भारत के उत्तर-पूर्व के वनवासी उनकी अपनी पारंपरिक पद्धतियों ‘झूम सभ्यता’ या शिकार के कारण बहुत समय से प्रकृति के कथित विरोधी माने जाते हैं. वन्यजीव-वैज्ञानिक और मीडिया दोनों ने अनजाने ही इस रूढ़िवादिता में अपना भरपूर योगदान दिया है.
जैसा हम जानते ही हैं कि सच कहीं इसी के बीच है. उदाहरण स्वरूप, हम जानते हैं ‘झूम’ या खेती को काटने-जलाने की पद्धति हानिकारक नहीं है, परंतु लगातार ज़मीन के एक टुकड़े से दूसरे पर स्थानांतरण या ‘झूम’ का घटता चक्र पारिस्थितिकी के विनाश की ओर ले जाता है. इसी तरह वन्यजीव संरक्षण को कुछ बड़े खतरे उनके प्राकृतिक वास को सड़क और बड़े बांध निर्माण के लिए उजाड़ने से हैं. जबकि शिकार करना उस बड़े विनाश का कुछ ही अंश होगा. और तब भी जैव विविधता संबंधी बड़ी विकास परियोजनाएं जिनकी संरक्षण साहित्य में चर्चाएं होतीं हैं, उनका प्रभाव हम कम ही पाते हैं.
वास्तव में ‘शिकार’ विषय ने हमेशा ही वाद-विवाद खड़ा किया है. उदाहरण बतौर भारतीय वन्यजीव संस्थान के शोधार्थियों द्वारा प्रबंधित 2013 की शोध लीजिए, शीर्षक था: विनाश के संकट तथा शिकार हेतु असामान्य वन्यजीवन जीरो वैली में, अरुणाचल प्रदेश, भारत, जो दावा करता है कि, अपतनी जनजाति द्वारा अधिकृत क्षेत्र में शिकार करना हमेशा से ही प्रधान रहा और यह प्रजाति के जीवन को लंबे समय से प्रभावित कर रहा था. अपतनी प्रजाति के सामुदायिक संगठन ने कई असहमति जताईं और उनके समुदाय को इस प्रजाति के विनाश के लिए जिम्मेवार ठहराया, इसके लिए.
इसी तरह की कई भ्रांतियों और रूढ़ियों को हटाने के लिए असम के तेजपुर में ‘ग्रीन हब’ को प्रतिष्ठित किया गया था, यह अपनी ही तरह का एक संस्थान है, जो उत्तर-पूर्व के लोगों की जाहिर कहानियां सुनाता है. हर साल उत्तर-पूर्व के इन आठ राज्यों में से 20 युवकों को एक निराली अध्येतावृत्ति के लिए ‘ग्रीन हब’ द्वारा चुना जाता है – विडियो प्रलेखीकरण प्रशिक्षण के लिए, जो कि विशेष रूप से वन्यजीवन, पर्यावरण व जैवविविधता पर केंद्रित होता है.
इस ग्रीन हब उत्सव की पूरी सोच वन्यजीव फिल्मनिर्माता रीता बनर्जी की है. बनर्जी कहतीं हैं, ”ग्रीन हब का विचार दो प्राथमिक चीजों को दर्शाने के लिए था – पहला, उत्तर-पूर्व के युवाओं को निराशा और हिंसा से दूर करके उनके लिए नया रास्ता खोलने का; और प्रकृति के प्रति उनके प्रेम और आदर को पुनर्जीवित करने का, जो उनके उचित भविष्य का एक प्रबल आश्वासन है.
वे आशा करती हैं कि इस केंद्र पर एक साल बिताने के बाद, सभी युवक प्रेरित व ऐसे तकनीकी ज्ञान से सज्जित होकर अपने समुदायों में लौटेंगे, जो उन्हें संरक्षण के प्रति कदम बढ़ाने के लिए प्रबलता से प्रेरित करेगा!!...
कुछ समय पूर्व बनर्जी ने क्षेत्र की शिकार की पद्धतियों पर फिल्म बनाई थी जिसने उन्हें क्षेत्र में लंबे समय के अनुबंध के लिए प्रेरित किया. वे कहतीं हैं, उनकी फिल्म “द वाइल्ड मीट ट्रेल” “ने हमें क्षेत्र में व्याप्त जटिलता को समझने में मदद दी, समुदायों और प्राकृतिक संसाधनों से उनके जुड़ाव, खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से इसके ऊपर निर्भरता, चाहे कृषि-जैव विविधता हो, जंगली मांस या जंगली पौधे, और विकास के मानक प्रतिमान के साथ देशी तंत्र पर तीव्र गति से होने वाले उसके प्रभाव को. समुदायों के साथ उनके गांवों और जंगल में समय बिताने ने हमें समझने में मदद दी जो ज्ञान उनमें सन्निहित है, और इसके साथ ही यह दिखाया जंगली शिकार का विस्तार इन जंगलों को खामोश करता जा रहा था.”
उनकी इस परिकल्पना को आगे बढ़ाने में सामाजिक कार्यकर्ता मोनिषा बहल ने मदद की, जो कि उत्तर-पूर्व समूह की सहसंस्थापक हैं, उन्होंने बनर्जी को इस कोर्स के लिए तेजपुर, असम का अपना पैतृक घर प्रस्तुत किया. ग्रीन हब के वार्षिकोत्सव में जिन विद्यार्थियों ने कोर्स पूरा किया उनका अभिनंदन करने, मैं न्य्शी जनजाति की सीतल से मिली, जिसने बेहतरीन फिल्मों में से एक फिल्म बनाई, धनेश पर, अरुणाचल प्रदेश के टेलो अंथोनी और हिस्किया संगमा ने हर शाम अपनी गायकी का शानदार प्रदर्शन इस समूह में किया. जितने विद्यार्थियों से मैं मिली वे सभी विविध पृष्ठभूमियों से थे, पर इकट्ठा थे दृश्य माध्यम और प्राकृतिक संसार के प्रति उनके लगाव की वजह से.
मुख्य मीडिया द्वारा क्षेत्र के चित्रण से उत्तर-पूर्वी भारत ने हमेशा ही अपकृत महसूस किया है. आखिरकार क्षेत्र के लोगों को उनकी ही कहानी सुनाकर लहरों का रुख मोड़ने का यह एक प्रयास है. पूरे क्षेत्र में संरक्षण पर बहुत ही अभूतपूर्व काम किया जा रहा है – वन्यजीव बचाव और पुनरुद्धार से पारंपरिक पुनरुत्थान और देशी संस्कृति को पुनर्जीवित करके. शायद ‘ग्रीन हब’ की सबसे बड़ी ताकत है उसका भौगोलिक स्थान. यहां पाई जाती हैं पृथ्वी और उसके लोगों की कहानियां, जो बताई जाना ज़रूरी है.
- बहार दत्त (‘प्राकृतिक संरक्षण’ जीवविज्ञानी हैं. तेजपुर, असम में आयोजित ‘ग्रीन हब वार्षिकोत्सव’ में विशेष आमंत्रित).
अनुवाद: रूपल अजबे (सामाजिक कार्यकर्ता, गांधी विचार से प्रेरित, गांधी शान्ति प्रतिष्ठान नई दिल्ली से सम्बद्ध, इनसे आप rupalajbe@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं )
नोट- यह लेख मूलरूप से अंग्रेजी भाषा में मिंट (MINT)अखबार में २७ मई २०१६ को प्रकाशित हुआ है .
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