कठना नदी-
नदियां हमारी संस्कृतियों की धरोहर हैं
अवध की तमाम कहानियों को संजोएँ है कठना नदी
गूगल मैप कठना नदी को बता रहा है गोमती नदी
कठ्ना जहां औरंगजेब के वक्त छिप्पी खान का था आतंक
तराई की जलधाराएं जो पूरी दुनिया में अद्भुत और प्रासंगिक हैं, क्योंकि इन्ही जलधाराओं से यहाँ के जंगल हरे भरे और जैव विविधिता अतुलनीय रही, यहाँ हिमालय से उतर कर शारदा घाघरा जैसी विशाल नदियां तराई की भूमि को सरोबार करती है अपने जल अमृत से, तो गोमती, पिरई, चौका, सरायन, जमुहारी, सुहेली और कठना जैसी जंगली नदियाँ जंगल और कृषि क्षेत्र में जीवन धाराओं के तौर पर बहती रही हैं, सबसे ख़ास बात है की ये नदियाँ गोमती गंगा जैसी विशाल नदियों को पोषित करती है ताकि गंगा बंगाल की खाडी तक अपना सफ़र पूरा कर सके.
शाखू के जंगलों से गुजरते हुए यह जलधारा बन गयी कठना
आज हम बात कर रहे हैं काठ के जंगलों से निकले वाली कठ्ना की, एक खतरनाक कौतुहल पैदा करने वाली जंगली नदी, शाहजहांपुर के खुटार के नज़दीक स्थित मोतीझील से निकलती है, और 10 मील का सफ़र तय करने के बाद खीरी जनपद में पहुँचती है, मैलानी, फिर दक्षिण खीरी के जंगलों से गुजरते हुए मोहम्मदी मितौली के आस पास से गुजरती हुई लगभग १०० मील का रास्ता तय करने के बाद सीतापुर जनपद में आदि गंगा गोमती में विलीन हो जाती है, इसके १०० मील की लम्बी जलधारा जो घने जंगलों से गुजरते हुए कई किस्से कहती है, शाखू आदि के बड़े वृक्षों की वजह से इस जल धारा में लकड़ी का व्यापार भी हुआ मुगलों के वक्त और काठ के जंगलों से गुजरने के कारण यह जलधारा कठ्ना बन गयी.
अंग्रेजों ने इस नदी पर बनवाये एतिहासिक विशाल पुल
अंग्रेजों ने इस नदी पर विशाल एतिहासिक पुल भी बनवाये, हालांकि पूर्व में मुगलों के दौर में भी इस पर गोला मोहम्मदी, मुहम्मदी-लखीमपुर, औरंगाबाद- मितौली आदि के मध्य में इस जलधारा पर भी लकड़ी के पुल बने जो अब नदारद है, ब्रिटिश हुकूमत में इस नदी पर कुछ एतिहासिक पुल बने जिसमे मोहम्मदी से गोला मार्ग पर बना पुल योरोपियन वास्तुकला का अद्भुत नमूना है.
छिप्पी खान के आतंक के साए में कठ्ना
मोहम्मदी क्षेत्र में एतिहासिक बड़खर में बाछिलों का साम्राज्य रहा, इन राजपूतों ने स्वयं को राजा वेना अर्थात राजा विराट के पुत्र राजा वेना का वशंज बताया है, और कठ्ना-गोमती से कठ्ना-शारदा के भूभाग पर बहुत समय तक राज किया, औरंगजेब के समय बाछिल राजा छिप्पी खान जो की मुस्लिम बन गया था, बागी हो गया, जिसका आतंक पूरे कठ्ना के जंगलों और रिहाइशी इलाकों में बसने वाले लोगों में व्याप्त था, कहते है युद्ध में इसने इतनी मारकाट की इसके पूरे वस्त्र खून से सरोबार थे सो दिल्ली के बादशाह औरंगजेब ने इसे छिप्पी खान का खिताब दिया.
डाकू भगवंत सिंह और कठ्ना
छिप्पी खान के बाद राजपूत भगवंत सिंह का आतंक भी कठ्ना की सरहदों ने झेला, उसके घोड़े की टापों से कठ्ना के क्षेत्र दहशतजदा रहे, इसकी मौत के बाद अटवा-पिपरिया की सारी जागीर इसकी पत्नी ने करमुक्त कर दी जो बाद में ईस्ट इंडिया कम्पनी सरकार के द्वारा एनेक्शेसन के बाद लगान आदि कर में सम्मलित हुई, बाद में यह जागीर १८५७ के बाद अंग्रेजों ने खरीद ली या उन्हें रिवार्ड के तौर पर दे दी गयी.
उपरहर और भूड़ की जमीनों को करती रही सिंचित
दरअसल कठना चूँकि घने जंगलों से गुजरती है, और बारिश में लाखो हेक्टेयर जंगली क्षेत्रों का पानी इस नदी में गिरता था, और जमीन में ढलान के कारण इसकी जलधारा का वेग बहुत अधिक रहा, सो खेती की जमीन को सिंचित करने का कोइ औचित्य नही था, पर ब्रिटिश भारत में जंगलों के अत्यधिक कटान से नदी के आस पास गाँव बसने लगे, बाद में आजाद भारत में तो यह जंगली क्षेत्र उडती धूल के मैदान बने और इंसान बसता चला गया, आज कठ्ना के किनारे सैकड़ों गाँव और हज़ारो हेक्टेयर कृषि भूमि आबाद हो गयी.
एक और बात कठना एक तरह से तराई और उपरहरि के भू क्षेत्र को अलग करती है, कठना के उत्तरी भूभाग हिमालय की तराई की तरफ फैले हुए है और दक्षिणी भूभाग गंगा के मैदानी भू क्षेत्रों की तरफ.
१८५७ की क्रान्ति की कहानी भी कहती है यह नदी
कठ्ना के किनारों के घने जंगलों ने जहां डाकुओं को छिपने की जगह दी, वही १८५७ के विद्रोह में क्रांतिकारियों को रहने की जगह दी, ये क्रांतिकारी कठ्ना की जलधारा में टिम्बर व्यवसाय के कारण लकड़ी के चलायमान टटरों पर एक जगह से दूसरी जगह तक चले जाते, इसकी सरहदों पर अंग्रेजों की सेनाओं से जंगलों में छुप कर रहते, एक और कहानी जुडी है इस कठ्ना के मितौली के पास बने हुए पुल के समीप की, कहते है की जब १८५७ में राजा लोने सिंह आफ़ मितौली ने अवध की बेगम हज़रत महल के साथ मिल कर कम्पनी सरकार के विरुद्ध क्रान्ति का बिगुल फूंका तो पूरे इलाके में आग सी लग गयी अंग्रेजों के विरुद्ध, और यह मितौली राज्य और कठ्ना के जंगल कम्पनी सरकार से मुक्त हो गए तकरीबन एक वर्ष से अधिक समय के लिए, किन्तु अंग्रेजों की फौजे कानपुर और लखनऊ से चलकर शाहजहांपुर होते हुए नवम्बर १९५८ में सर कॉलिन कैम्पबेल और मेजर टाम्ब की कमान में मितौली पहुँची तो राजा लोने सिंह ने अपने मितौली गढ़ से अपनी तोपों से एक रात और एक दिन तक अंग्रेजों की फौजों से लोहा लेते रहे, फिर किवदंती कहती है की राजा की मुख्य तोप लछमनिया ने जवाब दे दिया और वह कठना नदी में जा गिरी, लोगों में आज भी यह किवदंती जीवंत है की राजा की तोप आज भी होली दिवाली कठना से निकलकर दगती है जिसकी आवाज आसपास के ग्रामीण इलाकों में सुनाई देती है. खैर जो भी हो उस वक्त जब राज्य पर ख़तरा मडराता था तो राज्य की धन संपत्ति असलहे तोपे आदि नदियों कुओं और जंगलों में छुपा दिए जाते थे, राजा लोने सिंह ने भी यही किया होगा, कुछ बुजुर्ग बताते है की हाथियों और बैलगाड़ियों पर रानी साहिबा के साथ बहुत सा खजाना मितौली गढ़ी से कठ्ना नदी के जंगलों में भेजा गया और जिन लोगों के साथ यह खजाना गया उन्होंने कठ्ना के किनारे कई संपन्न गाँव बसा लिए क्योंकि मितौली राज्य अंग्रेज सेनाओं ने ध्वस्त कर दिया था और राजा को गिरफ्तार.
गूगल मैप कठना नदी को बता रहा है गोमती नदी
अवध की इस एतिहासिक नदी को गूगल अपने मैप में दिखा रहा है गोमती, इस सन्दर्भ में अभी तक शासन और प्रशासन ने कोइ सुध नही ली, भारत के भूभागों और जंगलों नदियों आदि की सही सैटेलाईट मैपिंग न होना दुर्भाग्यपूर्ण है, और जनमानस को भ्रमित करने वाली भी.
प्रदूषण और कृषि ने कठना के स्वरूप को बिगाड़ा
एक तेज रफ़्तार, पानी से लबालब भरी नदी अब एक पतली विखंडित जलधारा के स्वरूप में है, वजह कठना के आसपास घने जंगलों को काटकर कृषि भूमि में तब्दील कर देना, जगह जगह औद्योगिक कचरे को कठना में डालना, खेतों की रासायनिक उर्वरक, कीटनाशकों का बहकर नदी में गिरना, इसके जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को बिगाड़ दिया है, जिस कारण न जाने कितनी प्रजातियाँ यहाँ से नष्ट हो गयी, और नदी के किनारों के वृक्षों की कटाई ने भी इसके सौन्दर्य को बिगाड़ दिया है, अब यह नदी बरसात के अलावा सिर्फ सूखे नाले के तौर पर धरती पर एक सूखी लकीर बन जाती है.
कभी बाघों और तेंदुओं का बसेरा थे कठ्ना नदी के किनारें
दक्षिण खीरी के घने जंगलों के मध्य बहती इस जलधारा में बाघ और तेंदुओं की अच्छी तादाद थी, और यह बात साबित करती है, राजाओं और अंग्रेजों की शिकार की कहानियां, कठ्ना नदी के परिक्षेत्र में कभी राजा महमूदाबाद ने मैनहन गाँव में एक विशाल बाघ का शिकार किया था वह जगह आज बघमरी बोली जाती है, मितौल गढ़ पुस्तक में राजा लोने सिंह के भाई के नाम से बसे खंजन नगर में अंग्रेजों की शिकारगाह थी जहां अंग्रेज मेमे और उनके अतिथि इन बाघ तेंदुओं का शिकार करते थे, दुधवा नेशनल पार्क के संस्थापक डाइरेक्टर राम लखन सिंह ने भी कठ्ना की बाघिन का जिक्र किया है अपनी किताबों में, आज भी कभी कभी ये बाघ तेंदुओं अपने पूर्वजों की इस नष्ट हो चुकी विरासत में आ जाते है, इस तरह कठ्ना की इस दुर्दशा ने जंगल और जंगली जीवों की दुर्लभ प्रजातियों को भी नष्ट कर दिया यहाँ से.
कृष्ण कुमार मिश्र
(लेखक जीव विज्ञानी, स्वतंत्र पत्रकार, व् दुधवा लाइव अन्तराष्ट्रीय पत्रिका के संस्थापक संपादक है )
Mishra jee, Thanks for sharing such rarest historical facts described in beautiful way...
ReplyDeleteVery very good article, which come to know how these are having a lot of importance in our life... Kumar Ji you are having an absolutely write-up here.
ReplyDeleteIt's really informative
ReplyDeleteIt's really informative
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