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International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Feb 9, 2020

विश्व दाल दिवस

दन्या अल्मोड़ा की एक दुकान में भट्ट और राजमा की दाल 


- 10 फरवरी 2020
दालें जो जीवन देती हैं हमें और मिट्टी को भी
-कृष्ण कुमार मिश्र
सयुंक्त राष्ट्र संघ ने सं २०१३ में एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें अग्रणी भूमिका में इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान व् तुर्की जैसे देश रहे कि २०१६ को दाल वर्ष के तौर घोषित किया जाए, फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन की मुहिम का नतीजा रहा यह दाल वर्ष, २०१६ में वैश्विक स्तर पर दाल वर्ष मनाया गया जिसमें १२ देशों ने अपनी कटिबद्धता जाहिर की, कि पृथ्वी पर दालों के अत्यधिक उत्पादन के प्रयास किए जाएंगे ताकि मिट्टी जीवित रह सके और जीव जंतु तंदुरुस्त. संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली में 10 फरवरी को विश्व दाल दिवस यानि “वर्ल्ड पल्सेज डे” का प्रस्ताव पारित हुआ और सन  २०१९ की 10 फरवरी को पहला “विश्व दाल दिवस” मनाया गया, इस बरस यह दूसरा विश्व दाल दिवस मनाया जाएगा.
दरअसल दुनिया की चिंता दालों के प्रति जाहिर हुई संयुक्त राष्ट्र संघ के बहाने, क्योंकि दालें जीवन का आधार है, या यूँ कहें की नाइट्रोजन या फिर प्रोटीन या फिर उसी नाइट्रोजन मूल अमीनो एसिड के बने डी एन ए की जो जीवन की कड़ी है, धरती पर पहला कथित जीव, न जीवित न मृत नाइट्रोजन मूल है इस धागे में जिसे वायरस कहा गया जो आर एन ए की एक श्रंखला है को किसी कोशिका का इन्तजार रहता है की वह मिल जाए तो वह जीवित हो उठे, इस वायरस में भी यह नाइट्रोजन आधार है, वनस्पतियों जन्तुओं या यूँ कह ले सभी जीव धारियों को जीवन के लिए प्रोटीन चाहिए, एक और बात जीवों को ही नही मिट्टी को भी और आसमान को भी नाइट्रोजन की उतनी ही आवश्यकता है, जितना किसी जीव को, पर्यावरण का अहम हिस्सा, प्रकृति की इस  नाइट्रोजन वाली कहानी बड़ी रोचक है, वायुमंडल में जो नाइट्रोजन है वह नाइट्रेट व् अमोनिया के तौर पर मिट्टी में मिलता है और मिट्टी जीवन दायिनी हो जाती है, प्रकृति ने दालों के रूप में मिट्टी की जीवन्तता सुनिश्चित की है बड़े करीने से, यह फेबिएसी यानी लेग्यूम परिवार की फसलें जिन्हें हम मुख्यतः दाले कहते हैं की जड़ों में नाइट्रोजन फिक्सिंग बैक्टीरिया की सहजीविता होती है, और यही सहजीविता मिट्टी में वायुमंडल की नाइट्रोजन को अवशोषित कर नाइट्रेट में तब्दील कर  धरती को दे दी जाती है, बड़ी खूबसूरत मिसाल है की धरती पर कोई भी जीव बेजा नही वह धरती में जीता है तो उसके बदले वह कुछ चुकाता भी है, दालों की जड़ों में बनी गांठों में मौजूद यह बैक्टीरिया मिट्टी को जीवनदायिनी बनाने में मदद करता है,  मिट्टी में दो ही तरीके से नाइट्रोजन समाहित हो सकती है तड़ित विद्युत व् बरखा से नाइट्रोजन व् हाइड्रोजन मिलकर नाइट्रिक अम्ल बनाते है जो बरखा के साथ मिट्टी में मिल जाते है और दूसरा यह बैक्टीरिया, दाल के इसी गुण ने वैश्विक स्तर पर इसकी महत्ता बढ़ाई, दलहन के अधिक उत्पादन से मानव स्वास्थ्य, कुपोषण से मुक्ति, मिट्टी की उर्वरता, सभी कुछ बेहतर होता है, भारत दालों का सबसे बड़ा उत्पादक है तो साथ ही सबसे बड़ा उपभोक्ता भी, दालें वानस्पतिक प्रोटीन का सबसे बड़ा स्रोत है, और प्रोटीन के बिना जीव का निर्माण असंभव, लेकिन दालें प्रोटीन के अतरिक्त दालों के पौधे पशुओं को चारा, मानव समाज में तमाम जरुरत के हैन्डीक्राफ्ट जैसे टोकरी, झाडूं , छप्पर आदि में भी प्रयुक्त होते आये है.
गहत की दाल 

बड़ी पुरानी बात है कोई १०००० बरस पहले जब मानव झुण्ड किसान बने, कभी जंगलों में शिकार कर अपनी आजीविका चलाने वाला आदमी, किसान बनकर सभ्यता में प्रवेश कर गया तब उसका मुख्य भोजन यही दालें थी, जंगल की यह वनस्पतियाँ, अब मानव समाज में उगाई जाने लगी, यह आदम युग का नियोथेलिक युग था करीब करीब ईसा से ७५०० वर्ष पूर्व, जब मानव शिकारी से किसान बना, और वह उर्वर क्रेसेंट अर्थात अर्धचन्द्राकार क्षेत्र यानी बाद का मेसोपोटामिया यानी आज का ईराक, इरान, इजिप्ट, सीरिया, लेबनान, इजराइल, फिलिस्तीन, जॉर्डन और सायप्रस वाला क्षेत्र, जहां उस मानव ने दालें उगाई उन दालों में मसूर, चना, मटर और बिटर वेच जैसी दालें उगाई.
भारत के मुआमले में दालों का क्षेत्र उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, राजस्थान और पश्चिमी बंगाल के समुंदरी किनारे वाला दाल उत्पादन में प्रमुख क्षेत्र है, भारतीय परम्पराओं में दालों का धार्मिक व् सामाजिक महत्व भी रहा है,  मुख्यतः दाल फलीदार फसल के सूखे दानों को कहते हैं और यदि यह हरी अवस्था में ही प्रयुक्त कर ली जाए तो यह तरकारी की श्रेणी में आ जाती है, इसी प्रकार जो फलीदार प्रजातियाँ तेल निकालने के लिए प्रयुक्त होती हैं जैसे सोयाबीन और मूंगफली आदि तो उन्हें भी दालों यानी पल्सेज की श्रेणी में नही रखा जाता बावजूद इसके की वह भी लेग्युम यानी फेबिएसी परिवार की हैं. दालों में फेबिएसी परिवार के दो जेनेरा फैसियोलस व् विगना का अत्यधिक महत्त्व है विश्व में ४१ प्रतिशत दालें इन्ही जेनरा के अंतर्गत वाली प्रजातियों की हैं, इसमें मूंग की दाल विगना के अंतर्गत तथा बाकला की दाल फैसियोलस जीनस के अंतर्गत है.
भारत में अरहर, मसूर, चना, उर्द, मूंग, मटर की दालें बड़े पैमाने पर प्रचलित है, लोम्बिया, राजमा, रेंस, भट्ट, गहत, जैसी पहाड़ी दालें प्रोटीन व् सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर हैं, मौजूदा वक्त में दालों को कैश क्राप न बनाकर गन्ने आदि की प्रजातियों का क्षेत्रफल भारत में बहुत बड़ा और जंगलों के कटान से तथा वन्य क्षेत्रों के खराब मैनेजमेंट के कारण अब दलहन बहुत कम क्षेत्रफल में बोया जा रहा है, किसान जंगली जानवरों से परेशान तो मार्केट में वाजिब दाम न मिलने की परेशानी, ऐसे में यह विश्व दाल दिवस मनाना और लोगों में जागरूकता देना ताकि दलहन का क्षेत्रफल बढ़ सके और सरकारों को भी विचार करने का मौक़ा मिले की दलहन के लिए किसानों को उचित मूल्य मिले, दलहन में वनस्पति प्रोटीन के अतरिक्त आयरन, मग्नेशिय्म, फास्फोरस, पोटेशियम, जिंक, कॉपर, और फोलेट जैसे महत्वपूर्ण सूक्ष्म पोषक तत्व मौजूद होते है, जो कुपोषण से लड़ने में मदद करते है, एक युवा शाकाहारी व्यक्ति को एक दिन में औसतन ६० से १२० ग्राम दाल खाने से उसकी प्रोटीन की आवश्यकता पूरी हो जाती है, वहीँ मांसाहारी व्यक्ति को ३० से ६० ग्राम दाल की आवश्यकता होती है.
आंकड़ों की बात करें तो भारत ने सन २०१८-१९ में दालों का कुल निर्यात २,७०,८११.१६ मिलियन टन किया जिसका मूल्य १,६७९.९८ करोंड़ था.

दुनिया दालों के उत्पादन व् विविधिता के लिए भारत की तरफ ताक रही है, यदि दाल उत्पादन के लिए अन्य कैश क्राप के बजाए दलहन को स्थान मिले और किसानों को प्रोत्साहन तो दालों का हम और अत्यधिक निर्यात कर सकते है, और अपनी मिट्टी को और उर्वरा बना सकते है, दालें फसल चक्र में सहयोगी फसल है और धरती को उपजाऊं भी बनाती है, यह सनातन फसल अब भारत में प्रभावित हुई है, हमारी परम्पराओं में की त्यौहार के दिन अरहर की दाल नही बननी, उर्द की बननी है, या किस मौसम में कौन सी दाल मुफीद है स्वास्थ्य के लिए बकायदे हमारे देश में त्यौहार व् दालों से बने व्यंजन निर्धारित किए गए, धरती पर यह द्विबीजपत्री दालें गेहूं धान जैसे अनाज जो एकबीजपत्री हैं से पहले आई और धरती को कर गई पोषित ताकि उनमे इनके बीज उगे जो हमें जीवन के लिए अहम व् जरुरी प्रोटीन से सम्पन्न बनाएं...क्रमिक विकास में शायद प्रकृति ने पहले से यह सुनश्चित किया होगा की मानव जब अपनी एक अलाहिदा सभ्यता बनाएगा प्रकृति से थोड़ा दूरी अख्तियार करेगा तो उसे लेग्युम यानी दालें पहले से बना दी, ताकि मानव जब अपने गावों की जमीन में खेती करे साल दर साल उसके खेतों की उर्वरता क्षीण हो  तो उसके फसल चक्र में यह दालें मिट्टी को भी ज़िंदा रखें और आदमी को भी.....कुछ उस तरह की बिजली के खम्बे और तार में आज करेंट दौड़ रहा है पर इस कायनात ने पक्षियों के पंजों में पहले से व्यवस्था कर दी कि उस युग में भी तुम उन तारों पर जब बैठोगे तो ये प्रकृति तुम्हे ये खूबी दे रही है की तुम्हे कुछ नही होगा.

इस बरस विश्व दाल दिवस के बहाने हम इतना जरुर कर ले की स्थानीय स्तरों पर लुप्त हो रही दालों की किस्में जिनमे प्रोटीन की प्रचुरता और सूक्ष्म पोषक तत्वों की अधिकता है साथ ही औषधीय गुणों से भी परिपूर्ण है उन्हें अपने खेतो के कुछ हिस्सों में जगह दी जाए, ताकि मिट्टी जीवित रहे और उससे उगने वाली दालों के पोषण से हमारा समाज भी स्वस्थ्य रहे, पशु –पक्षियों को भी इन दाल की फलियों का फल मिल सके जो हमारा नैतिक दायित्व है....दाल के बहाने ..राम जी की चिड़िया राम जी के खेत.

कृष्ण कुमार मिश्र
संस्थापक/सम्पादक दुधवा लाइव जर्नल
village: Manhan, Post: Odara, District: Kheri, Uttar Pradesh
Republic of India



  


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