गांव पभया गंगोलीहाट में निर्मित प्राचीन नौला|तस्वीर- डॉ हिमांशु पांडे |
पृथ्वी पर जल दो रूपों में विद्यमान है।
० सतह पर दिखाई देने वाला - नदियाँ, झील, झरने, तालाब, समुद्र आदि।
०भूमिगत जल - वर्षा जल का 10 से 20%भाग अवशोषित होकर भूगर्भ में चला जाता है। इसी जमीन के अन्दर विद्यमान जल को कुआँ, नौला, नलकूप आदि के माध्यम से बाहर लाकर उपयोग में लाया जाता है।
*नौला* - उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में जल की आपूर्ति का परंपरागत साधन नौला रहा है। सदियों तक पेयजल की निर्भरता इसी पर रही है। नौला मनुष्य द्वारा विशेष प्रकार के सूक्ष्म छिद्र युक्त पत्थर से निर्मित एक सीढ़ीदार जल भण्डार है, जिसके तल में एक चौकोर पत्थर के ऊपर सीढ़ियों की श्रंखला जमीन की सतह तक लाई जाती है। सामान्यतः सीढ़ियों की ऊंचाई और गहराई 4 से 6 इंच होती है, और ऊपर तक लम्बाई - चौड़ाई बढ़ती हुई 5 से 9 फीट (वर्गाकार) हो जाती है। नौले की कुल गहराई स्रोत पर निर्भर करती है। आम तौर पर गहराई 5 फीट के करीब होती है ताकि सफाई करते समय डूबने का खतरा न हो। नौला सिर्फ उसी जगह पर बनाया जा सकता है, जहाँ प्रचुर मात्रा में निरंतर स्रावित होने वाला भूमिगत जल विद्यमान हो। इस जल भण्डार को उसी सूक्ष्म छिद्रों वाले पत्थर की तीन दीवारों और स्तम्भों को खड़ा कर ठोस पत्थरों से आच्छादित कर दिया जाता है। प्रवेश द्वार को यथा संभव कम चौड़ा रखा जाता है। छत को चारों ओर ढलान दिया जाता है ताकि वर्षाजल न रुके और कोई जानवर न बैठे।आच्छादित करने से वाष्पीकरण कम होता है और अंदर के वाष्प को छिद्र युक्त पत्थरों द्वारा अवशोषित कर पुनः स्रोत में पहुँचा दिया जाता है। मौसम में बाहरी तापमान और अन्दर के तापमान में अधिकता या कमी के फलस्वरूप होने वाले वाष्पीकरण से नमी निरंतर बनी रहती है। सर्दियों में रात्रि और प्रातः जल गरम रहता है और गर्मियों में ठण्डा। नौले का शुद्ध जल मृदुल, पाचक और पोषक खनिजों से युक्त होता है।
पभया गंगोलीहाट में निर्मित नौले में जानवरों के पानी पीने की व्यवस्था| तस्वीर- डॉ हिमांशु पांडे |
उत्तराखंड के पर्वतीय भूभाग में हर गांव के हर तोक और समुदाय का अपना एक नौला होता है, जिसकी देखरेख व रखरखाव की जिम्मेदारी उसी समुदाय की होती है।
नौला पर्वतीय क्षेत्र की संस्कृति और संस्कारों का दर्पण है। हिन्दू परिवारों की धरोहर इन नौलों को क्षीर सागर का प्रतीक माना जाता है, जिसमें श्री हरि विष्णु और लक्ष्मी सदैव वास करते हैं।वास्तुकला के बेजोड़ नमूने स्तम्भों और दीवारों पर पौराणिक कथाओं पर आधारित देवी देवताओं के चित्र उकेरे होते हैं।
*नौलों का सामाजिक महत्व*--
लगभग पांच-छह दशक पूर्व तक पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल का एकमात्र स्रोत नौला था। नौलों की देखभाल और रखरखाव सभी मिलजुलकर करते थे। प्रातःकाल सूर्योदय से पहले घरों की युवतियाँ नित्य कर्म से निवृत्त हो तांबे की गगरी लेकर पानी लेने नौले पर साथ साथ जाती, बतियाती, गुनगुनाती, जल की गगरी सिर पर रख कतारबद्ध वापस घर आती, अपने अपने काम में जुट जाती थी। समय समय पर परिवार के अन्य सदस्य भी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नौले से ही जल लाते थे। घर पर रहने वाले मवेशियों के पीने के लिए और छोटी छोटी क्यारियों को सींचने के लिए नौले से ही जल लाया जाता था।नौले के माध्यम से आपस में मिलना जुलना हो जाता, सूचनाओं का आदानप्रदान हो जाता था। आपसी मेलजोल से सद्भावना सुदृढ़ होती थी।
*धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व*----
ग्रामीण परिवेश में नौला, हिन्दू धर्म के लगभग सभी संस्कारों के प्रतिपादन का साक्षी रहा है। नवजात शिशु के नामकरण संस्कार के समय स्नान, देवपूजन, नामकरण के पश्चात् जननी परिवार के बच्चों, ननद, जेठानी, देवरानी के साथ नैवेद्य, ज्योतिपट्ट, धूप-दीप, रोली-अक्षत, तांबे की गगरी आदि लेकर नौले पर जाती। रास्ते भर शंख ध्वनि होती। भगवान श्री हरि विष्णु और लक्ष्मी की पूजा अर्चना कर आशीर्वाद लिया जाता। नैवेद्य का प्रसाद ग्रहण करते और पूजा सामग्री का विसर्जन कर जल से भरी गगरी लेकर घर वापस आ जाते, तब नामकरण संस्कार पूर्ण माना जाता था।
विवाह संस्कार भी नौला भेंटने के बाद ही पूरा होता था। नव बधू ससुराल में बड़े बुजुर्गों का आशीष ले, मायके से कलश के रूप में मिली तांबे की गगरी, पूजा सामग्री, वर - वधू के विवाह में पहने हुए मुकुट आदि लेकर ननद व अन्य सहेलियों के साथ नौला भेंटने के लिए जाती। रास्ते भर हंसीं ठिठोली, शंख ध्वनि होती। नौला पूजन कर भगवान श्री हरि विष्णु और लक्ष्मी जी का आशीर्वाद लेने के पश्चात एक निश्चित स्थान पर सभी सामग्री का विसर्जन कर दिया जाता।नव बधू गगरी में जल लिए सभी साथियों के साथ घर वापस आकर पुनः बड़े बुजुर्गों की आशीष लेती और तब विवाह संस्कार सम्पन्न माना जाता था।
व्यक्ति का अन्तिम संस्कार भी नौले को साक्षी मानकर पूरा किया जाता है। मृत्यु के बारहवें या तेरहवें दिन मृतक के परिजन नौले पर स्नान, पितृ पूजन, पिण्ड दान, तर्पण के साथ ही अन्तिम संस्कार सम्पन्न करते हैं।
कालांतर में सरकारी योजनाओं के माध्यम से भूमिगत जल का दोहन कर, जल स्रोतों को बाधित कर या नदियों के प्रवाह को बांधों से रोक कर बड़ी बड़ी टंकियों में एकत्र कर घर घर तक पहुँचाने का काम शुरू हुआ। जरूरत के मुताबिक पानी जब घर पर ही उपलब्ध होने लगा तो नौलों की उपेक्षा होने लगी और हमारे पुरखों की धरोहर क्षीण-शीर्ण होकर विलुप्ति के कगार पर पहुँच गई । *नौले* नहीं, हमारे जीवन मूल्यों को पोषित करती संस्कृति ही खत्म हो जाएगी, यदि हम समय से न जागे।
भूमिगत जल का निरन्तर ह्रास हो रहा है। जहाँ तालाब, पोखर, सिमार, गजार थे वहाँ कंक्रीट की अट्टालिकाएं खडी़ हो गईं। सीमेंट व डामर की सड़कें बन गईं।जंगल उजड़ गए। वर्षा जल को अवशोषित कर धरती के गर्भ में ले जाने वाली जमीन दिन पर दिन कम होने लगी है।समय के साथ जल की प्रति व्यक्ति खपत बढ़ती जा रही है। भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन का कृषि पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।
आज आवश्यकता है लुप्तप्राय परंपरागत जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने की और उस तकनीक को विकसित करने की, जिसे हमारे पूर्वजों ने सदियों पहले अपना कर प्रकृति और संस्कृति को पोषित किया।
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के नौलों को चिन्हित कर पुनर्जीवित किया जाना आवश्यक है।
मनोहर सिंह भण्डारी।
सितम्बर 22, 2019.
उपयोगी आलेख । नौला परम्परा और संस्कृति को पुनर्जीवित किए जाने की आवश्यकता है । एक साथ समूह में जाकर पानी लाने की परम्परा का एक बहुत बड़ा सामाजिक महत्व भी हुआ करता था । सामाजिक समरसता और प्रेम में इस तरह की छोटी-छोटी बातों का बहुत महत्व है । दुर्भाग्य है कि हम बहुत कुछ खोकर भी इसे आज भी समझना नहीं चाहते ।
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