कृष्ण कुमार मिश्र की कोरोना डायरी में एक और नई कथा.....
कोरोना डायरी की इन कहानियों अपनी खूबसूरत आवाज़ से सजाया है डिकोड एक्ज़ाम स्टूडियो से अमित वर्मा ने इस कहानी को सुनने के लिए रेडियो दुधवा लाइव के इस लिंक पर जा सकते हैं
उत्तर दिशा में सुदूर कुमाऊं क्षेत्र के पहाड़ों में एक लड़की अपनी माँ के साथ एक गांव में रहती थी, उस लड़की का नाम था सुतिमाला, वह रोज़ सबेरे देवदार और चीड़ के जंगलों में जाती अपने जानवरों के लिए घास लाने, बुराँश के फूलों को भी तोड़ती, और काफ़ल भी लेके लौटती घर, उसकी यही दिनचर्या थी, एक दिन वह बांझ के पेड़ पर चढ़कर पत्तियां काट रही थी, तभी उसका हंसिया उसके हाथ से छूट गया, और गिरा जाकर सैकड़ों फुट खाहीँ में जहाँ एक पगडंडी थी, उस राह पर एक पथिक गुज़र रहा था, और वह हसिया उसके सर से जा टकराया, वह कराह कर अचेत हो गया, सुतिमाला ने जब यह देखा तो वह पहाड़ी पगडंडियों से दौड़ते हुए उस पथिक के पास पहुंची, उसके सिर से रक्त निकल रहा था, सुतिमाला ने उसके सिर के बहते रक्त पर अंगवस्त्रों के टुकड़े को चीरकर बांध दिया और पास के एक सरोवर से पानी लाकर पिलाया, उस पथिक में जब चेतना आई तो वह देख रहा था, एक कोमल चेहरा उसकी तरफ बड़ी करुणा से निहार रहा था, एक तेजवान मुख मंडल, नैन अधीरता का भाव ओढ़े थे, और होंठ सूखे हुए सुर्ख गुलाब की पंखुड़ियों की तरह कुछ कहने को आतुर, एक निश्छल सा अपराध बोध सजल आखों से परिलक्षित हो रहा था, पथिक उठता है और शर्माते हुए अपनी पीड़ा को छुपाते हुए की जैसे कुछ हुआ ही न हो! बता दूं सुंदरता सदैव अपराध मुक्त हो जाती है..... वह उस सुंदर कन्या से पूंछता है की तुम्हारा नाम क्या है? वह कहती है सुतिमाला! उसके कंठ से निकले ये अक्षर पथिक के ह्रदय को मिठास से बुझाए हुए तीर की तरह भेदते हुए चले गए, वह आकृष्ट हो गया उसकी वाणी से, सच मे वाणी मनुष्य के अंतर्मन को वेधती है, दृश्य प्रभावी नही, वाणी मुस्तक़िल है और मुक्कमल भी, वाणी ही अनदेखा स्वरूप है प्रकृति की शक्ति का, उस परमात्मा का, यही नाद है ब्रह्मांड का, यही सरस्वती है, फिर क्यों न आकंठ डूब जाए व्यक्ति उस मधुर आवाज को सुनकर जिसमे हज़ार चिड़ियों की ध्वनियां मिश्रित हों, उसका रोम रोम कम्पित हो गया। सुतिमाला के सुतिमाला बोलने भर से, मानो प्रकृति ने उसके सुराहीदार गले में प्रकृति की वीणा के सभी तार बांध दिए हो!
सुतिमाला ने पथिक से पूंछा की किधर से आए, कहां जाओगे...? पथिक की सुतिमाला के प्रति जो मुग्धता थी उसने उसके सभी ध्येय सभी परिचय भुला दिए थे, किंतु वह खुद को संभालते हुए बोला, पूरब से आया हूँ, देवदार के जंगलों में एक बूटी है, सुना है कि वह जीवन को आनन्द से भर देती है, कोई दुख, ईर्ष्या, वेदना और लालसा नही रहती, पूरब में चर्चा है कि वह बूटी यहीं इन पहाड़ों में सदियों से उगती है जिसे सुख की बूटी कहते है आमजन, उसी की खोज में भटक रहा हूँ! मैं देवव्रत हूँ, महाऋषि धन्वंतरि की परंपरा से, वनस्पतियों में उन जीवन तत्वों को खोजता हूँ, जो प्राणियों को रोगमुक्त करती हैं, किंतु मैं नारदीय परम्परा का भी पालक हूँ, प्राचीन पत्रकारिता की विधा का, देशाटन करते हुए विद्वजनों से ज्ञान प्राप्त कर उसे विभिन्न नारदीय आश्रम में पहुचाता हूँ जहां फिर बटुकों और जनमानस में यह ज्ञान विज्ञान श्रुतियों के माध्यम से पहुंचता है, देखिए कितना सुंदर संयोग है देवव्रत श्रुतियों को समृद्ध कर रहा है, श्रुति के मायने ही है कि जो सुना गया और आज देवव्रत साक्षात श्रुति के पास है....अपनी श्रुति के पास....सुति श्रुति का ही अपभ्रंश है, श्रुतियों की माला, यानी सुति माला.....हमारे सभी वेद ग्रन्थ श्रुतियाँ ही हैं ...सुतिमाला इन्ही ग्रन्थों की माला का पर्याय हुआ।
सुतिमाला उसे अपने घर ले जाती है, एक पहाड़ी के शिखर पर बना सुंदर सा घर जिसके चारों तरफ देवदार और चीड़ के आदिम वृक्षों के जंगल, वहां से बहुत सी पर्वतमालाएं यूँ दिखाई देती जैसे इस घर के चारों तरफ दीवारें खड़ी कर दी गई हो जिन पर पर्वत श्रंखलाओं की पेंटिंग उकेरी गई हो, पगडंडियों से उतरते हुए एक रास्ता जो पड़ोस के कस्बे में जाता था, सुतिमाला उसे रोज पहाड़ों में जंगलों में देवव्रत को अपने साथ ले जाती और उसे पहाड़ के किस्से कहानी सुनाती, दोनो खिलखिलाकर हंसते तो पहाड़ों में ध्वनियां गूँजती, एक रोज सुतिमाला भरी दोपहर में एक पहाड़ की चोटी से चिल्लाकर अपने प्रेम का इज़हार कर दिया, वह चिल्लाई की देवव्रत मैं तुम्हे प्यार करती हूं, तो वह कहे शब्द हूबहू पहाड़ों से टकराकर गूंजने लगे, सारा वातावरण सुतिमाला के मन से उपजे भाव जब शब्द बनकर उसके कोमल कंठ से निकले तो प्रकृति गुंजायमान हो गई, और यह प्रेम भरे शब्दों का कोलाहल कुछ छण में शांत हो गया, एक मधुर शांति....तभी पहाड़ों से एक और आवाज गूंजी.. ख़बरदार! तुम कभी एक दूसरे के नही हो सकते....तुम्हारा अंत हैं, निश्चित ही तुम पर मौत मंडरा रही है....उस भयानक आवाज़ को सुनकर देवव्रत और सुतिमाला संशय में पड़ गए, आखिर कौन है यह हमारे प्रेम का दुश्मन....
तभी एक बुढ़िया जादूगीरनी उन दोनों की तरफ बढ़ी आ रही थी, हाथ मे जंगली सुवर का कटा हुआ सिर जिसपर मांस नही बचा था सिर्फ हड्डियों का कंकाल....
जादुगिरणी चीखकर बोली बीती सदी में भी तुम्हारे प्रेम की बलि चढ़ी थी इस सदी में भी तुम्हारा मिलन कदाचित सम्भव नही, इस जमीन पर कभी प्रेम पल्लवित नही हो सकता यह शापित है मेरे शैतान देवता से.....बुढ़िया जादुगिरणी यही सब बड़बड़ाते हुए चली गई....देवव्रत ने ने आकाश की तरफ देखने की कोशिश की तो सामने के शिखर पर एक प्राचीन मंदिर दिखाई दिया, उसने सुतिमाला का हाथ पकड़ लिया और चल दिया उस मंदिर की ओर...वह मंदिर वहां के राजा के द्वारा बनाया गया था, बहुत सुंदर मंदिर भगवान महादेव का, जहां नन्दी भगवान की पंक्तिबद्ध कई मूर्तियां विराजमान थी, घण्टियों की कतारें, और पुरोहितों की एक टोली उपस्थित थी....देवव्रत ने निर्णय ले लिया था, जादुगिरणी के उन असम्भव वाले शब्दों ने उसे और मजबूत कर दिया था, और देवव्रत ने सुतिमाला का हाथ पकड़ भगवान महादेव के मंदिर के गर्भगृह में सुतिमाला को अपने प्रेम की माला डाल दी, बांध लिया सुतिमाला को उस प्रेम की डोर से जो जीवन भर के लिए ही नही युगों युगांतर के लिए थे, और फिर दे दिया सुतिमाला को आशीर्वाद मंदिर के पुरोहित ने....पुत्रवती होने का ...नियति देखिए....अब क्या कराती है!
देवव्रत अब अपने जीवन के उस उद्देश्य को भूल चुका था, लेकिन स्वास्थ्य होने पर अब उसे सुतिमाला को धन्यवाद देकर आगे प्रस्थान करना था, गुरु आज्ञा का पालन भी.....
एक सुबह देवव्रत उठा और सुतिमाला से विदा लेने की बात की सुति बिफर सी गई, अश्रुधाराओं ने पहाड़ी नदी की भांति अधोगामी होना शुरू कर दिया, उन पवित्र अश्रुओं में मन के भाव धारा प्रभाव हो चले, देवव्रत भी रो रहा था, पर उसके अश्रु अंतर्मुखी हो चुके थे,, वे चीर रहे थे ह्रदय को ....आंसू जब अंतर्मुखी होते है तो और पीड़ा देते हैं,...देवव्रत ने सुतिमाला को समझाया कि तुम मेरी राह देखना सुख की बूटी पा सकूँ ये मेरे जीवन का परम उद्देश्य है, और जब वह बूटी मिल जाएगी, फिर हम दुनिया को यह सुख की बूटी संग संग बांटेंगे, और दूर कर देंगे दुनिया के सभी प्राणियों के दुःख दर्द!
सुतिमाला ने ह्रदय पर पत्थर रखकर विदा कर दिया देवव्रत को ....देवव्रत अभी पहाड़ी पगडंडियों पर चलकर कुछ दूर ही पहुंचा था, तभी वह बुढ़िया जादुगिरणी फिर सामने आ गई, और आक्रोशित होकर बोली तुमने गन्धर्व विवाह तो कर लिया देवव्रत पर तुम कभी एक नही हो सकते ....न पिछली सदी में हुए...और न अब....वह अट्टहास करती हुई चल दी, तभी देवव्रत ने बड़ी विनम्रता से कहा...माते!....माते!....आशीर् वाद नही दोगी...जादुगरिणी पलटी ...पर अब उसका अट्टहास धीमा हो चुका था, वह मुस्कराई और बोली...अवश्य दूंगी आशीर्वाद देवव्रत...परन्तु नियति से कौन जीत सका है, जाओ तुम अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करो, दुनिया को रोगों से, भय से, वेदना से, लालच से मुक्त करो, और तुम्हारी सुतिमाला का यह प्रेम सदियों तक इन पहाड़ों में गीत बन कर गूंजे यही मेरा आशीष है तुम्हे.....
देवव्रत कई दिनों तक पहाड़ों में चलता रहा, उत्तर दिशा में एक प्राचीन राज्य था, हिमालय के शिखर पर, वह उस राज्य में प्रवेश कर गया, जहां की बोली बानी संस्कृति सब अलाहिदा, वह परियों के देश की तरह था, सबकुछ आसमानी लग रहा था, बहुत सी सुंदर परियों ने देवव्रत को घेर लिया, और अपने मोहपाश में बांधने को आतुर हो उठी।
देवव्रत ने सुतिमाला के प्रेम का स्मरण किया और अपने उस परम उद्देश्य का ध्यान, उन परियों में जो ज्येष्ठ परी थी इसे देवव्रत ने सुतिमाला और अपने प्रेम की कथा सुनाई और मानवता में सुख की बूटी सभी आम व खास को मिल सके इस उद्देश्य को बतलाया....वह ज्येष्ठ परी देवव्रत के चरित्र पर मोहित हो गई, और करुण भी, उसने पहाड़ों के मध्य स्थित सरोवर के निकट वह बूटी की मौजूदगी की बात कही जहां राजा के शैतानी सिपाहियों का पहरा था, पर उस परी ने देवव्रत को वहां जाने के लिए एक दुर्गम मगर सुरक्षित रास्ता बताया, जो एक गुफा से गुजरता था......
देवव्रत अपने प्रेम व लोक कल्याण की भावना की शक्ति के दम पर वहां पहुंच तो गया, पर फिर कभी वह लौट न सका!
क्योंकि उस जगमगाते दैवीय सरोवर की पवित्र वनस्पतियों के स्पर्श मात्र से देवव्रत देवव्रत न रहा, वह सब भूल गया, स्वयं की पहचान, स्वयं के उद्देश्य, स्वयं की जिमनेदारियाँ, और सुतिमाला को भी! क्योंकि उस सुख की बूटी को उसने स्पर्श कर लिया था, अब उसमें उसका कुछ नही बचा था ....लोभ लालच, घृणा, या यूं कहें कि वह सारी दुनिया का हो गया और दुनिया उसकी....फिर व्यक्तिगत कुछ कहां बचता.... अंततः देवव्रत ने खोज ली थी सुख की बूटी!
सुतिमाला आज भी उन पहाड़ों की पगडंडियों में देवव्रत की राह देख रही है......और वह बुढ़िया जादुगिरणी आज भी घूम रही है उन जंगलों में...पर उसका अट्टहास मौन में परिवर्तित हो गया है....शायद देवव्रत जैसे व्यक्ति के मुख से स्नेहिल माते...के उच्चारण मात्र से वह नम्र हो गई है
बैगा हुड़किया की आवाज़ में देवव्रत और सुतिमाला की यह कथा आज भी गूँजती है उन पहाड़ों में
कृष्ण कुमार मिश्र
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