ग्लेशियर पिघले। नदियां सिकुङी। आब के कटोरे सूखे। भूजल स्तर तल-वितल सुतल से नीचे गिरकर पाताल तक पहुंच गया। मानसून बरसेगा ही बरसेगा.. अब यह गारंटी भी मौसम के हाथ से निकल गई है। पहले सूखे को लेकर हायतौबा मची, अब बाढ़ की आशंका से कई इलाके परेशान हैं। नौ महीने बाद फिर सूखे को लेकर कई इलाके हैरान-परेशान होंगे। हम क्या करें ? वैश्विक तापमान वृद्धि को कोसें या सोचें कि दोष हमारे स्थानीय विचार.व्यवहार का भी है ? दृष्टि साफ करने के लिए यह पङताल भी जरूरी है कि पानी हमसे दूर हुआ या फिर पानी से दूरी बनाने के हम खुद दोषी है।
पलटकर देखिए। भारत का दस्तावेजी इतिहास 75,000 वर्ष पुराना है। आज से 50.60 वर्ष पहले तक भारत के ज्यादातर नगरों में हैंडपम्प थे, कुएं थे, बावङियां, तालाब और झीलें थी, लेकिन नल नहीं थे। अमीर से अमीर घरों में भी नल की चाहत नहीं पहुंची थी। दिल्ली में तो एक पुराना लोकगीत काफी पहले से प्रचलित था . ''फिरंगी नल न लगायो''
स्पष्ट है कि तब तक कुआं नहीं जाता था प्यासे के पास। प्यासा जाता था कुएं के पास। कालांतर में हमने इस कहावत को बेमतलब बना दिया। पानी का इंतजाम करने वालों ने पानी को पाइप में बांधकर प्यासों के पास पहुंचा लिया। बांध और नहरों के ज़रिये नदियों को खींचकर खेतों तक ले आने का चलन तेज हो गया। हमें लगा कि हम पानी को प्यासे के पास ले आये। वर्ष 2016 में मराठवाङा का परिदृश्य गवाह बना कि असल में वह भ्रम था। हमने पानी को प्यासों से दूर कर दिया।
हुआ यह कि जो सामने दिखा, हमने उसे ही पानी का असल स्त्रोत मान लिया। इस भ्रम के चलते हम असल स्त्रोत के पास जाना और उसे संजोना भूल गये। पानी कहां से आता है ? पूछने पर बिटिया कहेगी ही कि पानी नल से आता है, क्योंकि उसे कभी देखा ही नहीं कि उसके नगर में आने वाले पानी का मूल स्त्रोत क्या है। किसान को भी बस नहर, ट्युबवैल, समर्सिबल याद रहे। नदी और धरती का पेट भरने वाली जल सरंचनाओं को वे भी भूल गये। आंख से गया, दिमाग से गया।
पहले एक अनपढ़ भी जानता था कि पानी, समंदर से उठता है। मेघ, उसे पूरी दुनिया तक ले जाते हैं। ताल.तलैया, झीलें और छोटी वनस्पतियां मेघों के बरसाये पानी को पकङकर धरती के पेट में बिठाती हैं। नदियां, उसे वापस समंदर तक ले जाती हैं। अपने मीठे पानी से समंदर के खारेपन को संतुलित बनाये रखने का दायित्व निभाती हैं। इसीलिए अनपढ़ कहे जाने वाले भारतीय समाज ने भी मेघ और समंदर को देवता माना। नदियों से मां और पुत्र का रिश्ता बनाया। तालाब और कुआं पूजन को जरूरी कर्म मानकर संस्कारों का हिस्सा बनाया। जैसे.जैसे नहरी तथा पाइप वाटर सप्लाई बढ़ती गई। जल के मूल स्त्रोतों से हमारा रिश्ता कमजोर पङता गया। ''सभी की जरूरत के पानी का इंतजाम हम करेंगे।'' नेताओं के ऐसे नारों ने इस कमजोरी को और बढ़ाया। लोगों ने भी सोच लिया कि सभी को पानी पिलाना सरकार का काम है। इससे पानी संजोने की साझेदारी टूट गई। परिणामस्वरूप, वर्षा जल संचयन के कटोरे फूट गये। पानी के मामले में स्वावलंबी रहे भारत के गांव.नगर 'पानी परजीवी' में तब्दील होते गये।
हमारी सरकारों ने भी जल निकासी को जलाभाव से निपटने का एकमेव समाधान मान लिया। जल संसाधन मंत्रालय, जल निकासी मंत्रालय की तरह काम करने लगे। सरकारों ने समूचा जल बजट उठाकर जल निकासी प्रणालियों पर लगा दिया। 'रेन वाटर हार्वेस्टिंग' और 'रूफ टाॅप हार्वेस्टिंग' की नई शब्दावलियों को व्यापक व्यवहार उतारने के लिए सरकार व समाजण्ण् दोनो आज भी प्रतिबद्ध दिखाई नहीं देती। लिहाजा, निकासी बढ़ती जा रही है। वर्षा जल संचयन घटता जा रहा है। ’वाटर बैलेंस' गङबङा गया है। अब पानी की 'फिक्सड डिपोजिट' तोङने की नौबत आ गई है। भारत 'यूजेबल वाटर एकाउंट' के मामले में कंगाल होने के रास्ते पर है। दूसरी तरफ कम वर्षा वाले गुजरात, राजस्थान समेत जिन्होने भी जल के मूल स्त्रोतों के साथ अपने रिश्ते को जिंदा रखा, वे तीन साला सूखे में भी मौत को गले लगाने को विवश नहीं है।
जल के असल स्त्रोतों से रिश्ता तोङने और नकली स्त्रोतों से रिश्ता जोङने के दूसरे नतीजों पर गौर फरमाइये।
नहरों, नलों और बोरवैलों के आने से जलोपयोग का हमारा अनुशासन टूटा। पीछे.पीछे फ्लश टाॅयलट आये। सीवेज लाइन आई। इस तरह नल से निकला अतिरिक्त जल-मल व अन्य कचरा मिलकर नदियों तक पहुंच गये। नदियां प्रदूषित हुईं। नहरों ने नदियों का पानी खींचकर उन्हे बेपानी बनाने का काम किया। इस कारण, खुद को साफ करने की नदियों की क्षमता घटी। परिणामस्वरूप, जल-मल शोधन संयंत्र आये। शोधन के नाम पर कर्ज आया; भ्रष्टाचार आया। शुद्धता और सेहत के नाम पर बोतलबंद पानी आया। फिल्टर और आर ओ आये। चित्र ऐसा बदला कि पानी पुण्य कमाने की जगह, मुनाफा कमाने की वस्तु हो गया। समंदर से लेकर शेष अन्य सभी प्रकार के जल स्त्रोत प्रदूषित हुए; सो अलग। बोलो, यह किसने किया ? पानी ने या हमने ? पानी दूर हुआ कि हम ??
अरुण तिवारी
146, सुंदर ब्लाॅक, शकरपुर, दिल्ली-92
amethiarun@gmail.com
9868793799
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