Photo courtesy: Sandip Kumar wikipedia |
- डॉ दीपक कोहली -
भारत में एक ऐसा दुर्लभ स्तनधारी वन्यजीव जो दिखने में अन्य
स्तनधारियों से बिल्कुल अलग व विचित्र आकृति का जिसके शरीर का पृष्ठ भाग खजूर के
पेड़ के छिलकों की भाँति कैरोटीन से बने कठोर व मजबूत चौड़े शल्कों से ढका रहता है।
दूर से देखने पर यह छोटा डायनासोर जैसा प्रतीत होता है। अचानक इसे देखने पर एक बार
कोई भी व्यक्ति अचम्भित व डर जाता है। धुन का पक्का व बेखौफ परन्तु शर्मीले स्वभाव
का यह वन्य जीव और कोई नहीं बल्कि भारतीय पैंगोलिन है। पैंगोलिन या शल्की चींटी खोर कौतुहल पैदा करने वाला प्राणी है।
देश में दो तरह के पैंगोलिन पाये जाते हैं-भारतीय और चीनी। चीनी पैंगोलिन
पूर्वोत्तर में पाया जाता है। दुनियाभर में पैंगोलिन की सात प्रजातियां पाई जाती
हैं। लेकिन वनों में पाये जाने वाले चीनी पैंगोलिन की संख्या के बारे में कोई
आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। दक्षिण एशियाई देशों में उनकी बहुत बड़ी मांग है।
पैंगोलिन का
शरीर लंबा होता है जो पूंछ की ओर पतला होता चला जाता है। दिखने में यह जंतु अजीब
सा दिखाई देता है। इसके शरीर पर शल्क होते हैं। ये शल्क सुरक्षा कवच का काम करते
हैं। लेकिन थूथन, चेहरे,
गले और पैरों के आंतरिक हिस्सों
में शल्क नहीं होते। शल्क को चित्तीदार कांटे के बजाय बाल के रूप में देखा जा सकता
है। हालांकि पुराने पड़ने और झड़ने के साथ ही शल्क के आकार प्रकार घटते बढ़ते रहते
हैं। इनका रंग भूरे से लेकर पीला तक होता है। शरीर का शल्कमुक्त भाग सफेद, भूरे और कालापन लिए होता है। पैंगोलिन रात्रिचर प्राणी होते हैं
और अक्सर निर्जन स्थानों पर दिखते हैं। हालांकि ये जमीन पर पाये जाने वाले प्राणी
हैं लेकिन ये चढ़ने में बड़े माहिर होते हैं। इनके अगले पैर की पेड़ अच्छी पकड़ होती
है। पैंगोलिन चींटियों की खोज में दीवारों पर और पेड़ों पर चढ़ते हैं और इसमें पूंछ
भी उनका बहुत सहयोग करती है।
दिन के समय ये
बिलों में छिपे होते हैं। इन बिलों के मुंह भुरभुरी मिट्टी से ढंके होते हैं इनके
बिल करीब छह मीटर तक लंबे होते हैं। ये बिल जहां चट्टानी स्थलों पर डेढ़ से पौने दो
मीटर तक लंबे होते हैं,
वहीं भुरभुरी मिट्टी वाले स्थानों
पर यह छह मीटर तक लंबे होते हैं। पैंगोलिन का पिछला हिस्सा चापाकार होता है और
कभी-कभी वे पिछले पैरों पर खड़े हो जाते हैं। पैंगोलिन के दांत नहीं होते। पैंगोलिन
अपनी रक्षा के लिए बॉल के आकार में लुढ़कता है। इसकी मांसपेशियां इतनी मजबूत होती
हैं कि लिपटे हुए पैंगोलिन को सीधा करना बड़ा कठिन होता है। कोई मजबूत मांसभक्षी ही
इनका शिकार कर सकता है। तथाकथित औषधि उद्देश्यों के लिए पैंगोलिन को मार डालने और
उसके पर्यावास को नष्ट करने से उसकी संख्या काफी घट गई है।
पैंगोलिन की
आंखें छोटी होती हैं और पलकें मोटी होती हैं। पैरों में पांच अंगुलियां होती हैं।
पिछला पैर अगले पैर की तुलना में बड़ा और मोटा होता है। जीभ करीब 25 सेंटीमीटर तक होती है और वह आसानी से अपने शिकार को अपनी जीभ पर
चिपका लेती है। कपाल वृताकार या शंक्वाकार होता है। मादा पैंगोलिन की छाती में दो
स्तन होते हैं।
प्राणी शास्त्र में इसका वैज्ञानिक नाम ‘मैनिस क्रेसिकाउडाटा’ है तथा आमजन इसको ‘सल्लू सांप’ कहते हैं। देश के अलग-अलग प्रान्तों में इसको
अलग-अलग नामों से भी पुकारा जाता है। भारत में इसकी चीनी मूल की एक और प्रजाति है
जिसका नाम ‘मैनिस पेंटाडेकटाइला’ है जो सिर्फ उतरी-पूर्वी क्षेत्रों में ही
बसर करती है। विश्व में इसकी कुल आठ प्रजातियाँ है जिनमें से चार एशियाई व चार
अफ्रीकी उपमहाद्वीपों में मिलती है।
नुकीली थूथन व सुन्डाकार शरीर होने से यह अपने बिल में सरलता से
आ जा सकता है, वहीं शल्की कवच इसको विषम परिस्थितियों में
सुरक्षा देता है। इसने एक अनोखी एवं मजबूत सुरक्षा प्रणाली भी विकसित कर रखी है
जिससे यह खतरनाक परभक्षियों से प्रायः सुरक्षित रह जाता है। खतरा होने पर यह अपने
शरीर को जलेबीनुमा कुंडलित कर फुटबॉल की भाँति बना लेता है। यदि यह ऊँचे स्थान पर
है तब खतरों से बचने के लिए यह फुटबॉल की भाँति लुढ़क कर मैदानी क्षेत्र में आ जाता
है। इसकी आँखें व कान अल्प विकसित होते हैं लेकिन इनकी भरपाई यह सूंघने की अद्भुत
क्षमता से पूरी कर लेता है। यह सूंघकर पता लगा लेता है कि इसका भोजन कहाँ और कितनी
दूरी पर स्थित है। यह दन्त विहीन होता है। शरीर से अधिक लम्बी व आगे से नुकीली
इसकी लचीली व चिप-चिपी जीभ मिट्टी के बड़े-बड़े टीलों व मांदों अथवा घोसलों में
गहराई में रह रही दीमक व चींटियों तथा इनके अण्डों को पलक झपकते ही सुड़क (slurp up) लेती है। यह अपने तीक्ष्ण पंजों से मजबूत
मांदों-टीलों-घोंसलों को मिनटों में चीर कर इन्हें ध्वंस करने की अद्भुत क्षमता
रखता है। पक्षियों की भाँति पैंगोलिन भी भोजन पचाने हेतु कंकर-पत्थर निगलते हैं।
दिन में नींद व आराम में खलल न हो इस हेतु यह बिल के मुहाने को
मिट्टी से हल्का सा बन्द कर देता है। अपनी गुदा के नजदीक स्थित विशेष ग्रन्थि से
गन्ध निकालकर अन्य वन्य प्राणियों की तरह ये भी अपना इलाका बनाते हैं। इनका प्रणय
काल जनवरी से मार्च तक का होता है। इस दौरान नर व मादा पैंगोलिन जोड़े में रहते
हैं। गर्भवती पैंगोलिन ३-४ महीनों में साल में एक ही शिशु (पैंगोपप्स) को जन्म
देती है। इसकी छाती के मध्य स्थित दो स्तनों से अपने बच्चे को दूध पिलाती है। बड़ा
होने पर पैंगोपप्स को अपनी पूँछ पर बिठाकर जंगल में विहार कराने के दौरान इसे
सुरक्षा तथा भोजन खोजने व खाने का हुनर भी सिखाती है। कुछ महीनों बाद शिशु अपनी
माँ से अलग हो जाता है। पैंगोलिन पेड़ों पर चढ़ने व पानी में तैरने में दक्ष होते
हैं।
कीट कई हेक्टेयर उपजाऊ कृषि भूमि को भी खोखली अथवा पोली कर देते
हैं जो खेती के लिए अनुपयुक्त हो जाती है। इससे किसानों को प्रतिवर्ष आर्थिक
नुकसान होता है। देश में दीमकों व चीटियों को खत्म करने के लिये अनेक प्रकार के
खतरनाक कीटनाशक रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इनके अन्धाधुन्ध उपयोग से इंसानों
व पशुओं की सेहत पर बुरा असर पड़ता है। ये रसायन पर्यावरण को तो नुकसान पहुँचाते ही
हैं लेकिन इनसे पारिस्थितिकी तंत्र में मौजूद विभिन्न प्रकार की भोजन शृंखलाएँ
दूषित हो जाने का खतरा ज्यादा चिन्ताजनक है। इन विषम परिस्थितियों में पैंगोलिन
जीव हमारे लिये आदर्श मददगार साबित होते हैं। पैंगोलिन न केवल इन विनाशकारी
कीड़े-मकोड़ों की आबादी को नियंत्रित करते हैं बल्कि जैव-विविधता के संरक्षण एवं प्राकृतिक
सन्तुलन में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका भी होती है। लेकिन ग्रामीण व आदिवासी लोग
अपनी बेवकूफी व नासमझी के कारण निहायती भोले इन जीवों की बर्बरता पूर्वक हत्या कर
देते हैं।
एक अनुमान यह भी है कि अन्तरराष्ट्रीय बाजार में इस वन्य जीव की कीमत दस से बारह लाख रुपये तक आंकी गयी है। भारत में लगभग बीस से तीस हजार रुपये में इसे बेचा व खरीदा जाता है। इसका अन्धाधुन्ध आखेट, बड़े पैमाने पर तस्करी, तेजी से बढ़ता शहरीकरण व इनके घटते प्राकृतिक आवासों से भारत में इनकी संख्या में भारी गिरावट आयी है।
अन्तरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आई.यू.सी.एन.) ने अपनी रेड लिस्ट में भी इसको संकटग्रस्त प्रजातियों में शामिल करा रखा है। भारत में इसे वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची एक में रखा गया है। इसका आखेट करना, इसको सताना, मारना या पीटना, विष देना, तस्करी करना यह सब गैर कानूनी एवं अपराध की श्रेणी में आते हैं। यह प्रजाति सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि अन्य देशों में भी संकटग्रस्त है। यह प्रजाति विलुप्त न हो इस हेतु लोगों में जागरूकता लाने व इसके सरंक्षण के लिये विश्व भर में प्रतिवर्ष फरवरी माह के तीसरे शनिवार को ‘वर्ल्ड पैंगोलिन डे’ (विश्व चींटीखोर दिवस) मनाया जाता है। लेकिन भारत में इसके प्रति लोगों में उत्साह नजर नहीं आता है। विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों के पर्यावरण, प्राणी शास्त्र तथा वन विभाग चाहें तो पहल कर प्रतिवर्ष सक्रिय जागरूकता अभियान चलाकर इस वन्यजीव के संरक्षण में योगदान कर सकते हैं। ग्रामीण छात्र-छत्राओं को ऐसे अभियानों से जोड़ने से इसके संरक्षण में अच्छे परिणाम आ सकते हैं। दूसरी ओर इसकी वंश वृद्धि दर भी कम होने से इसकी संख्या में कोई विशेष इजाफा नहीं होता है। इसलिए समय रहते इनके सरंक्षण, वंश वृद्धि अथवा इनके कुनबों को बढ़ाने हेतु आधुनिक तकनीकों व उपायों को अपनाने की जरूरत है।
एक अनुमान यह भी है कि अन्तरराष्ट्रीय बाजार में इस वन्य जीव की कीमत दस से बारह लाख रुपये तक आंकी गयी है। भारत में लगभग बीस से तीस हजार रुपये में इसे बेचा व खरीदा जाता है। इसका अन्धाधुन्ध आखेट, बड़े पैमाने पर तस्करी, तेजी से बढ़ता शहरीकरण व इनके घटते प्राकृतिक आवासों से भारत में इनकी संख्या में भारी गिरावट आयी है।
अन्तरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आई.यू.सी.एन.) ने अपनी रेड लिस्ट में भी इसको संकटग्रस्त प्रजातियों में शामिल करा रखा है। भारत में इसे वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची एक में रखा गया है। इसका आखेट करना, इसको सताना, मारना या पीटना, विष देना, तस्करी करना यह सब गैर कानूनी एवं अपराध की श्रेणी में आते हैं। यह प्रजाति सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि अन्य देशों में भी संकटग्रस्त है। यह प्रजाति विलुप्त न हो इस हेतु लोगों में जागरूकता लाने व इसके सरंक्षण के लिये विश्व भर में प्रतिवर्ष फरवरी माह के तीसरे शनिवार को ‘वर्ल्ड पैंगोलिन डे’ (विश्व चींटीखोर दिवस) मनाया जाता है। लेकिन भारत में इसके प्रति लोगों में उत्साह नजर नहीं आता है। विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों के पर्यावरण, प्राणी शास्त्र तथा वन विभाग चाहें तो पहल कर प्रतिवर्ष सक्रिय जागरूकता अभियान चलाकर इस वन्यजीव के संरक्षण में योगदान कर सकते हैं। ग्रामीण छात्र-छत्राओं को ऐसे अभियानों से जोड़ने से इसके संरक्षण में अच्छे परिणाम आ सकते हैं। दूसरी ओर इसकी वंश वृद्धि दर भी कम होने से इसकी संख्या में कोई विशेष इजाफा नहीं होता है। इसलिए समय रहते इनके सरंक्षण, वंश वृद्धि अथवा इनके कुनबों को बढ़ाने हेतु आधुनिक तकनीकों व उपायों को अपनाने की जरूरत है।
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प्रेषक : डॉ. दीपक कोहली, उपसचिव , वन एवं वन्य
जीव विभाग, 5 / 104 , विपुल खंड, गोमती नगर, लखनऊ- 226010 इमेल: deepakkohli64@yahoo.in
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