वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

Breaking

बीती सदी में बापू ने कहा था

"किसी राष्ट्र की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से मापा जाता है कि वह अपने यहां जानवरों से किस तरह का सलूक करता है"- मोहनदास करमचन्द गाँधी

ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Jul 1, 2016

नदी जोड़ों परियोजना- कही प्राकृतिक विनाश का आमंत्रण तो नहीं ?



क्या नदियों को जोड़ देना ही समस्या का समाधान है


एक बार फिर केन-बेतवा नदी जोडऩे के बहाने केन्द्रीय मंत्री उमा भारती ने नदी जोड़ों परियोजना को हवा दे दी है। अबकि उमा ने केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना का जिक्र करते हुए कहा कि इस परियोजना में देरी करना राष्ट्रीय अपराध है। वे बोली कि जब मैं इसे राष्ट्रीय अपराध कह रही हूं तो मेरा आशय है कि इस परियोजना से मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश दोनों प्रदेशों के बुंदेलखंड क्षेत्र के 70 लाख लोगों की खुशहाली का मार्ग प्रशस्त होगा जिन्हें पानी की कमी, फसल खराब होने एवं अन्य कारणों से दिल्ली और अन्य महानगरों में पलायन करने को मजबूर होना पड़ता है, उन्हें महानगरों में बद्तर जिंदगी गुजारने और मजदूरी करने को मजबूर होना पड़ता है। यहां तक तो ठीक है लेकिन उमाजी ने इस परियोजना में होने वाली देरी पर अनशन की चेतावनी दे दी।

 बेशक लोकतंत्र की यही ताकत है। बुंदेलखंड की प्यासी जमीन और लाखों लोगों को राहत देने के लिए केन-बेतवा नदियों को जोडऩे के प्रस्ताव पर मंजूरी नहीं मिलने की स्थिति में अनशन सहित आंदोलन की घोषणा कर उमा क्या निशाना साधना चाहती है यह तो गर्भ में है। बताते है कि उमाजी ने अनशन का मन वन्यजीव मंजूरी मिलने में विलंब से क्षुब्ध होने के बाद बनाया है। वे इस विलंब के चलते ही रूष्ट होकर बोली कि पिछले काफी समय से इस परियोजना को वन्यजीव समिति की मंजूरी नहीं मिल पाई है। पर्यावरण मंत्रालय की वन्य जीव समिति के समक्ष केन-बेतवा संगम परियोजना विचाराधीन है, जबकि मंत्रालय ने हर एक बिन्दु को स्पष्ट कर दिया है, उस क्षेत्र में सार्वजनिक सुनवाई पूरी हो चुकी है। इस विषय पर पर्यावरण मंत्रालय अथवा मंत्री प्रकाश जावडेकर से भी कोई मतभेद नहीं है। बल्कि एक ऐसी समिति जिसमें कोई राजनैतिक व्यक्ति नहीं है, न कोई मंत्री है और कोई सांसद सदस्य है, वह समिति इसे मंजूरी नहीं दे रही है जबकि केन-बेतवा नदी क्षेत्र के लोग इसके पक्ष में हैं। 

इसके आगे वे बोली कि केन- बेतवा नदी जोड़ो परियोजना के आगे बढऩे से अन्य 30 नदी जोड़ो परियोजनाओं को आगे बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त होगा। अगर लाखों लोगों की खुशहाली सुनिश्चित करने वाली इस परियोजना को पर्यावरणविदों, एनजीओ की हिस्सेदारी वाली स्वतंत्र वन्यजीव समिति की मंजूरी में आगे कोई अड़चन आई तो बर्दाशत नही करेगी और अनशन पर बैठ जाएगी। बहरहाल एक केन्द्रीय मंत्री की इस पहल को लेकर आमजन में चर्चा और आशंका यह है कि आखिर उमाजी नमामी गंगे का राग अलापते- अलापते आखिर केन-बेतवा परियोजना को मंजूरी दिलाने का राग क्यों अपनाने लगी है। बता दे कि वे स्वयं जल संसाधन नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय की मंत्री हैं। नदी जोड़ परियोजना उनके मंत्रालय के तहत है और वह स्वंय बुंदेलखंड की चुनी हुई जन प्रतिनिधि हैं। साध्वी के इस हठ राग को लेकर चर्चा तो यह भी है कि कहीं वे नदी जोड़ परियोजना के बहाने खुद को उत्तरप्रदेश में स्थापित तो नही करना चाहती है। आगामी दिनों में यूपी में चुनाव होने है और इसी बहाने कहीं वे अपनी राजनीति चमकाना चाहती हो।

 बताते है कि जब से स्मृति ईरानी को यूपी में सीएम के रूप में प्रोजेक्ट करने की बाते चलने लगी है तब से तो उमा की निंदें ओर भी हराम है। अब तो यूपी की मुख्यमंत्री बनने के सपने भी आने लगे है। केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना के बहाने ही वह बुंदेलखंड़ के आवाम को भी साधती दिख रही है, तभी तो वह यह कहने से भी नही चुकी कि मैं बुंदेलखंड के लोगों का भी इस अनशन में हिस्सा लेने के लिए आह्वान करूंगी। नदी जोड़ो परियोजना नरेन्द्र मोदी सरकार की प्रतिबद्धता है और इसे पूरा किया जायेगा। सरकार ने इस क्षेत्र में पन्ना रिजर्व से जुड़े विषय पर ध्यान दिया है और बाघ एवं गिद्धों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भी प्रतिबद्ध है। पर्यावरणविदों की आपत्तियों पर तीखा प्रहार करते हुए उमा बोली कि अगर इनको पर्यावरण की चिंता है तो चिडिय़ाघरों पर आपत्ति क्यों नहीं उठाते। बांध की ऊंचाई कम करने के मामले में भी वह कहती है कि ऊंचाई के विषय पर कोई समझौता नहीं होगा। इस परियोजना से 70 लाख लोगों को फायदा होगा,जबकि 7 हजार लोग प्रभावित होंगे और वे दूसरी जगह जाने को तैयार है क्योंकि वे जिस क्षेत्र में रह रहे हैं वह अधिसूचित क्षेत्र हैं और उन्हें कई समस्याएं आती हैं। 

सवाल यह है कि सरकार में बैठे मंत्रियों,सांसदों को विभिन्न मंत्रालयों के बीच धीमी गति से चलने वाली फाइलों के लिए आंदोलन की चेतावनी देने की नौबत क्यों आ जाती है। नदियों के जल के सही उपयोग और लाखों लोगों की जीवन रक्षा जैसे प्रस्तावों पर महीनों तक अड़ंगेबाजी क्यों होती है। बुंदेलखंड और मराठवाड़ा में किसान-पशु मरते हैं और लालफीताशाही के कारण योजनाएं लटकी रहती हैं। बिहार हो या पूर्वोत्तर राज्य या चाहे हिमाचल प्रदेश या उत्तराखंड, पर्यावरण की रक्षा के लिए समुचित कदम कहीं भी नहीं उठाए गए हैं। भारत सरकार चाहे विदेशी भूगर्भ विज्ञानियों की रिपोर्ट पर आपत्ति एवं खंडन कर दे, लेकिन असलियत तो यही है कि बढ़ते प्रदूषण से भारतीयों की औसत उम्र करीब 6 वर्ष कम हो रही है। कुछ इलाकों में यह और अधिक होगी। अमेरिकी भूगर्भ विज्ञानी संस्थान के अध्ययन में कोई राजनीतिक पूर्वाग्रह नहीं हो सकता है। 

जरूरत है तो सिर्फ सर्वोच्च स्तर पर पर्यावरण एवं पशु संरक्षण के लिए कारगर कदम उठाए जाने की न कि अनशन जैसी बचकानी हरकतों की। खैर उमा भारती, केन-बेतवा नदी जोड़ो की गुगली फेंक कर क्या अर्जित करना चाहती है यह कहना तो कठिन है लेकिन इसमें दो राय नही है कि नदियों को जोडऩे का काम आसान नही है। नदी जोडऩे की परियोजना देश की सिंचाई, बाढ़ और खाद्य संकट जैसी बहुत सी समस्याओं को खत्म कर सकती है लेकिन यह इतना भी आसान नही है जितना हमारे राजनेता समझते है। बता दे कि नदियों को जोडऩे की चर्चा देश में रह-रह कर उठती रही है। यह सिलसिला 1970 के दशक से लगातार चल रहा है। उन दिनों गंगा को कावेरी से जोडऩे की बात होती थी और अब लगभग 30 नदियों को जोडऩे का प्रस्ताव है जिनमें से केन- बेतवा नदी जोड़ो परियोजना भी एक है।

 इन सभी नदियों को जोडऩे के प्रस्ताव पर सन् 2002 में उच्चतम न्यायालय ने एक तरह से मुहर लगा दी थी और तभी से इस मुददे ने एक राजनीतिक रूप भी ले लिया है। यह एक सच है कि नदी जोड़ो जैसी महत्वाकांक्षी परियोजना के माध्यम से देश में सिचांई और बाढ़ की समस्या को हमेशा के लिए खत्म करने का दावा और संकल्प जुड़ा हुआ है। इस हिसाब से देखे तो नदी जोड़ो योजना ऐसी है, जिससे आप बहुत सी उम्मीदें बांध सकते हो। इससे हम देश की खाद्य समस्या के हल होने की आशा भी पाल सकते है। पर असल सवाल तो यह है कि आखिर मोदी सरकार लगभग 5.6 लाख करोड़ रूपये की नदी जोड़ो योजना के लिए संसाधन कहां से जुटाएगी, यही सवाल पिछले 13 सालों से उठता रहा है। इस बीच लागत संभवत: 22-25 लाख करोड़ तो हो ही गई है। सबसे पहला और अहम प्रश्र तो यही है कि क्या सरकार ने इसके लिए धन का प्रबंधन कर लिया है? अगर कर भी लिया है तो इसके पूरा होने का लक्ष्य भी तय कर लिया होगा। बताया जाता है कि नदी जोड़ो योजना को सन् 2016 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया था जो अब 2030 तक भी पूरा होते नही दिखाई दे रही है। इस योजना के लक्ष्य को देखते हुए केन्द्र सरकार ने धन का प्रबंधन कर भी लिया हो, तब भी इसके क्रियान्वयन में संदेह है। काबिलेगौर हो कि इस योजना के संबंध में पंजाब और केरल पहले ही अपनी नाराजगी जाहिर कर चुका है। इन दोनों राज्यों ने नदी जोड़ योजना के विरोध में ही अपना मत दिया था। इसके साथ ही बिहार का भी यही कहना था कि पहले अपनी नदियों को जोडक़र उसके परिणाम देखेगें उसके बाद ही राष्ट्रीय स्तर पर इसका समर्थन करेगा, और वह भी तब जब उसके पास अपनी जरूरतों के अतिरिक्त पानी बचेगा। कुछ इसी तरह का जवाब असम का भी था और वह इस योजना को लेकर ज्यादा उत्साहित नही था, यह बात दीगर है कि अब असम में भाजपा की सरकार है।

 यह भी ध्यान देने काबिल है कि असम और बिहार ऐसे दो राज्य है जिनके पास देश में अतिरिक्त पानी उपलब्ध होने की बात कही जाती है। असल में नदियों को जोडऩे के पीछे जो मकसद बताया जा रहा है वह यह है कि देश की नदियों में कहीं बाढ़ तो कहीं सुखाढ़ पड़ा है अगर नदियों को जोड़ दिया जाएगा तो सिंचाई का रकबा भी बढ़ जाएगा, लेकिन सच तो यह है कि नदियों में तेजी से पानी घट रहा है। बिहार के सहरसा और खगडिय़ा जैसे जिलों में आज से कोई दस साल पहले बाढ़ ने अपना घर बना लिया था लेकिन अब यहां वर्षा 1300 मिलीमीटर से घटकर 1000 मिलीमीटर तक आ गई है ,इस कारण वहां की नदियों का जल स्तर भी कम होना पाया गया है, इसकी किसी को कोई चिंता नही है। असल सवाल तो यही है कि जब नदियों में पानी ही नही होगा तो नदियों को जोडक़र भी क्या कर लेगें। बहरहाल हम नदियों को जोडऩे का काम शुरू कर भी दे तो इसकी क्या गारंटी की इस योजना का हर राज्य समर्थन ही करेगा। नदी जोड़ परियोजना के मामले में हम थोड़ा अतीत में झांककर देखते है। ज्ञात हो कि पुनर्वास और तटबंधो के रेखांकन को लेकर व्यापक जन-आक्रोश के कारण 1956 के अंत में कोसी नदी के निर्माणाधीन तटबंधों का काम रोक देना पड़ा था। तब यह सवाल बिहार विधानसभा में भी उठा था और उस समय सरकार ने सदन को बताया था कि जन विरोध के कारण काम बंद कर देना पड़ा। इसके साथ ही सदन में यह भी कहा गया कि 1957 के आम चुनाव के बाद जब समुचित मात्रा में पुलिस बल उपलब्ध हो जाएगा, तब काम फिर से शुरू कर दिया जाएगा। यह एक सच है कि कोसी तटबंधों के निर्माण का काम पुलिस की देखरेख में ही हुआ था, इसके लिए अनेक लोगों को जेलों भी ठुंसा गया था। यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति नदी जोड़ योजना को लागू करने में नही होगी। गर ऐसा विवाद नही भी खड़ा हो तब भी हम नदी जोड़ों योजना की अनियमितताओं को लेकर राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की 1980 की रिर्पोट पर नजरे इनायत करना नही भुले। इस रिर्पोट के अनुसार बाढ़ की सारी बहस और जानकारी यूपी , बिहार , असम , ओडि़सा और पश्चिम बंगाल के इर्द- गिर्द ही घुमती थी, इसमें महाराष्ट्र , गुजरात , कश्मीर , राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्यों की गिनती ही नही होती थी। लेकिन अब ऐसा नही है, अब बाढ़ की कहानी इन्हीं प्रांतों से शुरू होती है और यहीं पर खत्म हो जाती है। यहां यह भी जानना जरूरी है कि सन् 1952 में देश का बाढग़्रस्त क्षेत्र 250 लाख हेक्टेयर था, जो केन्द्रीय जल आयोग के अनुसार अब बढक़र 500 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है। इस आंकडें को देखते हुए इतना तो अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है कि बाढ़ नियंत्रण या प्रबंधन को लेकर अब तक जितना भी काम किया गया और पैसे लगाए गए , उसने फायदे कि जगह नुकसान ही पहुंचाया है। इस गलत पूंजी निवेश के कौन लोग उत्तरदायी है, इसकी तो आज तलक कहीं चर्चा नही हुई है। हैरान करने वाली बात तो यह है कि इस पर चर्चा भले ही न कि हो लेकिन इस बात पर भी विचार नही किया जा रहा है कि अगर नुकसान हुआ है तो कम से कम अब तो ऐसे काम न किए जाए। इस तरह के काम बंद कर दिए जाए जिससे आम जनता की पूंजी का नुकसान हो रहा हो।

 जो लोग नदियों के जुडऩे के बाद सिंचाई का रकबा बढऩे की बात करते है उनके लिए भी केन्द्र सरकार की रिर्पोट आईना दिखाने का काम करती है। असल में सिंचाई के क्षेत्र में देश में जितनी भी उपलब्धता है वह एक सीमा पर आकर ठहर गई है, इस बात का समर्थन स्वंय सरकार की रिर्पोटें भी करती है। रिर्पोर्टों के अनुसार 1991 से 2006 के बीच बड़ी और मध्यम आकार की सिंचाई परियोजनाओं पर प्राय: दो लाख करोड़ रूपये खर्च हुए और सिंचाई का रकबा इतने निवेश के बाद भी आगे खिसका ही नही। ऐसे लगता है अब जो कुछ उम्मीद बची है वह नदी जोड़ योजना पूरी करेगी। चिंता का सबब तो यह है कि इस योजना को देश की बाढ़ और सिंचाई समस्या का आखिरी समाधान बताया जाता है लेकिन अब तक की बिना किसी उत्तरदायित्व के बनी योजनाओं का जो हश्र हुआ है, उसकी पृष्ठभूमि को देखते हुए यह डऱ लगना लाजिमी है कि अंतिम समाधान कहीं पुरानी बातों पर पर्दा ड़ालने के काम आया तो देश की कृषि व्यवस्था किस खाई में गिरेगी, इसकी कल्पना भी भयावह है। नदी जोड़ योजना का राग अलापने वाले हमारे नेता फिर भी यह मानने को तैयार नही है कि यह समस्या का समाधान नही है। 


संजय रोकड़े 
103, देवेन्द्र नगर अन्नपूर्णा रोड़ इंदौर
 संपर्क-09827277518
ईमेल- mediarelation1@gmail.com

11 comments:

  1. Great post!I am actually getting ready to across this information,i am very happy to this commands.Also great blog here with all of the valuable information you have.Well done,its a great knowledge.

    ccna training in chennai mylapore

    ReplyDelete
  2. This information is impressive; I am inspired with your post writing style & how continuously you describe this topic. After reading your post, thanks for taking the time to discuss this, I feel happy about it and I love learning more about this topic.
    Hadoop Training Chennai

    ReplyDelete
  3. I am deeply attracted by your post. It is really a nice and informative one. I will recommend it to my friends.waiting for further updates..This is a great post! As a new blogger myself, I search for new ways to attract new people to read my blog.
    I know it takes time and dedication

    ReplyDelete
  4. hi, nice information is given in this blog. Thanks for sharing this type of information, it is so useful for me.digital marketing company in delhi

    ReplyDelete

आप के विचार!

जर्मनी द्वारा अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार "द बॉब्स" से सम्मानित पत्रिका "दुधवा लाइव"

हस्तियां

पदम भूषण बिली अर्जन सिंह
दुधवा लाइव डेस्क* नव-वर्ष के पहले दिन बाघ संरक्षण में अग्रणी भूमिका निभाने वाले महा-पुरूष पदमभूषण बिली अर्जन सिंह

एक ब्राजीलियन महिला की यादों में टाइगरमैन बिली अर्जन सिंह
टाइगरमैन पदमभूषण स्व० बिली अर्जन सिंह और मैरी मुलर की बातचीत पर आधारित इंटरव्यू:

मुद्दा

क्या खत्म हो जायेगा भारतीय बाघ
कृष्ण कुमार मिश्र* धरती पर बाघों के उत्थान व पतन की करूण कथा:

दुधवा में गैडों का जीवन नहीं रहा सुरक्षित
देवेन्द्र प्रकाश मिश्र* पूर्वजों की धरती पर से एक सदी पूर्व विलुप्त हो चुके एक सींग वाले भारतीय गैंडा

Post Top Ad

Your Ad Spot