वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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बीती सदी में बापू ने कहा था

"किसी राष्ट्र की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से मापा जाता है कि वह अपने यहां जानवरों से किस तरह का सलूक करता है"- मोहनदास करमचन्द गाँधी

ये जंगल तो हमारे मायका हैं

May 4, 2020

गुंडागर्दी- विकास औऱ सभ्यता की



जिस तेजी से प्रकृति औऱ पर्यावरण का पुनर्नवीकरण हो रहा है उसे देखते हुए यह विश्वास गहरा रहा  कि इस कोरोना काल में पृथ्वी और उसे आच्छादित किये सम्पूर्ण प्रकृति के अकूत वैभव और रूपश्रंगार का आज विस्तार हो रहा है।

औद्योगीकरण के दौर में कदम रखते हुए हमारी मुनाफाखोर आदतों ने जीवन के तमाम स्रोतों को बेरहमी से तहस- नहस कर डाला था।जंगलों के अंधाधुंध कटान, नदियों के प्रदूषण, उन्नत पहाड़ों को बेदर्दी से पीस- पीस कर क्षतिग्रस्त करते सीमेंट के दैत्याकार चीखते कारखाने।

आधिपत्य की आदमखोर हवस ने हमें परले दर्जे का गैर जिम्मेदार बना डाला था। अति तो तब और ज्यादा हो गई जब, अपनी इन्ही गुंडा आदतों के साथ हम चंद्रमा और मंगल को भी उपनिवेश बनाने बढ़ चले ।

आज विज्ञान का सारा अहंकार सरेआम चकनाचूर हो चुका है। परिभाषाएं बदल चुकी हैं।घरों के भीतर दुम दबाकर बैठे हुए हम पता नहीं कौन सी जंग लड़ रहे हैं। एक ऐसी जंग, जिसका स्थाई भाव ही भय है। रस सम्प्रदाय के आचार्यगण अब नया विवेचन पढ़ें।
"उत्तर कोरोना काल" में अगर हमारी संततियां बची रह गईं तो वे अब कभी हमारी तरह नहीं होंगी। बिल्कुल अलग होगी उनकी जीवन चर्या। उनका रहन- सहन , उनके आपसी रिश्ते सब "पूर्व कोरोना काल" के अपाहिज संवेदना वाले अपने पूर्वजों से भिन्न और  प्राकृतिक होंगे।

 हमारी सबसे बड़ी अर्जित और आत्मिक संपदा के रूप में विकसित "भाषा" का छद्म और छद्म का दयनीय खेल देखेंगी हमारी संततियां।वे देखेंगी कि छिपकर दुबके रहने  को भी हमारे पुरखे जंग कहा करते थे। वे हमारे ज्ञान पर नहीं, तार-तार होते छद्म की हमारी चतुराई पर  हँसेंगी।

बचपन में हमने सोती सुंदरी की कहांनी पढ़ी थी।जब बीस साल तक सारा नगर मृत सन्नाटे में सोया पड़ा रहा।पूरी दुनिया में आज लगभग उसी दृश्य की वापसी होती दिख रही है।

"सरवाइवल आफ द फीटेस्ट" की हमारी प्रकृतिभक्षी आदत  ने हमें मिथ्याभिमान से भर डाला था। हम कत्तई यह भूल गए थे कि साहचर्य भी कोई चीज होती है। वेक्सीन पीकर अब आप साबित करते रहिए कि हम कोरोना से ज्यादा फिटफाट हैं।

आप प्रकृति में बचे रह जाएंगे, यह इस बात पर  नहीं निर्भर करता कि आप कितने फीटेस्ट हैं।आप किस हद तक उपयोगी रह गए हैं, यही आपके बने और बचे रहने की सबसे बड़ी शर्त होगी।
इस निर्ममता के अलावा प्रकृति के पास कोई अन्य विकल्प भी तो शेष नहीं बचा था। इस अपरिहार्य पथ पर चलते हुए चाहे हम बचें , न बचें,  कोई फर्क नहीं पड़ता।निर्विकल्प है पृथ्वी का जीवन।उसे तो रहना ही चाहिए।सिर्फ हमारे लिए नहीं थी पृथ्वी।

अपने बच्चों से खेलती चिड़ियों को देखा है न आपने। मुलायम खरगोश या हिरणों के शावक की निश्छल डोलती-बोलती आंखों को उबाल- उबाल कर खाने वाले हम सब मनुष्य ही हैं।इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि आप हिरणों और चिड़ियों को खाते हैं और आपके पड़ोसी चमगादड़ों को।अपनी आदतों को पड़ोसियो से श्रेष्ठ और सुरुचिपूर्ण मानने,बलबलाने और खुद ही सुनने का दम्भ आज आपकी बेचारगी पर कोई मलहम नहीं लगा सकता।

जब प्रकृति में सब हमारी ही तरह अपनी उम्र लेकर पैदा हुए हैं तो कैसे संभव है कि  प्रकृति  अपने वात्सल्य का   यह निर्मम संहार चुपचाप रोज-रोज देखती रहेगी।

बहुत पहले एक पेशेवर हत्यारे ने मेरे किसी प्रश्न के उत्तर में यही तो कहा था-"यह कहां का तर्क है कि जो आपकी भाषा नहीं बोल पाता उसे आप खा जायँ। लेकिन आप आराम से यह करते है क्योंकि आप एक निम्न कोटि की आदत और स्वाद से संचालित होने लगते हैं।"

अब यह मात्र एक अवसर है जब हमें तय करना है कि प्रकृति के संकेतों को सुन समझकर हम बदलने के लिए  किस हद तक खुद को तैयार कर पाते हैं। यह तो निश्चित है कि हमारी पुरानी आदतों के लिए अब दूर-दूर तक कोई शरणगाह  नहीं है। या तो हमें प्रकृति के अनुशासन को स्वयम अपने भीतर विकसित करना होगा।या पृथ्वी से हमेशा -हमेशा के लिए विदा हो जाना होगा।

एक निर्मम विदाई का करुण गीत कोरोना के छंद में रचा और गाया जाने लगा है।

डायनासोरों के पास दिमाग न था।सिर्फ भूख ही भूख बची रह गयी थी उसके जिस्म में।
हमारे पास विकसित दिमाग था, पर हमारी संवेदना ही मर चुकी थी।भूख  इतनी बढ़ती गई कि हम दिमाग को भी दांतों की तरह बर्बर और बेहूदे ढंग से इस्तेमाल करने लगे। अब दिमाग ने दिमाग की तरह काम करना ही बंद कर दिया है। लेकिन महज एक कारोना ने .........

प्रकृति की शांत पाठशाला में हम गुंडे की तरह दाखिला ले रहे थे।

  • डॉ. देवेन्द्र: लेखक प्रसिद्ध कथाकार हैं, हिन्दी कहानियों में समाज की वर्जनाओं को क़लम से चटका देना और भावों को तराशने में इस क़दर माहिर हैं, कि वे भाव फिर नुकीली बरछी की तरह चित्त पर असर छोड़ते हैं, मौजूदा वक़्त में गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय बिलासपुर छत्तीसगढ़ में हिन्दी के प्रोफेसर हैं, इनसे संपर्क इनके फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर जाकर कर सकते हैं।

1 comment:

  1. प्रणाम है ऐसी शख्सियत को।

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