भारत के एकमात्र सिंहों { बब्बर शेरों } के प्रश्रय स्थल गिर के जंगलों से पिछले कुछ दिनों से बहुत ही दुखी कर देने वाले समाचार आ रहे हैं । गिर के जंगलों के एक भाग में रहने वाले 26 सिंहों के एक परिवार में पालतू पशुओं और कुत्तों में होने वाली एक प्राणान्तक बिमारी के वाइरस के संक्रमण से कुछ ही दिनों में उन 26 सिंहों में से 23 कालकलवित हो गये उनमें से केवल अब केेेवल 3 सिंह बचे हैं ,लेकिन अगर समय रहते उन्हें भी कहीं अन्यत्र स्थानांतरित नहीं किया गया तो उनके भी बचने की सम्भावना कम ही है ।
मनुष्यजनित कृत्यों ,बढ़ती आबादी ,गरीबी , मनुष्य के हवश , और लालच से वनों के अत्यधिक दोहन की वजह से वनों का क्षेत्रफल लगातार सिकुड़ता जा रहा है , प्रदूषण से प्राकृृृतिक जलश्रोत ,जो वन्य जीवों की प्यास बुझाते थे , वे प्राकृृृतिक जलश्रोत भी अत्यधिक प्रदूषित होने से वन्य जीवों की प्यास बुझाने लायक नहीं रहे । इन कारणों से वन्य जन्तुओं के विचरण क्षेत्र ,भोजन और पानी की समस्या बढ़ती ही जा रही है ,जिससे वन्य प्राणी सघन वन क्षेत्रों से मानव बस्तियों की तरफ आने को बाध्य होते हैं ,जहाँ मनुष्यों द्वारा उनकी जान का खतरा तो रहता ही है ,पालतू पशुओं जैसे कुत्तों ,सूअरों, गाय,बैलों ,भैंसों आदि से भी उनके रोग संक्रमित होने का खतरा बना रहता है । पशु वैज्ञानिकों के अनुसार गिर के उक्त दुखद घटना में भी सिंहों को वही पालतू पशुओं से रोग संक्रमित होने की संभावना है ,जिसमें कुछ ही दिनों में 26 में से 23 सिंहों की अकाल मृत्यु हुई है ।
पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार आधुनिक मानव द्वारा सम्पूर्ण विश्व के जंगलों ,नदियों ,पहाड़ों , प्राकृृृतिक जलश्रोतों का जिस हिसाब से दोहन और प्रदूषण हो रहा है ,अगर इसमें भविष्य में भी कोई सुधार नहीं हुआ तो सम्भव है, उससे 2050 तक इस दुनिया से समस्त वन्य जीवों का विलुप्त हो जाना निश्चित है । यह स्थिति बहुत ही चिन्तनीय व दुखदाई है । हमारी पृथ्वी , हमारा पर्यावरण और हम सभी जीव-जन्तु ,जिसमें मनुष्य जाति भी सम्मिलित है ,साथ रहकर ही इस पृथ्वी को हर तरह से जैविक विविधताओं से सम्पन्न ,शोभायमान और गुंजायमान बनाए हुए हैं ।
उस दुनिया की कल्पना करें ,जिसमें सिर्फ मनुष्य अकेला ही जीवित और विचरण करता हो ,उसमें बहुविविध चिड़ियों का गुंजन ,तितलियों की इंद्रधनुषी रंगों की छटा , हरे-भरे स्तेपी में कुलांचे भरते बिभिन्न जातियों के हिरणों के झुंड , जंगलों की हरियाली , श्वेत बर्फ से लदी पहाड़ों की आह्लादित करने वाली दुग्धित धवल चोटियां ,कल-कल करती नदियाँ , पहाड़ों से गिरने वाले श्वेत ,फेनिल झरने , रंग-विरंगे पुष्पों से जगह-जगह आच्छादित मैदान ,पर्वत और घाटियाँ और उस पर विविध रंगों से सज्जित मकरंद चूसतीं तितलियों ,भौंरों और छोटी चिड़ियों के झुंड आदि न रहें ,सभी धीरे -धीरे मनुष्य जनित क्रियाकलापों के दुष्प्रभाव से विलुप्त हो जायें तो इस स्थिति की वीरान पृथ्वी की कल्पना करना भी डरावना लगता है ।
इसलिए मानव जाति को ,जो इस पृथ्वी का सबसे विकसित प्राणी है , को इस पृथ्वी से इन वन्य जीवों के बसेरों यथा पेड़ों ,वनों ,पहाड़ों ,झीलों ,झरनों ,नदियों ,सपाट मैदानों , समुद्रों आदि के संरक्षण के लिए अपने स्तर पर गंभीर और ईमानदार कोशिश करनी ही चाहिए । अन्यथा प्रकृति ,पर्यावरण के तेजी से क्षरण के साथ-वन्य जीवों का भी विलुप्तिकरण बहुत ही तेजी से हो रहा है , भारत के गिर के जंगलों में बचे हुए सिंहों का एकमुश्त मृत्यु होना इसी की एक कड़ी है ,ज्ञातव्य है कि ये सिंह कभी समस्त भारत भर में विचरण करते थे ।
-निर्मल कुमार शर्मा , ' गौरैया एवम् पर्यावरण संरक्षण ' , गाजियाबाद 7-10-18
गिर के जंगलों से दुखद समाचार
ReplyDeleteभारत के एकमात्र सिंहों { बब्बर शेरों } के प्रश्रय स्थल गिर के जंगलों से पिछले कुछ दिनों से बहुत ही दुखी कर देने वाले समाचार आ रहे हैं । गिर के जंगलों के एक भाग में रहने वाले 26 सिंहों के एक परिवार में पालतू पशुओं और कुत्तों में होने वाली एक प्राणान्तक बिमारी के वाइरस के संक्रमण से कुछ ही दिनों में उन 26 सिंहों में से 23 कालकलवित हो गये उनमें से केवल अब केेेवल 3 सिंह बचे हैं ,लेकिन अगर समय रहते उन्हें भी कहीं अन्यत्र स्थानांतरित नहीं किया गया तो उनके भी बचने की सम्भावना कम ही है ।
मनुष्यजनित कृत्यों ,बढ़ती आबादी ,गरीबी , मनुष्य के हवश , और लालच से वनों के अत्यधिक दोहन की वजह से वनों का क्षेत्रफल लगातार सिकुड़ता जा रहा है , प्रदूषण से प्राकृृृतिक जलश्रोत ,जो वन्य जीवों की प्यास बुझाते थे , वे प्राकृृृतिक जलश्रोत भी अत्यधिक प्रदूषित होने से वन्य जीवों की प्यास बुझाने लायक नहीं रहे । इन कारणों से वन्य जन्तुओं के विचरण क्षेत्र ,भोजन और पानी की समस्या बढ़ती ही जा रही है ,जिससे वन्य प्राणी सघन वन क्षेत्रों से मानव बस्तियों की तरफ आने को बाध्य होते हैं ,जहाँ मनुष्यों द्वारा उनकी जान का खतरा तो रहता ही है ,पालतू पशुओं जैसे कुत्तों ,सूअरों, गाय,बैलों ,भैंसों आदि से भी उनके रोग संक्रमित होने का खतरा बना रहता है । पशु वैज्ञानिकों के अनुसार गिर के उक्त दुखद घटना में भी सिंहों को वही पालतू पशुओं से रोग संक्रमित होने की संभावना है ,जिसमें कुछ ही दिनों में 26 में से 23 सिंहों की अकाल मृत्यु हुई है ।
पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार आधुनिक मानव द्वारा सम्पूर्ण विश्व के जंगलों ,नदियों ,पहाड़ों , प्राकृृृतिक जलश्रोतों का जिस हिसाब से दोहन और प्रदूषण हो रहा है ,अगर इसमें भविष्य में भी कोई सुधार नहीं हुआ तो सम्भव है, उससे 2050 तक इस दुनिया से समस्त वन्य जीवों का विलुप्त हो जाना निश्चित है । यह स्थिति बहुत ही चिन्तनीय व दुखदाई है । हमारी पृथ्वी , हमारा पर्यावरण और हम सभी जीव-जन्तु ,जिसमें मनुष्य जाति भी सम्मिलित है ,साथ रहकर ही इस पृथ्वी को हर तरह से जैविक विविधताओं से सम्पन्न ,शोभायमान और गुंजायमान बनाए हुए हैं ।
उस दुनिया की कल्पना करें ,जिसमें सिर्फ मनुष्य अकेला ही जीवित और विचरण करता हो ,उसमें बहुविविध चिड़ियों का गुंजन ,तितलियों की इंद्रधनुषी रंगों की छटा , हरे-भरे स्तेपी में कुलांचे भरते बिभिन्न जातियों के हिरणों के झुंड , जंगलों की हरियाली , श्वेत बर्फ से लदी पहाड़ों की आह्लादित करने वाली दुग्धित धवल चोटियां ,कल-कल करती नदियाँ , पहाड़ों से गिरने वाले श्वेत ,फेनिल झरने , रंग-विरंगे पुष्पों से जगह-जगह आच्छादित मैदान ,पर्वत और घाटियाँ और उस पर विविध रंगों से सज्जित मकरंद चूसतीं तितलियों ,भौंरों और छोटी चिड़ियों के झुंड आदि न रहें ,सभी धीरे -धीरे मनुष्य जनित क्रियाकलापों के दुष्प्रभाव से विलुप्त हो जायें तो इस स्थिति की वीरान पृथ्वी की कल्पना करना भी डरावना लगता है ।
इसलिए मानव जाति को ,जो इस पृथ्वी का सबसे विकसित प्राणी है , को इस पृथ्वी से इन वन्य जीवों के बसेरों यथा पेड़ों ,वनों ,पहाड़ों ,झीलों ,झरनों ,नदियों ,सपाट मैदानों , समुद्रों आदि के संरक्षण के लिए अपने स्तर पर गंभीर और ईमानदार कोशिश करनी ही चाहिए । अन्यथा प्रकृति ,पर्यावरण के तेजी से क्षरण के साथ-वन्य जीवों का भी विलुप्तिकरण बहुत ही तेजी से हो रहा है , भारत के गिर के जंगलों में बचे हुए सिंहों का एकमुश्त मृत्यु होना इसी की एक कड़ी है ,ज्ञातव्य है कि ये सिंह कभी समस्त भारत भर में विचरण करते थे ।
-निर्मल कुमार शर्मा , गाजियाबाद ,3-10-18
{ पर्यावरण पर लिखा यह लेख नवभारतटाइम्स में 5-10-18 को प्रकाशित हुआ है }