20 मार्च, गौरैया दिवसपर
गौरैया
गौरैया
तुम मेरी अन्तश्चेतना का
सह अस्तित्व हो
अपने बड़े-बड़े घर बनाने की धुन में
तुम बेघर हो गई हो मेरी गौरैया
ओ मेरी भूली/बिसरी दुनिया
नहीं जान सकी
तुम मेरे होने का अर्थ हो !
खोया हुआ अर्थ हो !!
गौरैया तुम मेरा विस्मृत लोक राग हो
नागर संस्कृति के
आत्मघाती मकड़जाल में
जहाँ घरों के रोशनदानों में
एसी लग गये हैं
मुख्य द्वार पर
कुत्तें से सावधान रहने की लग गई हैं पट्टिकाएँ
तुम्हारे बेधड़क घर आने की सौ-सौ बाधाएँ
किन्तु मानुष्य-मन में बसी हो तुम
अपरिचय की परिचय भरी प्रीति-सी !
जानती हूँ दबे पाँव पर आओगी तुम
दीवार में जब कोई खिड़की खुलेगी............
दाना पानी होगा मुडे़र पर
और ऊब होगी जब शिखर पर
चांहना होगी खुले आकाश की
गौरैया तुम मेरी अगोचर लोक चेतना का
सोया आदिम राग हो
मेरी गुप्त गोदावरी हो
खोई हुई मेरी पहचान हो
और हो अनंत यात्रा का
पहला पड़ाव !
बुलाती हूँ तुम्हें मैं
लौटो घर
घर सदैव का तुम्हारा है: कल भी, आज भी-
और आज के बाद भी ................!
-डाॅ0 निरुपमा अशोक,
प्राचार्या
भगवानदीन आर्यकन्या स्ना0महा0,
लखीमपुर-खीरी, उ0प्र0
20 मार्च, 2013
bakpgcollege@gmail.com
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