आलू एक ऐसी फसल जो दुनिया का पेट भरने में अहम दर्ज़ा हासिल किए है.
इतिहास में आलू की पैदाइश दक्षिण अमरीका के पेरू में बताई जाती है, सुदूर बोलीविया में भी आर्कियोलॉजी के अन्वेषण में आलू के चिन्ह मिले, जहाँ तकरीबन 10000 वर्ष पूर्व से इंका इन्डियन इस कन्द को उगाते थे, १५वीं सदी में जब स्पेन ने पेरू पर हमला किया और वहां काबिज़ हुए, तो उनका आलू जैसे पौष्टिक कन्द से परिचय हुआ, और यही से इस आलू का सफर शुरू हुआ जो पहले योरोप पहुंचा और फिर अफ्रीका और एशिया, जहाँ तक भारत की बात है तो यह आलू सत्रवहीं सदी में पुर्तगालियों द्वारा भारत लाया गया, जिसे पुर्तगाली में बटाटा कहाँ जाता है, और भारत के उन समुद्री छोरों गोवा आदि में इसे आज भी बटाटा के नाम से जानते है, अंग्रेजों ने इस आलू को बंगाल में दाखिल किया और १८वीं सदी में उत्तर भारत की पहाड़ियों में अंग्रेजों ने आलू की बाकायदा खेती शुरू कर दी, वैसे यह आलू यानी सोलेनम ट्यूबरोसम जिसे अंग्रेजी में पोटैटो कहते हैं इसकी भी उत्पत्ति स्पेनिश पटाटा शब्द से हुई, खैर अंग्रेजों ने अपने उपनिवेश के दौरान इसे योरोप लाये और सबसे पहले आयरलैंड में इसकी खेती हजारों हेक्टेयर में शुरू की, एक वक्त आया की समूचा आयरलैंड आलू की खेती पर निर्भर हो गया और तभी अचानक इस आलू में एक बीमारी लग गयी जिसे लेट ब्लाईट कहते हैं, इस फंगस वाली बीमारी ने पुरे आयरलैंड के किसानों और वहां की अर्थ व्यवस्था को तबाह कर दिया और न जाने कितने लोग देश छोड़कर चले गए, 1840 के इस अकाल को आयरलैंड का सबसे बड़ा अकाल कहा जाता है, एक फसल पर निर्भरता किस तरह तबाही मचाती है यह बात अभी शायद हमारे तराई के गन्ना बोने वाले किसान नही समझ रहे!
चावल, गेहूं और मक्का के बाद आलू दुनिया में चौथी सबसे प्रमुख खाद्य फसल है, अब इसे पाँचवीं मुख्य फसल कह सकते हैं, क्योंकि गन्ना चौथे नंबर पर दाखिल हो चुका है, आलू की तकरीबन 5000 किस्में पूरी दुनिया में लोग इस्तेमाल कर रहें हैं, जबकि अभी तक जंगली आलू की 200 से अधिक प्रजातियाँ खोजी जा चुकी हैं, भारत में पोटैटो रिसर्च सेंटर शिमला द्वारा 48 उन्नत किस्मों का विकास किया गया है, जिसे भारत के किसान आलू की खेती में इस्तेमाल करते हैं, यहाँ यह बताना दिलचस्प होगा की अंग्रेजों ने सन १९३५ में शिमला, कुफरी हिमाचल और कुमायूं हिल्स में भवाली में पोटैटो ब्रीडिंग सेंटर की शुरुवात की बाद में भारत सरकार ने इसका नाम सेन्ट्रल पोटैटो रिसर्च इंस्टिट्यूट कर दिया और इन तीनों रिसर्च सेंटर को मिलाकर १९५६ में शिमला को हेडक़्वाटर बनाया।
भारत में इन प्रमाणित 48 प्रजातियों के अतिरिक्त भी कई देशी किस्में होगी आलू की, किन्तु एक मनमोहक आलू की प्रजाति ने भारत में तकरीबन ८-९ वर्ष पहले दस्तक दी, इसका नाम है लेडी रोजेटा जैसा नाम वैसी ही खूबियां, सुर्ख गुलाबी रंग लिए यह आलू लो-शुगर वाला और चिप्स के लिए सबसे बेहतरीन माना जाता है, नीदरलैंड की यह किस्म डच पोटैटो के नाम से भी विख्यात है, गुजरात सहित उत्तर प्रदेश के किसान भी आलू की यह किस्म उगा रहे हैं, कुछ चिप्स बनाने वाली कंपनियां लेडी रोजेटा, चिप्सोना, फ़्राइसोना जैसी आलू की किस्मों की मांग अत्यधिक करती हैं.
आलू की कहानियां कोलम्बस से भी जुड़ी है, इसलिए अमरीका और योरोप में एक शब्द प्रचलित हुआ कोलंबियन एक्सचेंज, कोलम्बस द्वारा नई दुनिया की खोज के बाद जो भी चीजे जैसे आलू, टमाटर, तम्बाखू, सिफलिस जैसी बीमारियों का आदान प्रदान नई दुनिया यानी अमरीका और पुरानी दुनिया यानी योरोप, अफ्रीका और एशिया आदि के मध्य हुआ, ये आलू भी उसी कोलम्बियन एक्सचेंज का नतीजा था योरोप में, ख़ास बात यह की केमिकल फर्टिलाइजर की उत्पत्ति से पहले इसी कोलंबियन एक्सचेंज के तहत पेरू से चिड़ियों का मल जो ठोस यूरिक एसिड होता है खाद के रूप में योरोप में आलू की खेती में इस्तेमाल किया गया जिसे फिर अमरीकी सरकार ने प्रतिबन्धित किया और गुआनो(चिड़ियों का मॉल ) आइलैंड्स पर एकाधिकार कर लिया, इस तरह उर्वरक भी सत्ता की एक महत्वपूर्ण चीज बन गयी जो आज भी है! इस खाद्य ट्यूबर यानि कंद ने पूरे योरोप के राजाओं, किसानों को हतप्रभ किया, अन्न उपजाने के बजाए आलू की खेती ज्यादा मुफीद साबित हुई, और खाद्य संकटों से बचने का सबसे बढ़िया फसल बनी आलू की, इसी फसल ने फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैण्ड को कई बार अकालों से बचाया भी, लेकिन गन्ने की मिठास का वह रूप जिसे व्हाइट शुगर कहते है जिसने एक दौर में योरोप के राजाओं और मध्य एशिया के खलीफाओं के मध्य विलासिता और अमीर होने का रुतबा दिया था, उसी तरह इससे पहले योरोप में अमरीका से आई यह आलू की प्रजाति भी थी, जिसके जनमानस में प्रसारित होने से पहले यह उपनिवेशी राजाओं के महलों की शोभा बनी, फ्रांस का बादशाह लुइस द ग्रेट आलू के फूलों को अपने बटन में लगाता था, और महरानी मैरी एंटोनियता आलू के पुष्प को अपने बालो में गूँथती थी, दक्षिण पश्चिम जर्मनी में ओफ्फेनबुर्ग में सर फ्रैंसिस ड्रेक की एक प्रतिमा सन 1853 में लगाए गयी जिसमे उनके एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में आलू का पौधा है, 1586 में इन्होंने जर्मनी में आलू के प्रसार की मुहीम चलाई, और इस पौष्टिक और काम समय में उगने वाले कंद से जर्मनी के लोगों को परिचित कराया, इन्हें वहां आलू का महान प्रसारक माना जाता है, यकीनन इन्होंने आलू की खेती योरोप में नही शुरू कराई, यह कार्य वहां स्थापित हुए एंडीज पर्वतमालाओं के रहने वाले लोगों ने किया जो यहाँ आकर बेस किन्तु इस आलू की खेती के प्रसार में फ्रैंसिस ड्रेक ने अपने आप को समर्पित किया, और फिर नाज़ी जर्मनी के वक्त इनकी यह खूबसूरत प्रतिमा ढहा दी गयी, यह इतिहास का अपमान नही था बल्कि उस कला का अपमान था, जिस अलसेसन स्कल्पचर को बनाया था एंड्रीज फ्रैड्रिक ने यह उस कला और उस कलाकार का अपमान था.
चलिए इस आलू के अतीत से निकल कर इसकी पौष्टिकता की बात कर ली जाए, तो सबसे पहले यह की मानव जैवविकास के तहत यदि इतना बुद्धिमान बन पाया तो यह इस जमींदोज़ कन्द यानी आलू के बदौलत, विज्ञान ने यह साबित किया है की मनुष्य के मस्तिष्क के विकास में स्टार्ची कार्बोहायड्रेट का सबसे अधिक महत्त्व है, आलू काम कैलोरी, कोलेस्ट्राल रहित, मैग्नीशियम, पोटेशियम, विटामिन्स खासतौर से विटामिन सी, बी6, से भरपूर होता है, चूँकि आलू में स्टार्च की अधिकता होती है सो पाचन प्रक्रिया के तहत इसका कुछ हिस्सा बिना पचे ही बड़ी आंत तक पहुँच जाता है, यह फाइबर की तरह कार्य करता है और कोलन कैंसर और अपच की समस्या से बचाता है, स्टार्च के तौर पर कार्बोहायड्रेट लेने से डायबटीज में भी फायदेमंद है. कुल मिलाकर आलू वसा, सोडियम और क्लोरेस्ट्राल से रहित खाद्य है जो ह्रदय और डायबटीज जैसी बीमारियों से निज़ात दिलाता है.
आखिर में किसान की दशा पर चर्चा करना जरुरी है, आलू उत्पादकों की मौजूदा स्थिति बदतर है, आलू के महंगे बीज से लेकर, खेत तैयार करना, उर्वरक, और पेस्टिसाइड यह सब मिलाकर एक बड़ी रकम का इन्वेस्टमेंट हैं साथ ही श्रम जिसकी कोई कीमत अमूनन नहीं आंकी जाती हमारे यहाँ!, फसल तैयार हुई तो आलू खुदाई, फिर बोरियों का इंतजाम जो १२ रूपये से लेकर २० रूपये तक की कीमत में आती हैं 100 कुंतल आलू के लिए 200 बोरिया लाजिमी है, साथ ही ट्रैक्टर या अन्य भार वाहन का भाड़ा, फिर आढ़तिए का कमीशन और फिर आखिर में बाज़ार का खुदरा मूल्य कुल जमा इस बार किसान के हाथ शून्य लगा है, अब ऐसे हालातों में जहाँ आलू की खेती करने वाले किसान तबाह हुए है, उन्हें न तो सरकार से कोई सहयोग मिल रहा है और न ही अगली फसल पर कोई सहायता, ऐसा सिर्फ आलू के साथ ही नही है, सब्जी की खेती करने वाले किसान हो या धान, गेहूं, मक्का की सबका हाल रामभरोसे ही है, फसल तैयार होने पर बाजार शेयर मार्केट की तरह लुढ़कता है और किसान की फसल आने पौने दामों में खरीदने के बाद बाजार में उछाल आ जाता है, और किसान दूर खड़ा अपनी किस्मत पर न रो पाता है और न मुस्करा, और यहाँ अवधी कवि पंडित बंशीधर शुक्ल की वह रचना याद आती है "चौराहे पर ठाढ़ किसनऊ ताकै चारिव वार ", अब बात करे कांट्रेक्ट फार्मिंग की तो गन्ना के क्षेत्र में प्राइवेट लिमिटेड का बोलबाला हो गया तराई की जमीन गन्ने से आच्छादित है, किसान और सरकार दोनों को इस बात से फर्क नही की फसल चक्र ख़त्म हो गया, जैव विविधता नष्ट हो रही है और जमीन से अत्यधिक जल दोहन से जल स्तर नीचे गिर चुका है, भविष्य में गन्ने की प्रजातियों पर कोई संकट मंडराया या ये प्राइवेट लिमिटेड का एकाधिकार कोई आफत लेकर आया तो किसान कहाँ खड़ा होगा, कभी इसी गन्ने की खेती ने दुनिया में सबसे ज्यादा गुलाम पैदा किए, भारत में गिरमिटियों की एक कौम ही खड़ी हो गई मारीशस जैसे द्वीपों में वे आज भी विद्यमान है, जब तक गन्ने की मिठास उपनिवेशिक राजशाही के पास रही तब भी ये कथित किसान गुलाम रहे फिर कंपनियों के पास आई तब भी ये लाचार हैं, अपनी ही फसल की कीमत ये तय नही कर सकते, फसल बेच लेने के बाद यह उस रकम के लिए महीनों बैंकों के साइनबोर्ड ताकते हैं, फिर भी इन किसानों को एहसास नही की इस दुर्दशा के बाद भी ये इस देश को खिलाने वाले दानवीर है क्योंकि इनकी म्हणत की कीमत आंकी नहीं जाती सिर्फ फसल की कीमत का मुआवजा भर मिल जाता है, और इनकी वजह से ही मुल्क में कलेक्टर और मजिस्ट्रेट बनते हैं, ये रेवन्यू न हो तो अफसरान की कारों से नीली बत्तियां उतर जाए, पण्डित दीन दयाल के शब्दों में ये दरिद्र नारायण है जो स्वयं दरिद्र रहकर भी लोगों के पेट भरता है.
हम खाद्य सुरक्षा चाहते हैं तो बीजों, किसानों, और इस धरती मां इन तीनों का संवर्धन करना होगा हमें बिना किसी फौरी लालच के, यकीनन हमें रेवन्यू एक्ट में बदलाव करने होगें, कंपनियों पर किसानों का साझा जैसा अधिकार देना होगा, हाँ वैसा कतई नहीं जो मौजूदा समय में सहकारिता की स्थिति है, किसान और बाजार के बीच के बिचौलियों को ख़त्म करना होगा भले ही वह कोइ सरकार के साझे वाली प्राइवेट लिमिटेड हो, उपभोक्ता तक सीधी अपनी उपज पहुंचाने की व्यवस्था, बाजार पर सरकार का कड़ा नियंत्रण, देशी बीजों का सरंक्षण व् प्रसार, फसलों में विवधिता, और किसानों के लिए उनके आस पास अस्पताल, विश्वविद्यालय और तमाम जरुरी सहूलियतें जिससे वह पलायन न कर सकें, मजदूर संगठित हो सकता है, बोल्शेविक क्रांति इसका उदाहरण हैं, पर किसान संगठित नही होता, यदि किसान संगठित होकर अपने श्रम और अपनी फसल की उचित कीमत मांगे तो सरकारों को जरूर इस बावत विचार करना पडेगा।
कभी यह आलू भी उपनिवेशी सत्ता के हाथों रहा और किसान मजदूर की तरह इस खेल में अपनी म्हणत लगाता रहा, मौजूदा हालातों में ये बाजार और बिचौलिए उन उपनिवेशी सरकारों से अधिक घातक हैं, इनकी रसीदों पर लिखी वह इबारत "भूल चूक लेनी देनी" आज भी कचोटती है मन को और सरकार नज़रन्दाज करती है इसे, बाज़ार ने सहकारिता को ख़त्म कर दिया और नतीजतन किसान का समाजवाद उसके पसीने की जलालत के साथ दम तोड़ गया
और यह किसान अभी भी ठीक से नही समझ पाया है की अंग्रेजी के पीजेंट का मतलब गंवार, देहाती होता है!
कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारत
krishna.manhan@gmail.com
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