वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Jun 5, 2020

विश्व पर्यावरण संरक्षण की विधिक संकल्पना


भारतीय संस्कृति और पर्यावरण 
पर्यावरण एक व्यापक शब्द है। यह उन संपूर्ण शक्तियों, परिस्थितियों एवं वस्तुओं का योग है, जो मानव जगत को परावृत्त करती हैं तथा उनके क्रियाकलापों को अनुशासित करती हैं। हमारे चारों ओर जो विराट प्राकृतिक परिवेश व्याप्त है, उसे ही हम पर्यावरण कहते हैं। परस्परावलंबी संबंध का नाम पर्यावरण है। हमारे चारों ओर जो भी वस्तुएं परिस्थितियां एवं शक्तियां विद्यमान हैं, वे सब हमारे क्रियाकलापों को प्रभावित करती हैं और उसके लिए एक दायरा सुनिश्चित करती हैं। इसी दायरे को हम पर्यावरण कहते हैं। यह दायरा व्यक्ति, गांव, नगर, प्रदेश, महाद्वीप, विश्व अथवा संपूर्ण सौरमंडल या ब्रह्मांड हो सकता है। इसीलिए वेदकालीन मनीषियों ने द्युलोक से लेकर व्यक्ति तक, समस्त परिवेश के लिए शांति की प्रार्थना की है। शुक्ल यजुर्वेद में ऋषि प्रार्थना करता है, ‘द्योः शांतिरंतरिक्षं...’ (शुक्ल यजुर्वेद, 36/17)। इसलिए वैदिक काल से आज तक चिंतकों और मनीषियों द्वारा समय-समय पर पर्यावरण के प्रति अपनी चिंता को अभिव्यक्त कर मानव –जाति को सचेष्ट करने के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह किया गया है। वैदिक ऋषियों ने उन समस्त उपकारक तत्वों को देव कहकर उनके महत्व को प्रतिपादित तो किया ही है, साथ ही मनुष्य के जीवन में उनके पर्यावरणीय महत्व को भी भली-भांति स्वीकार किया है। इन देवताओं के लिए मनुष्य का जीवन ऋणी हो गया और शास्त्रीय कल्पनाओं ने मनुष्य को पितृऋण और ऋषिऋण के साथ-साथ देवऋण से भी उन्मुक्त होने की ओर संकेत किया है। वह अपने कर्तव्य में देवऋण से मुक्त होने के लिए भी कर्तव्य करें। ऋषियों ने उसके लिए यह मर्यादा स्थापित की है। पर्यावरण को संतुलित रखने के लिए जिन देवताओं की महत्वपूर्ण भूमिका है उनमें – सूर्य, वायु, वरुण (जल) एवं अग्नि देवताओं से रक्षा की कामना की गई है। ऋग्वेद (1/158/1, 7/35/11) तथा अथर्ववेद (10/9/12) में दिव्य, पार्थिव और जलीय देवों से कल्याण की कामना स्पष्ट रूप से उल्लिखित है।
इसलिए उन्हें मनुष्य के समतुल्य माना गया है। ऋग्वेद से लेकर बृहदारण्यकोपनिषद्, पद्मपुराण और मनुस्मृति सहित अन्य वाङ्मयों में इसके संदर्भ मिलते हैं। छान्दोग्यउपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मा से ओतप्रोत होते हैं और मनुष्यों की भाँति सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं। हिन्दू दर्शन में एक वृक्ष की मनुष्य के दस पुत्रों से तुलना की गई है- 
'दशकूप समावापी: दशवापी समोहृद:।
दशहृद सम:पुत्रो दशपत्र समोद्रुम:।। '
सृष्टि में पदार्थों में संतुलन बनाए रखने के लिए यजुर्वेद में एक श्लोक वॢणत है-
ओम द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतये: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्व शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि।।
ओम शान्ति: शान्ति: शान्ति:।।
इस श्लोक से ही मानव को प्राकृतिक पदार्थों में शांति अर्थात संतुलन बनाए रखने का उपदेश दिया गया है। श्लोक में पर्यावरण समस्या के प्रति मानव को सचेत आज से हजारों साल पहले से ही किया गया है। पृथ्वी, जल, औषधि, वनस्पति आदि में शांति का अर्थ है, इनमें संतुलन बने रहना। जब इनका संतुलन बिगड़ जाएगा, तभी इनमें विकार उत्पन्न हो जाएगा।
'मकर संक्रान्ति, वसंत पंचमी, महाशिवरात्रि, होली, नवरात्र, गुड़ी पड़वा, वट पूर्णिमा, ओणम्, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा, छठ पूजा, शरद पूर्णिमा, अन्नकूट, देव प्रबोधिनी एकादशी, हरियाली तीज, गंगा दशहरा आदि सब पर्वों में प्रकृति संरक्षण का पुण्य स्मरण है।
विश्व पर्यावरण दिवस 
सन 1972 अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण राजनीति का महत्त्वपूर्ण साल था क्योंकि इस साल 5 जून से 16 जून तक यूनाइटेड नेशंस के तत्वाधान में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में एनवायर्नमेंटल इश्यूज को लेकर पहली मेजर कांफ्रेंस की गयी। इस कांफेरेंसे को “कांफेरेंसे ऑन ह्यूमन एनवायरनमेंट” या “स्टॉकहोम कांफेरेंसे” के नाम से भी जाना जाता है।
इस कांफेरेंसे का लक्ष्य मानव परिवेश को बचाने और बढ़ाने की चुनौती को हल करने के तरीके के बारे में एक बुनियादी आम धारणा तैयार करना था।
इसके बाद इसी साल 15 दिसंबर को संयुक्त राष्ट्र महासभा (United Nations General Assembly) ने एक प्रस्ताव पारित किया और प्रति वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। तभी से प्रति वर्ष यह दिवस 100 से अधिक देशों में मनाया जाने लगा।
आधिकारिक तौर पर विश्व पर्यावरण दिवस पहली बार 5 जून 1974 को मनाया गया और तब इसकी थीम थी – “Only One Earth”| इस बार विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून, 2020 को मनाया रहा है, जिसका थीम 'जैव विविधता' रखा गया है।
मानवीय क्रियाकलापों की वजह से पृथ्वी पर बहुत सारे प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हुआ है। इसी सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए बहुत सारी सरकारों एवं देशों ने इनकी रक्षा एवं उचित दोहन के सन्दर्भ में अनेकों समझौते संपन्न किये हैं। इस तरह के समझौते यूरोप, अमेरिका और अफ्रीका के देशों में 1910 के दशक से शुरू हुए हैं। इसी तरह के अनेकों समझौते जैसे- क्योटो प्रोटोकाल, मांट्रियल प्रोटोकाल और रिओ सम्मलेन बहुराष्ट्रीय समझौतों की श्रेणी में आते हैं। 
पर्यावरणीय विधान (कानून)
भारत में पर्यावरण कानून का इतिहास 125 वर्ष पुराना है। प्रथम कानून सन् 1894 में पास हुआ था, जिसमें वायु प्रदूषण नियंत्रणकारी कानून थे। भारत में पर्यावरण संरक्षण के लिए विस्तृत कानूनी संरचना का सृजन हर सरकार ने अपने अपने स्तर पर किया है| भारतीय पर्यावरण संरक्षण क़ानूनो की एक विस्तृत श्रंखला है| भारतीय संविधान विश्व का पहला संविधान है जिसमें पर्यावरण संरक्षण के लिये विशिष्ट प्रावधान हैं। भारतीय संविधान में निहित समाजवादी विचारधारा का मुख्य लक्ष्य है सभी को जीवन का सुखद स्तर उपलब्ध करवाना जो कि केवल एक प्रदूषण मुक्त वातावरण में ही सम्भव है। प्रस्तावना का अन्य उद्देश्य है ‘व्यक्ति की गरिमा’ को सुनिश्चित करना। कोई व्यक्ति गरिमा के साथ नहीं जी सकता है यदि उसे प्रदूषणमुक्त वातावरण न मिले। सन 1976 में राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में 42वें संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 48 (क) जोड़ा गया है| अनुच्छेद 48ए के अनुसार सरकार देश के पर्यावरण संरक्षण और सुधार तथा वन एवं वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगी। 42वें संविधान के अच्छेद 51ए (जी) के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करें और उनका सुधार करें तथा प्राणीमात्र के प्रति दया-भाव रखें। भारत सरकार द्वारा सन् 1980 में पर्यावरण मंत्रालय की स्थापना की गई। न्यायमूर्ति श्री रंगनाथ मिश्र, उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एवं पूर्व अध्यक्ष, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार प्रदूषण और भूमंडलीय समस्याएँ संविधान के अनुच्छ्द 21 के अन्तर्गत आती हैं। अनुच्छेद 32 के तहत उच्चतम न्यायालय को तथा सभी उच्च न्यायालयों को अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत न्यायाधिकार प्रदान किये गए हैं।  
भारतीय कानूनों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता हैं-
(क) सामान्य कानून
(ख) विनियामक कानून और
(ग) विशेष विधान

(क) सामान्य कानून : अंग्रेजी का शब्द ‘कॉमन लॉ’ लैटिन शब्द ‘ex communis’ से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है ‘सामान्य कानून’। यह इंग्लैंड के परम्परागत कानून की संस्था है और यह न्यायिक निर्णयों पर आधारित है। भारतीय संविधान की अनुच्छेद 372 कॉमन लॉ पर आधारित है और यह अभी तक लागू है। पर्यावरण प्रदूषण के विरुद्ध कॉमन लॉ की सहायता लॉ ऑफ़ टोरट (सिविल राँग) के तहत उपलब्ध है।
ऐसे किसी भी कार्य के विरुद्ध जो सम्पत्ति या व्यक्ति के हानि का कारण बना हो, प्रभावित पक्ष क्षति-पूर्ति या निषेधाज्ञा या दोनों का दावा कर सकता है।
पर्यावरण प्रदूषण के लिये महत्त्वपूर्ण कारक हैं :
(1) व्यवधान (2) अतिक्रमण तथा (3) लापरवाही
(ख) विनियामक कानून-उपचार : विनियामक प्रावधान जो सभी प्रकार के प्रदूषण को रोकने तथा नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। वे इस प्रकार हैं-
- संवैधानिक प्रावधान
- नागरिक प्रक्रिया संहिता के प्रावधान
- फैक्टरीज एक्ट, 1948
- वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट, 1972 तथा
- मोटर वेहिकल एक्ट, 1988

(ग) विशेष विधान : जल एवं वायु प्रदूषण।
पर्यावरण कानून का मुख्य उद्देश्य वातावरण के प्राकृतिक उपचार को प्रदूषण से बचाना है। कानून पर्यावरण के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है इसकी मुख्य भूमिकाएँ हैं-
- कानून पर्यावरण को क्षति पहुँचाने वाले व्यक्ति को दंडित करता है।
- कानून पीड़ित को क्षतिपूर्ति दिलवाता है।
- कानून व्यक्ति को पर्यावरण पर दबाव बढ़ाने से वर्जित करता है।
- कानून पर्यावरण संरक्षण नीति को कार्य रूप में परिणत करता है।
- कानून विकास नीति को भी कार्य के रूप में परिणत करता है।
भारत में पर्यावरण कानून का इतिहास 115 वर्ष पुराना है। प्रथम कानून 1894 में पास हुआ था। सबसे पहले वायु प्रदूषण नियंत्रणकारी कानून थे। अब तक बनाए गए सभी कानूनी प्रावधानों को प्रभावशाली ढंग से लागू करने योग्य बनाने के लिये इन अधिनियमों में संशोधन किया गया। संशोधित अधिनियम इस प्रकार हैं –
(1) एन्वायरन्मेंट प्रोटेक्शन एक्ट, 1986
(2) वॉटर प्रिवेन्शन एंड कन्ट्रोल ऑफ पॉल्यूशन एक्ट-1974, 1988 में संशोधित।
(3) एयर प्रिवेन्शन एंड कन्ट्रोल ऑफ पॉल्यूशन एक्ट 1981, 1988 में संशोधित।
(4) पब्लिक लायबिलिटी इन्श्योरेंस एक्ट 1991
(5) द नेशनल एन्वायरन्मेंट ट्राब्यूनल एक्ट 1995
(6) वाइल्ड लाइफ एक्ट 1972, 1991 में संशोधित
(7) फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट, 1980, 1988 में संशोधित
(8) मोटर वेहिकल एक्ट 1988
(9) बायोमेडिकल वेस्ट
(10) खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन, हैंडलिंग और ट्रांसबाउन्ड्री) नियम, 2008
(11) ई-कचरा (प्रबंधन और हैंडलिंग) नियम, 2011, आदि 
अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरणीय एजेंसियाँ
यूनाइटेड नेशन्स पर्यावरण प्रोग्राम (UNEP), वर्ल्ड स्वास्थ्य संगठन (WHO) खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO)आदि कुछ मुख्य अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियाँ हैं।
 भारत में पर्यावरणीय संस्थाएं 
भारत में 1972 में पर्यावरणीय योजना एवं सहयोग के लिये राष्ट्रीय कमेटी (National Committee of Environment and Forest, NCEPC) के गठन के लिये कदम उठाए गए जो धीरे-धीरे पर्यावरण का अलग विभाग बना और 1985 में यह पूर्णरूप से पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के रूप में परिवर्तित हुआ। 
भारत में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं वन्य जीवन के लिये भारतीय बोर्ड ही मुख्य राष्ट्रीय पर्यावरणीय एजेंसियाँ हैं। 
मनुष्य अपने पर्यावरण का निर्माता एवं शिल्पकार दोनों ही है जिससे उसे भौतिक स्थिरता मिली है। इस ग्रह पर मनुष्य जाति की एक लम्बी तथा पीड़ादायक उत्क्रमण यात्रा में एक ऐसी स्थिति आ गई है जब विज्ञान तथा तकनीकी के तीव्र विस्तार के द्वारा मनुष्य ने एक प्रकार से अभूतपूर्व स्तर पर अपने पर्यावरण की कायापलट करने की क्षमता प्राप्त कर ली है। पर्यावरण के प्रकृति प्रदत्त और मानव निर्मित दोनों पक्ष उसकी सलामती तथा उसके आधारभूत मानवाधिकार के लिये आवश्यक हैं। निष्कर्षतः क्रियात्मक-अध्यात्म का परिपालन, विरासत की सुरक्षा और तृष्णा पर अंकुश लगाकर ही पर्यावरण को बचाया जा सकता है। विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर यह अपेक्षा करना सही होगा कि रेत में सिर छुपाने के स्थान पर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये स्वच्छ तकनीकों को आगे लाया जाना चाहिए, गलत तकनीकों को नकारा जाना चाहिए या सुधार कर सुरक्षित बनाया जाना चाहिए। उम्मीद है, कम-से-कम भारत में ज़मीनी हकीक़त का अर्थशास्त्र उसकी नींव रखेगा।

लेखक: अंजली दीक्षित, असिस्टेंट प्रोफेसर, 
फैकल्टी ऑफ़ जुरिडिकल साइंसेज, रामा विश्वविद्यालय, कानपुर



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