कृष्ण कुमार मिश्र की कोरोना डायरी के इस पन्ने में नई कहानी जुड़ती हैं...
#कुसुम_के_फूल
कोरोना डायरी की इन कहानियों अपनी खूबसूरत आवाज़ से सजाया है डिकोड एक्ज़ाम स्टूडियो से अमित वर्मा ने इस कहानी को सुनने के लिए रेडियो दुधवा लाइव के इस लिंक पर जा सकते हैं
कुसुम स्वयं में पुष्प की संज्ञा हैं, पर फूल अक्सर सुंदर कहानी कहला देते हैं, और वे कहानियां सागर नदियां और समंदर को पार करते हुए क्षितिज की ओट भी ले लिया करती है और निहारती रहती हैं वहां से अपने जन्म स्थल को अपने किरदारों को, आज वैसी ही यह कहानी है इस फूल की, कभी यह पुष्प मेरी माँ के ननिहाल में खूब खिलता था, लोग इसकी खेती करते थे, जीवन के पहले दशक के भीतर ही रहा होऊंगा, पिता जी ने रबी की फसल गेहूं में इस पुष्प के बीजों को किनारे किनारे छिटक दिया, कुछ महीनों बाद काँटेदार तने और पत्तियों के मध्य स्वर्णिम आभा लिए यह पुष्प मुस्करा रहे थे, कांटों के बीच मुस्कराना भी बड़ी जीवटता की बात होती है, और जो जितने अधिक कांटों से घिरा हो वह उतना ही उज्ज्वलता पवित्रता कोमलता और सुंदरता की तासीर रखता है, प्रकृति में इसके बहुत से उदाहरण है जो फूलों से वाबस्ता हैं, आप इन्हें खुद से भी जोड़ सकते हैं, खैर तो यह कुसुम भूमध्यसागरीय मुल्कों ग्रीस, यूनान, अरब तुर्की स्पेन जैसे मुल्कों की जमीन पर उपजा, और दुनिया में बिखरता चला गया, और खिला दिए पीले लाल बैंगनी रंग के पुष्प सारी क़ायनात में, बिखरना भी खूबसूरत हो जाता है जब फूल खिलते हैं, जंगल उगते हैं, ऐसा ही तो होता है जब कोई दिल फ़रेब आदमी बिखरता है तो बिखेर देता है रंग हरियाली और खुशबुएँ सारी धरती पर...
मैंने देखा ऐसे बिखरे हुए लोगों को जो अब विशाल जंगल मे तब्दील हो गए, फूलों के गुलुस्तान में, गुलिस्तां से याद आया इस कुसुम को गुलरंग कहते हैं उर्दू में, और संस्कृत में कुसुम्भ यहां भी भाषाई मिलावट का रंग है जो जोड़ता है मानवता को और बताता है कि हम कभी एक थे आज बिखर गए, जी हां फिलीपींस में कुसुम को कसम्भ कहते हैं कितनी समानता है संस्कृत के कुसुम्भ से और हिंदी के कुसुम से, पर जब टेक्सानामी कि बात आई तो इसे Carthamus tinctorius कह दिया गया,
दुनिया मे सबसे ज्यादा खिलने वाले और कम समय मे और और सबसे ज्यादा बिखरने वाले एस्टेरेसी यानी सूरजमुखी की जमात का यह पुष्प कार्थमस जीनस में आता है जिसकी ख़ासियत ही यही है यह कांटों में खिलेगा, यकीनन कांटो में! कुसुम भारत में खाने के तेल के लिए महत्वपूर्ण रहा, और खेतों की कटीली बाड़ बनाने के लिए, इसके पुंकेश्वरों का इस्तेमाल हम केसर के विकल्प के तौर पर नही कर पाए या कह लो हम करना नही चाहते थे, हमारे काश्मीर में वास्तविक केसर जो ख़ूब होता है, लेकिन दुनिया इसे अमरीकन सैफरॉन या बास्टर्ड सैफरॉन के नाम से पुकारने लगी,
दुनिया में कुछ भी बास्टर्ड नही होता, बस नज़रिया है आदमी का, चुनांचे कुसुम पीलिया, बाल झड़ रहे हो, सूजन हो और महिलाओं की तमाम बीमारियों में सदियों से आयुर्वेद में प्रयुक्त होता आया है 4 फुट का यह पौधा जिसके कपनुमा फूल के पुंकेशर केसर की तरह प्रयुक्त किए जा सकते हैं, इसमें तकरीबन 15 बीज निकलते है, जिनके तेल का इस्तेमाल खाने में इस्तेमाल हुआ करता था, हाई ब्लड प्रेशर वालों के लिए यह बहुत मुफ़ीद है, कीमियागिरी की बात न करूँगा, बस इतना ही, दक्षिण से उत्तर तक पूरब से पश्चिम तक यह गुल रंग माथे से भी लगाया जाता है बावजूद कांटों के, पूरी के भगवान जगन्नाथ की पूजा में इसका विशेष महत्व है, मैंने इस गुल रंग का परिचय अपनी माँ से पाया, एक अलाहिदा बात, हम जिसे भी अपनाते हैं उसको जोड़ लेते हैं अपनी माटी से, अपने देवता से अपने पुरखों से, और उसे कर देते हैं धाराप्रवाह पीढ़ी दर पीढ़ी, हम सज़दा करने से कभी नहीं चूके वनस्पतियां, दरख़्त, पत्थर पहाड़ नदी और चेचक हैज़ा को भी, हम शत्रु मानते ही नही किसी को कायनात में यही तो अलाहिदा तासीर है हमारी, हम खार में भी मोहब्बत खोज लेते हैं, और इंशाअल्लाह इस यह कांटेदार सब्ज़ कुसुम जिसे माथे से भी लगाते हैं हम तो यकीन मानिए इस काँटेदार कोरोना को भी दिल मे बसा लेंगे फिर यह हमारा कुछ नही बिगाड़ पाएगा, इसे भी खिताबी बना देंगे चेचक की देवी की तरह....हमारे सिलसिले में कांटों से मुहब्बत का भी मसअला रहा है, ये काँटेदार कोरोना को भी हम अपने माथे का ताज बना लेंगे एक दिन...और ये सुरक्षा करेगा हमारी हेलमेट की तरह बाज़ाए नुकसान के....आमीन
तो आज कांटों में खिले कुसुम से काँटेदार कोरोना का ज़िक्र यही ख़त्म करता हूँ, फिर मिलूंगा, मुहब्बत से सनी लिपटी किसी कहानी से जो खार में भी फूल खोज लाए....
कृष्ण कुमार मिश्र
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