कृष्ण कुमार मिश्रा की कोरोना डायरी में एक और नई कहानी
कोरोना डायरी की इन कहानियों अपनी खूबसूरत आवाज़ से सजाया है डिकोड एक्ज़ाम स्टूडियो से अमित वर्मा ने इस कहानी को सुनने के लिए रेडियो दुधवा लाइव के इस लिंक पर जा सकते हैं
कोरोना डायरी के इस नए पन्ने पर स्याही ने अपना स्याह रंग छोड़ दिया और वह गुलाबी हो गई, गुलाबी होना तो जानते ही होंगे, चलो फिर भी हम बतलाते है अपनी जुबानी, जब मन की तरंगें उस आवृत्ति से हिलोरे लेने लगे जिसे महसूस किया जा सके पर बयां नही, ह्रदय की चाल में मस्ती आ जाए, दिमाग़ छुट्टी लेकर खुद को क्वाण्टाइन कर ले, और नज़र में सूखे दरख़्त भी सब्ज़ दिखाई दें, सूखी तिलमिलाती रेत पर भी बारिश की बूंदों का एहसास हो, और दुनिया में तुम्हे कोई ऐब न दिखे तब समझ लीजिएगा ज़नाब आप इश्क़ में हैं, तो चलिए आज ये किस्सा उस धौला नदी पार वाली लड़की का...बात थोड़ी पुरानी है, उससे राब्ता और भी पुराना शायद सदियों पुराना, सो रिश्ते का परिचय देना अहम नही रह जाता, बस जज्बातों की बानगी और उनके कारनामे ही लैला मजनू जैसे किरदार गढ़ा करते हैं, उन किरदारों की मामूली सी झलक उस धौला पार वाली लड़की और उस लड़के में जरूर दिख जाएगी, कहानी पुरानी हैं बैगा हुड़किया इसे अपने अंदाज में ख़ूब गाता है, हुडुक बजाकर....
उस लड़के का नाम था कनिष्क और वह धौला नदी पार वाली लड़की थी सुचरिता! कनिष्क गंगा की तलहटी में उपजे जंगलों की पगडंडियों से गुजरता हुआ सुचरिता से मिलने जाता, सुचरिता भी बड़े मनोयोग से कनिष्क की राह जोहती, वो मिलन जब नदी के उस पार होता तो मानों नदी ने अपने वेग में त्वरण को बढ़ा दिया हो, पहाड़ों की चोटियों पर जमी हुई हिमशिलाएँ मानो और धवल हो गई हो, प्रकृति के सारे सुर झंकृत हो उठते, प्रेम की इस यज्ञ में जब नैन सजल हो जाते तो लगता इन अश्रुओं की बूंदे धरा को विकल न कर दे, तो कनिष्क उन अश्रुधाराओं को उस पवित्र नदी को समर्पित कर देता, नदियां सहन करना जानती हैं, नदियां स्त्रियों की तरह ही होती है, ख़ैर कनिष्क इस प्रेम की रवादारी में इस क़दर माहिर हो गया कि उसने बसा ली अपने मन में दुनिया उस नदी के पार, अपना लिया उन सबको जो सुचरिता के आस पास था, वे पहाड़, नदी, नौले, धारे, सभी को, बड़े हक़ से उसने उस राज्य की संस्कृति इतिहास और वहां के लोगों को अपना कहना शुरू कर दिया, जब आप किसी के प्रेम में होते हैं तो उसका सब कुछ अंगीकार कर लेते हैं, कनिष्क कई दिनों और रातों में तय करता वह दूरी जो सुरचिता तक ले जाती थी, जंगल की रात्रि प्रहर की भयावहता, राहों की दुर्गमता कुछ भी उसे नही दिखाई देता वह बस पहुंचना चाहता था नदी के उस छोर पर जहां उसका कोई इंतजार कर रहा था, ये जो इंतजार है यह चीजों को कालजयी बना देता है, यह शब्द अमरत्व की तरफ ले जाता है, वे दोनों जब मिलते तो जंगलों नदियों के किनारे घूमते, प्रकृति उनमें बस जाती और वे प्रकृति में, उस नदी पर एक झूले वाला पुल हुआ करता था,
क़भी देखना बारीकियों से उस पुल के बिखरे हुए बुर्ज दिखाई दे जाएंगे वहां एक मंदिर भी था जहां के वानरों से कनिष्क ने दोस्ती कर ली थी, दरअसल सुरचिता से मिलने के लिए जिन राहों से वह गुजरता वहां के दरख़्त, देवस्थान और वह सब अनजाने चेहरे जिन्हें वह देखता वह सबके उसके ह्रदय में उतर चुके थे सुरचिता के रूप में, अब सुरचिता का स्वरूप विशाल हो चुका था, वह प्रतिनिधित्व कर रही थी पूरे राज्य का वहां की संस्कृति का वहां के पकवानों का, वहां की ऐतिहासिक इमारतों, कृषि और बाग बगीचों का अब सुरचिता केवल स्त्री नही रही थी उसका विस्तार हो चुका था कनिष्क के ह्रदय की विशाल धरती पर, तभी एक जादूगीरनी का अवतरण होता है इस कहानी में, वह कनिष्क को कई वर्षों से गुजरते हुए देखती, अंततः उसने कनिष्क का पीछा किया और पहुंच गई नदी के उस पुल पर जहां वह मिलते थे, सेतु या पुल के मायने ही है जोड़ना, वह पुल जोड़ता था उन्हें, और जोड़ने वाली चीजें मन मे सदैव ऊंचे ओहदे पर होती हैं..., खैर उस बुढ़िया जादूगीरनी ने सुरचिता से मित्रता कर ली, वह भी उसी राज्य की थी सो बोली बानी एक, मित्रता पल्लवित हो गई, बुढ़िया से यह प्रेम देखा नही गया, वह शैतान की बेटी थी, वहां के धौलागढ़ के राजा की जासूस भी और उस राज्य में लोग उससे डरते थे, वहां का राजा भी नही चाहता था कि उसके राज्य की कन्या कोई दूसरे राज्य का व्यक्ति ले जाए, जादुगिरणी ने एक दिन एक सफेद फूल दिया और कहा कि तुम और तुम्हारा प्रेमी इसे सूंघ ले तो तुम सदैव के लिए एक दूसरे के हो जाओगे, युग युगांतर तक लोग तुम्हारे प्रेम की दुहाई देंगे, उस फूल में जादुगिरणी ने कुछ शैतानी ताकतें डाल दी थी,
कनिष्क जब सुरचिता से मिलने आया तो उस नदी के झूलेदार पुल पर सुरचिता सफेद पुष्प लिए दौड़ी चली आ रही थी, पागलों की तरह अपने प्रेम को अमरत्व देने के लिए, सुरचिता ने कनिष्क को दे दिए वह पुष्प और पुष्पों की सुगंध ज्यों ही उन दोनों के मन मस्तिष्क में पहुंची सुरचिता का रूप बदल गया अब वह निश्छल सुंदरी नही रह गई और न ही उसकी वाणी मे वह ओज और मिठास बाकी रही, वह टूट पड़ी कनिष्क पर बदहवास होकर और राजा के सैनिकों को बुलाकर कनिष्क को कैदखाने में डलवाने की कवायदें करने लगी, कनिष्क अवाक था, स्तब्ध भी, महादेव इष्ट थे कनिष्क के सो उन फूलों में मौजूद शैतानी ताकतें कनिष्क पर तो असर नही कर पाई पर सुरचिता को कुरचिता बनाने में तनिक देर भी न हुई, प्रेम का अभिमान धराशाही हो गया,और वह पत्थर हो गया, बैगा हुड़किया कहता है कि कनिष्क और सुरचिता के प्रेम की इस कहानी का ये अंत देखकर भगवान महादेव भी रूष्ट हो गए, और चटक गया वो नदी का पुल इन दोनों के प्रेम की तरह, जो जोड़ता था इन्हें, सुरचिता एक तरफ और कनिष्क एक तरफ, मध्य में निर्मल अविरल नदी की धारा, और हां वह सफेद पुष्प भी सुर्ख हो गए, बैगा कहता है पर्वतों पर खिलने वाले बुराँश के फूल कनिष्क और सुरचिता के प्रेम की अग्नि में लाल हो गए,
कहते हैं भगवान महादेव को शांत करने के लिए उन पर लाल बुराँश के पुष्प आज भी चढ़ाए जाते हैं, अब वह कनिष्क की पगडंडी वाला पुल का खम्बा अब जमींदोज हो चुका है, सुरचिता जिस तरफ रह गई वह खम्बा अभी भी सिर उठाए खड़ा, मानों निहार रहा हो उस पगडंडी से आने वाले पथिकों को,
वह जादुगिरणी अभी भी उन पगडंडियों पर घूम रही है, कनिष्क और सुरचिता को खोजते हुए....
बैगा हुड़किया आज भी गाता है कनिष्क और सुरचिता की प्रेम कथा
कृष्ण कुमार मिश्र
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