' - किसान इन दोनो क्षमताओं को कैसे हासिल करे ? बाज़ार और किसान के बीच की सौदेबाजी में बेईमानी की बजाय, नैतिकता सुनिश्चित कैसे हो ? इस पर बात हो।
उपभोक्ता भी समझें कि ये क़ानून, उन्हे कैसे दुष्प्रभावित करेंगे।
कहना न होगा कि किसान आंदोलन को अब व्यापक भूमिका में आना चाहिए। आंदोलन का लक्ष्य अब वे सभी मुद्दे व तौर-तरीके होने चाहिए, जिन्होने मिलकर गांव, ग़रीब और किसान की जेब फाड़ दी है।
छोटी जोत पर खतरा
भारत सरकार, छोटी जोत की किसानी को 52 फीसदी से घटाकर 40 फीसदी पर लाने के 20 साल पुराने एक ऐसे एजेण्डे पर काम कर रही है, जिसमें वह बार-बार असफल हुई है। छोटी जोत मतलब अंतिम आदमी की सुरक्षा और ज्यादा से ज्यादा की मालिकी। छोटी जोत की किसानी, जीवन जीने की न्यूनतम ज़रूरतों की पूर्ति के लिए धरती के सदुपयोग को प्रेरित करती है। बड़ी जोत की किसानी, व्यावसायीकरण, अधिक सुविधा भोग और एकाधिकार का लालच बढ़ाती है। मिट्टी, पानी, हवा, सेहत और आर्थिक-सामजिक समता आदि की दृष्टि से इसके अपने नुक़सान है। अतः इसके उचित-अनुचित पर बात हो।
''धरती सब की ज़रूरत पूरा कर सकती है। किंतु लालच किसी एक का भी नहीं।'' - राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के इस कथन को आइना बनाने की ज़रूरत है।
लागत घटोत्तरी भी हो मुद्दा
किसान अपने लिए नहीं, सभी की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उत्पादन करता है। खेती ज़हरीली न हो, हम बीमार न हों; इसके लिए प्राकृतिक खेती उत्पादन लागत में घटोत्तरी करना भी मुनाफा बढ़ाने का एक स्थाई उपाय है। कृषि में लागत मूल्य के मुख्य 10 मद हैं: भूमि, मशीनी उपकरण, सिंचाई, बीज, खाद, कीट-खरपतवारनाशक, मड़ाई, भण्डारण, समय और आवश्यक श्रम। कृषि ज़रूरत की इन सभी चीजों पर किसान का स्वयं का नियंत्रण हुए बगैर, न कृषि की लागत घटाई जा सकती है और न ही खेती को स्वाभिमानपूर्वक उदर-पोषण करने वाले कार्य की श्रेणी में लाया जा सकता है। इसमें से कुछ की कुंजी स्वयं किसान के हाथ हैं। इस आंदोलन का उपयोग इस संकल्प को हासिल करने में भी हो।
ग्रामीण सम्पत्ति कर पर बहस बेहद ज़रूरी
प्रधानमंत्री स्वामित्व पहल योजना पर गौर फरमाइए। यह योजना गत् वर्ष 24 अप्रैल, वर्ष-2020 को शुरु हुई। इस योजना से गांव की आबादी की ज़मीन की सरकारी रिकाॅर्ड में दर्जगी हो जाएगी। इसके लिए ड्रोन आदि आधुनिक तक़नीकी का इस्तेमाल किया जाएगा। लोगों को अपनी सम्पत्ति की मालिकी मिल जाएगी। जैसे खेती की खतौनी, वैसे ही घर के काग़ज़ का घरौनी दस्तावेज़ बनेगा। प्रत्येक की संपत्ति का मूल्यांकन होगा। अपने घरौनी दस्तावेज़ के आधार पर घर जैसी संपत्ति गिरवी रखकर अब गांव के लोग भी कर्ज ले सकेंगे। योजना के इन्ही पहलुओं को सर्वाधिक प्रचारित किया गया। जबकि योजना के जिस पहलू को नहीं प्रचारित किया गया, वह है ग्रामीण सम्पत्ति कर।
योजना में कहा गया है कि आबादी की ऐसी सम्पत्ति पर टैक्स भी देना होगा। क्या भारत के सभी गांव और गांववासी इसके लिए तैयार हैं ? कोरोना काल ने लोगों की कमर तोड़ दी है। क्या राजस्व बढ़ाने की धुन पर गांव-ग़रीब पर आर्थिक बोझ को बढ़ाने का उचित समय है ? सरकार, सेस, सरचार्ज जैसे कदम से अपना राजस्व बढाने में लगी ही है। विशेषज्ञ कह रहे हैं कि केन्द्र की सरकार ऐसे कई कदमों के ज़रिए, राज्यों के हक़ में हस्तक्षेप कर रही है।
क्या ऐसे में आंदोलन की पंचायतों को यह प्रश्न नहीं उठाना चाहिए। ग्रामीण सम्पत्ति कर, एक स्थानीय सम्पत्ति कर है। ज़रूरत पड़ने पर यदि कभी ग्रामीण सम्पत्ति अथवा अन्य कर लगाने का निर्णय करना भी हो तो उसे तय करने और उसका उपयोग करने का हक़ ग्राम पंचायतों को वैधानिक तौर पर प्रदत है ही। क्या प्रधानमंत्री स्वामित्व पहल योजना को इसमें हस्तक्षेप नहीं माना जाहिए ?
क्या ऐसे हस्तक्षेप को रोकना, लोकतंत्र को लंगड़ा होते जाने से रोकना जैसा नहीं होगा ? आंदोलनकारियों को विचार करना चाहिए। प्रत्येक ग्रामसभा को विशेष बैठक की मांग कर ऐसे मुद्दों पर चिंतन-मंथन करना चाहिए। जैसी सहमति हो, तद्नुसार प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को चेताना चाहिए।
यह उचित अवसर है। किंतु क्या व्यापक लक्ष्यपूर्ति के ऐसे मुद्दे, सिर्फ क़ानून रद्दगी अथवा 'गद्दी छोड़ो' की चेेतावनी मात्र से संभव होंगे ?
सामूहिक नेतृत्व वाले किसान आंदोलन के एकल नेतृत्व की ओर बढ़ जाने की स्थिति में तो बिल्कुल नहीं। सवाल राकेश टिकैत की ईमानदारी का नहीं है; प्रक्रिया महत्वपूर्ण है। एकल नेतृत्व से तात्कालिक तौर पर मज़बूती का एहसास हो सकता है, किंतु इससे भारत को कोई लोकतांत्रिक मज़बूती मिलेगी ? इसकी संभावना शून्य है।
ऐसा न हो, इसके लिए जे पी आंदोलन और अन्ना मूवमेन्ट का विश्लेषण कीजिए। इस आंदोलन का नतीजा भी किसी एक नए राजनीतिक दल के जन्म और सरकार में दल - बदल तक सीमित होकर न रह जाए; इसके लिए ज़रूरी है कि किसान आंदोलन सामूहिक नेतृत्व की ओर वापसी करे। लोकतांत्रिक सोचे। दूरगामी हासिल करे।
अरुण तिवारी
amethiarun@gmail.com
146, सुंदर ब्लाॅक, शकरपुर, दिल्ली-92
9868793799
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