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चैत्र नवरात्र पर विशेष
लेखक: अरुण तिवारी
नया संवत्सर आया है। नवीन रातें आई हैं। नवरात्रों में हम मां के अनेक रूपों को पूजते हैं। मां से अनेक आकांक्षाओं की पूर्ति की अपेक्षा रखते हैं। गो, गंगा, गायत्री, तुलसी, पृथ्वी - भारतीय परंपरा ने पालन-पोषण करने वाली ऐसी कई शक्तियों को मां माना है। क्या कभी हम इन माताओं से भी पूछते हैं कि इनकी सेहत कैसी है ? मां और संतान का रिश्ता, हर पल स्नेह और सुरक्षा के साथ जिया जाने वाला रिश्ता है। क्या आज हम इस रिश्ते की पवित्रता का मान रख रहे हैं ? क्या यह हकीकत नहीं कि इस स्नेहिल रिश्ते के बीच का अनौपचारिक बंधन को प्रगाढ करना तो दूर, हम इस रिश्ते के औपचारिक दायित्व की पूर्ति से भी भागते हुए दिखाई दे रहे हैं ? कभी-कभी मुझे खुद लगता है कि मां, हमारी प्राथमिकता सूची में ही नहीं है; न जन्म देने वाली मां और न पालने-पोषने में सहायक बनने वाली हमारी अन्य मातायें। भूले नहीं कि एक मां, हमारी नदियां भी हैं। इनमें भी सबसे खास हमने मां गंगा को माना है। मां से हम हमेशा कुछ-न-कुछ आंकांक्षा करते हैं। इस नवसंवत्सर पर मां गंगा को याद कर इसकी आंकांक्षाओं की पूर्ति हेतु जुटें।
मैं अक्सर सोचता हूं कि आखिर गंगा के ममत्व में कोई तो बात है, कि कांवरिये गंगा को अपने कंधों पर सवार कर वहां भी ले जाते हैं, जहां गंगा का कोई प्रवाह नहीं जाता। आखिर इस मां में ऐसा क्या है कि मातृसदन, हरिद्वार के शिष्य स्वामी निगमानंद और श्मशान घाट, वाराणसी के एक सन्यासी ने प्राण त्यागे। विद्यामठ, वाराणसी के कई सन्यासियों ने कठोर अनशन किया। प्रो जी डी अग्रवाल जैसा आई. आई. टी., कानपुर का प्रोफेसर.. विज्ञानी भी गंगा के संकट का समाधान विज्ञान की बजाय आस्था में खोजने को विवश हुआ; सन्यासी बना। अनशन से प्राणों पर घात की आशंका से दूसरे भले घबराते रहे, किंतु जी डी यही कहते रहे - ''गंगा मेरी मां है। मैं मां के प्राणों की कीमत पर अपनी प्राणरक्षा नहीं करना चाहता।''
ये इस 21वीं सदी के दूसरे दशक के लौकिक जगत के सच्चे अनुभव हैं। ''मैं तोहका सुमिरौं गंगा माई..'' और ''गंगा मैया तोहका पियरी चढइबै..'' जैसे गीत गंगा के मातृत्व के प्रति लोकास्था के गवाह हैं ही।
''अल्लाह मोरे अइहैं, मुहम्मद मोरे अइहैं,
आगे गंगा थामली, यमुना हिलोरे लेयं।
बीच मा खङी बीवी फातिमा,
उम्मत बलैया लेय.......दूल्हा बने रसूल।''
इन पंक्तियों को पढकर भला कौन नकार सकता है कि गंगा के ममत्व का महत्व सिर्फ हिंदुओं के लिए नहीं, समूचे हिंदोस्तान के लिए है।
गंगा का एक परिचय वराह पुराण में उल्लिखित शिव की उपपत्नी और स्कन्द कार्तिकेय की माता के रूप में है। दूसरा परिचय राजा शान्तनु की पत्नी और एक ऐसी मां के रूप में है, जिसने पूर्व कर्मों के कारण शापित अपने पुत्रों को तारने के लिए आठ में सात के पैदा करने के तुरंत बाद ही मार दिया। पिता राजा शान्तनु के मोह के कारण और शाप के कारण भी जीवित बचे आठवें पुत्र ने गंगादत्त, गांगेय, देवव्रत, भीष्म के नाम ने ख्याति पाई।
वाल्मीकि कृत गंगाष्टम्, स्कन्दपुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्मपुराण, अग्नि पुराण, भागवत पुराण, वेद, गंगा स्तुति, गंगा चालीसा, गंगा आरती और रामचरितमानस से लेकर जगन्नाथ की गंगालहरी तक.... मैने जहां भी खंगाला, गंगा का उल्लेख उन्ही गुणों के साथ मिला, जो सिर्फ एक मां में ही संभव हैं, किसी अन्य में नहीं। त्याग और ममत्व ! सिर्फ देना ही देना, लेने की कोई अपेक्षा नहीं। शायद इसीलिए मां को तीर्थों में सबसे बङा तीर्थ कहा गया है और गंगा को भी।
संत रैदास, रामानुज, वल्लभाचार्य, रामानन्द, चैतन्य महाप्रभु.. सभी ने गंगा के मातृस्वरूप को ही प्रथम मान महिमागान गाये। महाबलीपुरम्, अमरावती, उदयगिरि, देवगढ, भीतरगांव, दहपरबतिया, पहाङपुर, जागेश्वर, बोधगया, हुगली, महानद से लेकर भेङाघाट के चैंसठ योगिनी मंदिर आदि कितने ही स्थानों मंे गया। इनमें स्थापित गुप्तकालीन, शुंगकालीन, पालकालीन और पूर्व मध्यकालीन इतिहास प्रतिमाओं में कितनी ही प्रतिमायें गंगा की पाईं। कहीं यक्षिणी, तो कहीं देवी प्रतिमा के रूप में स्थापित इन गंगा मूर्तियों में मातृत्व भाव ही परिलक्षित होता है। कोई और भाव जगता ही नहीं।
इसी विश्वास को लेकर वर्ष - 2011 में मैने सोचा कि गंगा के मातृत्व को संवैधानिक दर्जा मिलना चाहिए; तभी गंगा का मातृत्व सुरक्षित रह सकेगा; तभी हम संतानों को गंगा के साथ मां जैसे व्यवहार के लिए बाध्य कर सकेंगे। जब मैने पहली बार यह मांग दिल्ली की एक बैठक में रखी, तो सरकारी अमले के नकारने से पहले एक छात्र ने ही इसे नकार दिया। मैं अवा्क रह गया। मुझसे कुछ उत्तर देते न बना। उसने कहा - ''गंगा में ऐसा क्या है ? मांग का समर्थन करना तो दूर, मुझे तो इसे मां कहने में भी शर्म आयेगी।'' फिर मैने यही सवाल उन्नाव में दादा की एक पोती से पूछा। वह गंगा माई को उसके घर में काम करने वाली महरी समझ बैठी। मैं सन्न रह गया। ऐसे एक क्यूं ने मेरे मन में सैकङों क्यूं खङे कर दिए। मेरे लिए यह जानना, समझना और समझाना जरूरी हो गया कि मेरी संतानें गंगा को मां क्यूं कहे।
तर्क मिले। लहलहाते खेत, माल से लदे जहाज और मेले ही नहीं, बुद्ध-महावीर के विहार, अशोक-अकबर-हर्ष जैसे सम्राटों के गौरव पल.. तुलसी-कबीर-नानक की गुरुवाणी भी इसी गंगा की गोद में पुष्पित-पल्लवित हुई है। इसी गंगा के किनारे में तुलसी का रामचरित, आदिगुरु शंकराचार्य का गंगाष्टक और पांच श्लोकों में लिखा जीवन सार - मनीषा पंचगम, जगन्नाथ की गंगालहरी, कर्नाटक संगीत के स्थापना पुरुष मुत्तुस्वामी दीक्षित का राग झंझूती, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, टैगोर की गीतांजलि और प्रेमचंद्र के भीतर छिपकर बैठे उपन्यास सम्राट ने जन्म लिया। शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की शहनाई की तान यहीं परवान चढी। आचार्य वाग्भट्ट ने गंगा के किनारे बैठकर ही एक हकीम से तालीम पाई और आयुर्वेद की 12 शाखाओं के विकास किया।
कौन नहीं जानता कि नरोरा के राजघाट पर महर्षि दयानन्द के चिन्तन ने समाज को एक नूतन आलोक दिया ! नालन्दा, तक्षशिला, काशी, प्रयाग - अतीत के सिरमौर रहे चारों शिक्षा केन्द्र गंगामृत पीकर ही लंबे समय तक गौरवशाली बने रह सके। आर्यभारत के जमाने में आर्थिक और कालांतर में जैन तथा बौद्ध दोनो आस्थाओं के विकास का मुख्य केन्द्र रहा पाटलिपुत्र! भारतवर्ष के अतीत से लेकर वर्तमान तक एक ऐसा राष्ट्रीय आंदोलन नहीं, जिसे गंगा ने सिंचित न किया हो। भारत विभाजन का अगाध कष्ट समेटने महात्मा गांधी भी हुगली के नूतन नामकरण वाली मां गंगा-सागर संगम पर ही गये - नोआखाली !
लेकिन भारत के लिए गंगा के ये सभी योगदान उस नौजवान और दादा की उस पोती के सवाल के उत्तर के रूप में मुझे संतुष्ट नहीं कर सके। असल उत्तर मुझे अतीत के पन्नों में ही मिला -
''यथा माता स्वयं जन्म मलशौच च कारयेत्।
कोडीकृत्य तथा तेषां गंगाप्रक्षालयेन्मलम।''
अर्थात जिस प्रकार से माता स्वयं बच्चे को जन्म देती है; उसके मल-मूत्र को साफ करती है; उसे गोदी में बिठाती है, उसी प्रकार गंगा भी.. मनुष्य कैसा भी नीच या पापी क्यों न हो, उसके मल-मैल को प्रक्षालित कर उसे पवित्र बना देती है। पद्मपुराण के इस श्लोक की तरह गंगालहरी भी गंगा को एक ऐसी मां के रूप में उल्लिखित करती है, जो ऐसे कुपूत को भी देखना चाहती है, जो कुत्ते की वृति धारण किए है; झूठ बोलता है; बुरी-बुरी कल्पनायें करता है; दूसरे की बुराई में संलग्न है और जिसका मुख कोई दूसरा देखना नहीं चाहता -
''श्ववृक्रिव्यासंगो नियतमथ मिथ्याप्रलपनं.....
नृते त्वत्को नामक्षणि मपि निरीक्षेत वदनम्।''
इन दो उत्तरों को आज हम सच होते देख रहे हैं। आज हम गंगा को मां कहते जरूर हैं, लेकिन हमारा व्यवहार एक संतान की तरह नहीं है। गरीब से गरीब आदमी आज भी अपनी गाढी कमाई का पैसा खर्च कर गंगा दर्शन को आता है, लेकिन गंगा का रुदन और कष्ट हमें दिखाई नहीं देता। हमारे कान गंगा का रुदन सुनने में असमर्थ ही रहते हैं। हमारा संबोधन झूठा है। हर हर गंगे ! की तान दिखावटी है; प्राणविहीन !
दरअसल हमने गंगा को अपनी मां नहीं, अपनी लालच की पूर्ति का साधन समझ लिया है; भोग का एक भौतिक सामान मात्र! मां को कूङादान मानकर हम मां के गर्भ में अपना मल-मूत्र-कचरा-विष सब कुछ डाल रहे हैं। अपने लालच के लिए हम मां को कैद करने से भी नहीं चूक रहे। हम उसकी गति को बांध रहे हैं। मां के सीने पर बस्तियां बसा रहे हैं। अपने लालच के लिए हम मां गंगा के गंगत्व को नष्ट करने पर उतारू हैं। हम भूल गये हैं कि एक संतान को मां से उतना ही लेने का हक है, जितना एक शिशु को अपने जीवन के लिए मां के स्तनों से दुग्धपान। हम यह भी भूल गये हैं कि मां से संतान का संबंध लाड, दुलार, स्नेह, सत्कार और संवेदनशील व्यवहार का होता है, व्यापार का नहीं। हमें गंगा मिलन के मेले याद हैं; स्नान और दीपदान याद हैं, लेकिन हम इन आयोजनों के मूल मंतव्य और मां गंगा अंतर्संबंध को भूल गये हैं।
जानबूझ कर की जा रही हमारी इन तमाम गलतियों के कारण मां गंगा गुस्साती जरूर है, लेकिन वह आज भी भारत के 37 प्रतिशत आबादी का प्राणाधार बनी हुई है। आज भी मां गंगा भारत की कुल सिंचित भूमि के 47 प्रतिशत खेतों को पानी पिलाकर जिंदा रखती है। आज भी गंगा भारत के पानी और पर्यावरण का माॅनीटर बनी हुई है। गंगा एक ऐसी मां है, जो खुद पर हो रहे तमाम अत्याचारों के बावजूद मृत्यु पूर्व दो बूंद स्तनपान की हमारी कामना की पूर्ति करने के लिए आज भी प्रस्तुत है।
दुनिया में नदियां बहुत हैं और मां भी बहुत। लेकिन गंगा जैसी कोई नहीं। क्या हम यह भूल जायें ? क्या ऐसी मां के मातृत्व की रक्षा हमारा दायित्व नहीं ? क्या ऐसी मां को आज हम मां मानने से इंकार कर दें ? क्या उस नौजवान और दादा की उस पोती के लिए इस पर कोई बहस संभव है ? लेकिन जो बहस संभव है, उसे मैं उसी सवाल के रूप में आज आपके सामने रख रहा हूं, जो मां गंगा ने अपने अवतरण से पूर्व भगीरथ से पूछा था - ''मैं इस कारण भी पृथ्वी पर नहीं जाऊंगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोयेंगे। हे पुत्र ! बताओ, तब मैं अपने पाप धोने कहां जाऊंगी ?'' सोचिए और मुझे भी बताइये। हो सकता है कि मैं आपका संदेशा मां तक पहुंचा सकूं।
विनम्र निवेदन : कहहु सुनहु करहु अब सोई। जइसे गंग पुनि सुरसरि होई।।
अरुण तिवारी
146, सुंदर ब्लाॅक, शकरपुर, दिल्ली-92
amethiarun@gmailcom
09868793799
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