. ( 20 मार्च ,विश्व गौरैया दिवस )
"गौरैया"...यह नाम सुनते ही प्रायः हम बचपन की यादों में खो जाते हैं ,जहाँ माँ घर के आंगन में रखी लकड़ी की चौकी ( तखत) पर सुबह-सुबह अभी-अभी बना गर्म-गर्म चावल , नमक मिला कर मांड़ के साथ या अरहर की दाल के साथ देतीं थीं ..तभी आँगन में खपरैले मकान के मुंडेर पर बैठीं "कई गौरैयां" कुछ ही दूरी पर आकर एक अत्यन्त मधुर आवाज़ में और एक बेहद ही भावनात्मक भाव भंगिमा में उसी चौकी पर या कुछ ही दूरी पर ( एक दम नजदीक) आकर बैठ जातीं थीं ....मानो कह रहीं हों.." हमारा हिस्सा...?"
.......और तब तक मधुर आवाज़ में चीं...चीं...करती रहतीं थीं जब तक उनके सामने पके हुए चावल के कुछ दाने दे न दिए जाँय । वह क्या सुन्दर और मनभावन दृश्य था..!,जिसकी छवि अभी भी मानस-पटल पर छाई हुई है । वह दाना अपने मुँह में दबाकर गौरैंयों की जोड़ियाँ कमरे के दरवाजे के उपर ऊँचाई पर लगी कड़ियों में सुरक्षित जगह में बनाये अपने घोसले में फुर्र से उड़ जाती थीं, जहाँ उनके दो या तीन नन्हें बच्चे अपना मुँह खोले तेज आवाज में चीं..$$..चीं..$$ की तेज आवाज में लगातार आवाज लगाकर अपनी नन्हीं माँ से मानो कह रहे होते थे कि ,"मम्मी बहुत जोर की भूख लगी है..जल्दी खाना दो "अक्सर वे इस क्रम में अपना हिस्सा माँगने के लिए घोसले से बाहर अपनी चोंच खोले,उनका मासूम चेहरा झाँकता दिखाई दे जाता था..।
अब शहरों में हर आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस घरों में वो दृश्य सदा के लिए दुर्लभ हो गया है , घर-आँगन की जीवन्तता का प्रतीक वो बचपन की यादें अब सपना बन कर रह गईं हैं । हमारे तथाकथित आधुनिक विकास ,हवस ,लालच , अत्यधिक पाने की होड़ आदि गलाकाटू प्रतियोगिता ने "गौरैया रानी" को विलुप्ति के कगा़र पर ला खड़ा कर दिया है ।
अब गौरैयां मनुष्यजनित कुकर्मों की वजह से शहरों की बात छोड़िए गाँवों में भी नहीं दिख रहीं हैं । आधुनिक सूचना के संवाहक बने हरेक हाथ में मोबाईल फोनों के लिए जगह-जगह घरों-मकानों-अस्पतालों आदि के ऊपर लगे ऊँचे-ऊँचे टावरों से निकलने वाली उच्च क्षमता की वेव तरगें ,जो गौरैया से कई हजार गुना बड़े मनुष्य को भी उनके तीव्र बीम के सामने आ जाने पर मूर्छित करने की क्षमता रखने वाली तरंगें "गौरैया रानी" के लिए सबसे बड़ी "भष्मासुर" साबित हुई हैं ।
गाँवों में हम प्रायः देखते थे ,कि बाजरा जब पकने को होता था, उनमें चमकीले दाने दिखने शुरु होते थे ,तब "गौरैंयों का झुँड" खेतों में उन बाजरे की बालियों पर आने लगते थे , जो उनका सबसे मनपसंद भोजन था । उस समय के किसान भी उन्हें भगाने के लिए टीन के कनस्तर पीटकर शोर मचाते थे गुलेल और मिट्टी के डले भी उनको भगाने के लिए प्रयोग किए जाते थे । प्रायः वे इससे खेत के एक भाग से उड़कर दूसरे भाग में जाकर अपना भर पेट मनपसंद खाना खाने में सफल रहतीं थीं । अब सुना है , गाँव का "आधुनिक किसान" बाजरे की बालियों में दाना आने से पूर्व ही उनपर अत्यन्त घातक "कीटनाशक-जो गौरैयानाशक" भी होता है ,का छिड़काव पूरे खेत की फसल पर अत्यधुनिक स्प्रे मशीनों से कर देता है ।
हम अक्सर आज से लगभग पचास साल पूर्व प्रातःकाल गाँव के सभी बच्चे और बड़े लोग गंगा नदी में स्नान करने जाते थे । वहाँ का दृश्य भी बड़ा नयनाभिराम होता था । उस समय गंगा जी ( उस समय हम सभी गाँव के लोग गंगा को "गंगा जी" ही आदरभाव से बोलते थे ) एक तरफ हम लोग गंगा जी के एकदम नीले, पारदर्शक , स्वच्छ ,निर्मल जल में नहा रहे होते थे ।
दूसरी तरफ घर से ले आई गईं पूड़ियों और उबले नमकीन चने और हलुए को कुछ लोग स्नान करके गंगातट पर बनी मचानों खा रहे होते और वहीं चिड़ियों का झुँड ,जिनमें अक्सर कौवे , कबूतर , फाख्ते , गौरैया आदि-आदि भी अपने हिस्सा पाने के लिए धमा-चौकड़ी मचाये रहती थीं । अक्सर ये सारी चिड़ियाँ कुछ खाकर वहीं कुछ दूर पर गंगा का स्वच्छ पानी भी पीटर कपनी प्यास भी बुझा लेतीं थीं ।
आज भयंकर प्रदूषण की वजह से गंगा यमुना या किसी भी भारतीय नदी का पानी "पीना" तो छोड़िये "नहाने" या "छूने" की हिम्मत नहीं है ,इतना नाले जैसा "काला" ,"सड़ा","बदबूदार" और "बजबजाता" है । उसको चिड़ियाँ क्या अपनी प्यास बुझा सकतीं हैं ?
"तथाकथित" आधुनिक "विकास" के नाम पर शहरों की सड़कों को चौड़ी करने के नाम पर सैकड़ों साल पुराने चिड़ियों के स्थाई बसेरे हरे-भरे लाखों पेड़ों को अतिनिर्दयतापूर्वक अत्याधुनिक मशीनों से रातो-रात काट डाले जाते हैं । तथाकथित आधुनिक जीवन शैली की परिचायक पचास-पचास मंजिली इमारतें कुछ ही महीनों में बड़ी-बड़ी लिफ्ट मशीनों की मदद से खड़ी कर दी जातीं हैं ,अत्यन्त खेद है कि इन अत्याधुनिक गगनचुंबी इमारतों में एक भी गौरैया के घोसले बनाने की जगह नहीं होती ।
आज कितनी दुखद स्थिति है कि हम मनुष्य प्रजाति अपने स्वार्थ ,लालच और हवश के वशीभूत होकर इस अदना ,भोली ,निश्छल , नन्हीं-मुन्नी , पारिवारिक सदस्या "गौरैया रानी " का कंक्रीट का जंगल बनाकर "घर" छीन लिया ,तथाकथित विकास के नाम पर लाखों पेड़ों की अंधाधुंध कटाई करके उनका "आश्रय" छीन लिया , फसलों पर कीटनाशकों का प्रयोग करके उनको "भूखा" रखने या खाकर मरने को बाध्यकर दिया , प्राकृतिक श्रोतों नदी ,तालाबों को अत्यन्त प्रदूषित कर उसके पानी को पीने से उन "मासूम परिंदों" को "प्यासे" मरने को बाध्य कर दिया , आकाश में मोबाईल टावरों से अति तीव्र रेडिएशन तरंगों को सर्वत्र भेजकर उन "भले-नन्हें प्रणियों" को मुक्त गगन में विचरण पर रोक लगा दिया ।
जरा सोचिए अगर यह प्रतिबंध मनुष्य पर लगा दी जाय , खाने पर ,पीने पर ,घर बनाने पर ,घूमने-फिरने पर तो , मनुष्य जैसा बड़ा प्राणी ( औसत वजन 60 किलोग्राम) कितने दिन इस धरती पर अपने को जीवित रख पायेगा ? यह नन्हीं "गौरैया रानी" तो 8 या 9 ग्राम वजन की है , इतने प्रतिबंधों के बाद इन्हें "विलुप्त होना " ही इसका हश्र हो रहा है तो , इसमें आश्चर्य की क्या बात है ?
एक सर्वमान्य तथ्य है कि बाघ बचेंगे तो जंगल के सभी जीव बचेंगे । इसी प्रकार अगर हमारी पारिवारिक नन्हीं सदस्या आज हमारे कुकर्मों की वजह से विलुप्ती के कग़ार पर खड़ी है और संभव है कुछ दिनों में मारीशस के "डोडो" पक्षी की तरह विलुप्त हो जाय और हमारी भावी पीढ़ी ,हमारे बच्चे अपनी किताबों में इसका फोटो देखकर पहचानें कि यह "गौरैया" नाम की एक "चिड़िया" इस धरती पर हमारे घरों में ही अपना घोसला बनाकर हमारे साथ रहती थी ,साथ-साथ खाना थी और अपने बच्चे पालती थी ,तो हमारी संतानें हमें हमारे इस जघन्य और अक्षम्य अपऱाध के लिए कभी माफ नहीं करेंगी ।
अभी भी समय है कि हम इस 85% से 90% तक विलुप्त हो चुकी इस चिड़िया(गौरैया) के विलुप्ती के कारणों का अतिशिघ्रता से निराकरण करें । वैज्ञानिकों को ऐसे सूचनातंत्र का विकास करना चाहिए कि दूरस्थ व्यक्ति से संवाद भी हो और यह प्रकृति के इस अनुपम जीव पर भी कुछ दुष्प्रभाव न पड़े , नदियों ,तालाबों का पानी प्रदूषण मुक्त करने का कार्य तीव्र और युद्धस्तर पर हो ,हरे-भरे पेड़ों को जहाँ तक संभव हो कम से कम काटा जाय , सही मायने में वृक्षारोपण और उनका पालन हो ,वृक्षारोपण के नाम पर केवल नाटक न हो , घरों में इन नन्हीं चिड़िया के घोसले के लिए अवश्य स्थान छोड़ा जाय ।
अगर वास्तव में गौरैयों को बचाने के लिए वर्तमान सरकारें और देश के संवेदनशील लोग अगर गंभीर हैं ,तो जैसे बाघों को बचाने के लिए देश में जगह - जगह शिकारियों से मुक्त "बाघ अभयारण्य" बनाये गये हैं ,वैसे ही शहरों से दूर किसी वन्य प्रान्तर में , जहाँ की आबादी अत्यन्त विरल हो ,परन्तु हो, (क्योंकि गौरैया मानव बस्ती के पास ही रहना पसंद करतीं हैं ), के पाँच-सात वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को मोबाईल टावरों और मोबाईल रेडिएशन से एकदम मुक्त क्षेत्र बनाये जाँय ।( क्योंकि गौरैयों के विलुप्तिकरण का सबसे बड़ा कारण मोबाईल टावरों से निकलने वाली ये घातक रेडिएशन किरणें ही हैं )। उसके साथ ही किसी बड़े कीटनाशकों से मुक्त एक स्वच्छ प्राकृतिक जल स्रोत की भी व्यवस्था हो ताकि ये नन्हें परिन्दे भीषण गर्मी में अपनी प्यास बुझा सकें ।
अगर नहीं तो आज जिन वजहों से गौरैया प्रजाति विलुप्त हो रहीं हैं कुछ सालों में मनुष्य प्रजाति भी विलुप्त हो जायेगी । तब केवल इस पृथ्वी पर दिवारों के दरारों में छिपे झिंगुरों और तिलचट्टों की प्रजातियों की क्रंदन करतीं आवाजें रह जायेंगीं ...बहुत.. बहुत... अफ़सोस...।
तब , इस पूरे ब्रह्माण्ड के अरबों ,खरबों निहारिकाओं ,तारों ,ग्रहों ,उपग्रहों की विशाल वीराने में जीवन के स्पंदन से युक्त इस धरती से "जीवों" का यूँ विलुप्त होना ..अत्यन्त ही दुर्भाग्यपूर्ण और अत्यन्त विषादपूर्ण घटना होगी ।
परन्तु , ...निराशा के अंतिम क्षणों में ही.....आशा की किरण भी अचानक आती है ..। आइये हम सभी पृथ्वीवासी यह प्रतिज्ञा करें ,कि हम अपने घर की इस "नन्हीं पारिवारिक सदस्या" को विलुप्त नहीं होने देंगे ..। सभी इस पुनीत कार्य में सहयोग करें..तो यह "नन्हीं जान" क्यों नहीं बच सकती ..?
-निर्मल कुमार शर्मा ,"गौरैया संरक्षण " , गाजियाबाद
nirmalkumarsharma3@gmail.com
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