अमृता की लताएं क्या कोरोना को बेक़ाबू होने से रोक सकती हैं?
कोरोना के इस काल चक्र में जहां सारी दुनिया के मुल्क़ टीके को ईज़ाद करने में जुटे हुए हैं, वही मानवता भारत के आयुर्वेद की तरफ ताक रही है, यजुर्वेद का एक हिस्सा जो हज़ारों वर्षों से श्रुतियों के रूप में हमारे बीच परंपराओं के जरिए पीढ़ी दर पीढ़ी मौजू होता रहा, फिर टीकाएं लिखी गई, और बाद में बाज़ारवाद के नीम हकीमों ने आयुर्वेद के नाम पर न जाने कितने मनगढ़ंत नुस्ख़े ईजाद किए शर्तिया इलाज़ के नाम पर! आयुर्वेद में बहुत सी मिलावट के बाद भी ग्रन्थों में जो लिखा है उससे इतर परम्पराओं में जो हमारा पारम्परिक ज्ञान है जनमानस में वह बहुत कारगर साबित होता रहा है, गांवों में अभी भी दादी नानी के तमाम नुस्ख़े पल में मर्ज से राहत पहुँचा देते है, उन्ही नुस्खों का ज़िक्र करूँगा अमृता के जरिए, एक वनस्पति जो लता के तौर पर आपको बहुत से वृक्षों और दीवारों पर लटकती नज़र आ जाएगी, हरे लाल काले मोती के दानों की तरह अंगूर के गुच्छों की शक्ल में फलों से लदी हुई लताएं जिनसे बारीक हवाई जड़े धागों की तरह लटकती नज़र आती है जो किसी वृक्ष या जमीन से जुड़कर फिर लता की शक्ल अख्तियार कर लेती हैं, यह लताएं अंगूठे की मोटाई से लेकर इंसान की भुजाओं की तरह भी मोटी हो सकती है यदि उन्हें वक्त और माहौल मिल सके, तो यह पहचान हुई अमृता की, जिसे गिलोय या गुडुच भी कहते हैं, वैसे उत्तर भारत के गांवों में इसे गुर्च कहा जाता है।
गिलोय के वैज्ञानिक परिचय में इसका नाम टीनोस्पर्मा कार्डिफोलिया (Tinospora cordifolia) है, इसका कुल है मेनिस्परमेसी, इस शब्द के मायने ही होते हैं अर्द्ध चन्द्राकार, यानी उन वनस्पतियों का परिवार जिसके बीज आधे चन्द्रमा के आकार के हो, गिलोय का बीज भी आधे चन्द्रमा की शक्ल का होता है, यह भारतीय उपमहाद्वीप की वनस्पति है, इसका सदियों से पारम्परिक इस्तेमाल शर्करा की बीमारी, पीलिया, मलेरिया, दर्द, सूजन, पाइल्स, बुखार और जहरीले कीड़े और सांप के काटने तक मे होता आया है, बावजूद इसके इस औषधीय वनस्पति को नेशनल मेडिसिनल प्लांट्स बोर्ड (NMPB) द्वारा अभी एक दशक पहले मान्यता दी गई।
प्राचीन भारतीय आयुर्वेद में चरक और सुश्रुत जैसे महान वनस्पति शास्त्री व आयुर्विज्ञान के चिकित्सकों ने गिलोय को अपने ग्रन्थों में उल्लेखित किया है, इसमे बहुत से महत्वपूर्म फाइटो केमिकल्स मौजूद हैं, साथ ही कॉपर, मैग्नीशियम, फास्फोरस, कैल्शियम, जिंक, आयरन जैसे महत्वपूर्ण तत्व मौजूद हैं, गिलोय एंटीपायरेटिक, एनलजसिक, एंटी कैंसर, एंटी अल्सर, एंटी इन्फ्लामेट्री, एंटी एनेकजाइटी, एंटी डायरियल, डायबिटीज, गठिया, त्वचा रोग, एनीमिया, अस्थमा, लिवर, ह्रदय की बीमारियों में मुफीद है, इम्युनिटी को बढाने में बहुत उपयोगी औषधि के तौर पर प्रयोग होती आई है।
गिलोय की हो रही है तस्करी-
इस महत्वपूर्ण वनस्पति का दोहन अवैध तौर पर किया जा रहा, पिछले बरस खीरी जनपद उत्तर प्रदेश जहां ग्रामीण क्षेत्रों में गिलोय बहुत ज्यादा मात्रा में उगती है, तराई के जंगल व गांवों के तमाम वृक्ष गिलोय से आच्छादित हैं, वहां से कुछ लोगों ने रातो रात ट्रकों गिलोय का निष्कासन किया, वे कौन लोग थे? कहां से आए? किसी को नही मालूम !, बस वह अपने वाहनों के साथ एक कस्बे या गांव में पहुंचते, लोगों को इकठ्ठा करते और सबको कुछ रुपए का लालच देकर गिलोय इकठ्ठा करने को कहते, आग की तरह यह बात गांवों में फैलती स्त्री पुरुष बच्चे दिन हो या रात गांवों के बागों, जंगलों और घरों की दीवारों से इस लता को नोचते हुए देखे गए, पूछने पर बताया कि कुछ लोग आए हैं, पैसा देंगे इसका, अब बताइए, इस प्राकृतिक संपदा के इस तरह के दोहन पर कोई कानून है? और यदि है, तो गांवों की यह जैव सम्पदा किसके अधिकार क्षेत्र में है, वैसे तो केंद्र व राज्य सरकारों का अधिकार सर्वव्यापी है! पर मेरी समझ मे इस जैव सम्पदा पर ग्राम पंचायतों का अधिकार होना चाहिए, और इस तरह का दोहन यदि कोई व्यक्ति या आयुर्वेदिक प्राइवेट लिमिटेड करती है तो उससे इस जैव सम्पदा की कीमत निर्धारित कर ग्राम पंचायते वसूल करें और उसे ग्राम विकास निधि के तौर पर खर्च करें। कुछ रोज़ पहले एन एच 24 पर लखनऊ से पहले तमाम लोगों को मोटरसाइकिल साइकिल व ठेलिया पर गिलोय ढोते हुए देखा, इस जैव सम्पदा के दोहन की कोई तो नियमावली होनी चाहिए, और ग्रामीण जनमानस को भी जागरूक होना चाहिए कि अमृत तुल्य असाध्य रोगों में कारगर यह वनस्पति बाज़ार के व्यापारी चंद रुपयों में लूट रहे हैं।
कोविड 19 के दौर में जनमानस में गिलोय तुलसी कालीमिर्च दालचीनी आदि का महत्व बढ़ा है, जाहिर है बाजार इसका फायदा उठाने के फिराक में है, आयुर्विज्ञान के संस्थानों ने भी गिलोय का इस्तेमाल करने की बात कही है, इम्युनिटी इम्प्रूव करने के लिए, परन्तु अफसोस कि जिस तरह नीम व तुलसी पर वैज्ञानिक शोध हुए वहां गिलोय को वह स्थान नही मिला, बता दूं उन्नीसवी सदी में इसी गिलोय के परिवार की वनस्पतियों से आपरेशन के वक्त एनेस्थीसिया के तौर पर इस्तेमाल होता रहा है और प्राचीन भारत मे जहर बुझे तीर बनाने में यह वनस्पतियां काम आती रही हैं क्योंकि इनमें Tubocurarine मौजूद होता है, इसके जहरीले गुणों का भी औषधीय महत्व है।
चलते चलते ये अमृता है "ये न नष्ट होती है न नष्ट होने देती है", यानी इसका इस्तेमाल अमृतीय प्रभाव डालता है, कभी इसकी लता लाकर घर रखिए सालों बाद भी यह हरी बनी रहेगी, और इस लता से जड़े भी निकलने लगेंगी, यही इसके अमरत्व का रहस्य है जो मानव ही नही जंतु जगत में कल्याणकारी साबित हो सकता है। निश्चित ही भारतीय वैज्ञानिक को गिलोय पर गहन अनुसंधान करने चाहिए, किसे पता शायद इस महामारी का तोड़ इस अमृता के पास हो!
कृष्ण कुमार मिश्र
वन्य जीव विशेषज्ञ, सम्पादक दुधवा लाइव इंटरनेशनल जर्नल व संस्थापक शिव कुमारी देवी मेमोरियल ट्रस्ट
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