बचपन की यादों में गौरैया प्राणसखी को तरह रची-बची है। वैसे तो गौरैया गाँव-शहर घर-वन सब जगह है पर गाँव घर की तो महारानी है। मेरा बचपन गाँव में बीता। शारदा नदी के किनारे प्रकृति की सुरम्य गोद में बसा मेरा प्यारा गाँव और उसमें लकड़ी की धन्नी, बल्ली, थमरिया पर टिके छानी छप्पर वाला माटी का घर अभी भी अपनी पूरी सोंधी गंध के साथ मेरे मानस में बसा है।
अम्मा ने गौरैया से मेरी पहचान उस समय से ही करा दी थी जब मैं बोलना बैठना चलना भी नही जानती थी। बड़े से आॅगन में गौरैया के झुंड के झुंड आते उन्हे ललचाई निगाहों से पकड़ने की ललक में घुटनो चलना और दौड़ना सीखकर मैं दो ढाई साल की हो गयी थी। वैसे तो सभी की माँ प्रथम गुरू होती है पर मेरी माँ मेरी गुरू भी थी, और दुनिया भर की सबसे बड़ी ज्ञाता भी क्योकि पक्षियों के बारे में बचपन में उन्होनें जो बाते बताई आज पढ़-लिखकर वही बातें बड़े-बड़े शास्त्रों के प्रमाण के साक्ष्य के साथ जान रही हूँ। पक्षी विज्ञान तो उनका इतना जबर्दस्त कि क्या कहूँ? गौरैया के बारे में ढेर सी बाते बताई उन्होनें। एक दिन आॅगन में लगे बालू के ढेर पर फुरफुराकर नहाती गौरैया को देख वे खुशी से बोली- ष्अबकी पानी खूब बरसीष्। बडे होकर पढ़ा- कि लोक विश्वास है कि गौरैया का धूल स्नान निकट में वर्षा होने का तथा जल स्नान कम वर्षा या वर्षा न होने का संकेत माना जाता है। घाघ भंडरी की कहावतें अम्मा की जुबान पर प्रमाण में रहती-
कलसा पानी गरम है, चिडि़या नहावै धूर।
चीटीं ले झंडा चढ़ै, तो बरखा भरपूर।
हमारी कोठरी में धन्नी और छप्पर के बीच के स्थान को निरापद जान गौरैया के जोड़े ने घोसले बनाना शुरूकर दिया था। तिनके नीचे मसहरी पर गिरते कभी कभी मेरे ऊपर भी तब मुझे बहुत गुस्सा आता, अम्मा से कहती कि घोसला हटवा दें। वे बड़े प्यार से समझाती-गौरैया भाग वालों के घर घोसला बनाती है। घर-परिवार सुखी रहता है। वे यह भी कहती थी-गौरैया (जिसे वे अवधी में गरगरैया कहती थी) जाति की बाॅधन चिरैया होती है। पाक-साफ जगह ही घोसला बनाती है। अस्तु मेरी प्यारी चिर्रो मेरी आँखों के सामने रहे इसलिये घोसला और तिनको से मैनें समझौता कर लिया था। मसहरी किनारे दीवार की ओर खिसका दी गयी थी। चिर्रो फुर्रसे तिनके लेकर आती जाती मैं मंत्र मुग्ध सी उनकी गतिविधियों देखती रहती अम्मा की चाँदी थी। चिर्रो दिखा दिखाकर वे बड़े आराम से मुझे मनचाही चीजे खिला पिला लेती थी। इसी बीच गौरैया ने अण्डे दे दिये थे और बड़े जतन से उनका पोषण कर रही थी। अम्मा रोज बताती देखना कुछ ही दिनों में नन्हे नन्हें बच्चे चहकेंगे, तुम उनसे दोस्ती कर लेना बहुत मजा आयेगा मैं उत्सुकता से बच्चों के जन्म की प्रतीक्षाकर रही थी। अम्मा बड़े प्यार से गौरैया के साथ संवाद कर लेती थी। गौरैया भी जैसे उन्हे अपना अभिभावक मानती थी और जरा सी भी परेशानी हो जैसे अगर कमरे मे बिल्ली आ जाय तो अजीब सी आवाज में उन्हे बुलाती। अम्मा भी घर के किसी भी कोने में होती लेकिन चिडि़यो की आवाज पर दौड़कर आती। एक मोटा डंडा हर समय हमारी मसहरी के पास रखा रहता था।
एक दिन की बात है अम्मा ने शाम को रोज की ही तरह उसी दिन भी लालटेने जलाकर रख दी थी और रात के खाने की तैयारी करने लगी थी। मैं मँझले बाबा के पास लेटी शेख चिल्ली की कहानी सुन रही थी और अम्मा रसोई में खाना बना रही थी। दादी आँगन में चारपाई पर से ही कुछ-कुछ हिदायत भी देती जा रही थी। थोड़ी देर बाद चिडि़या अचानक वैसी ही अजीब आवाज में बोलने लगी थी। जैसी व्यग्रता से सहायता के लिये बुला रही हो। अम्मा तुरन्त चैके से कमरे में गई और टार्च लेकर डंडे से बिल-बिल करके खड़भड़ाया उन्हे लगा था कि कमरे में बिल्ली आ गयी होगी पर बिल्ली नहीं निकली चिडि़या अब भी अलगनी पर बैठी लगातार बोल रही थी। अम्मा ने उसे समझाया जाओ घोसलें में बैठो कुछ नही है, बेमतलब घबड़वा दिया। पर चिडि़या घोसले में नही गयी। थोड़ी देर चुप हुई, फिर बोलने लगी अम्मा फिर पलटी। वो जान गई चिडि़या चिडि़या ऐसे ही नही बोल रही कोई बात जरूर है। इस बार अम्मा ने टार्च लगाकर कमरेे में चारों ओर गौर से देखा बिल्ली कहीं नही थी, अचानक जब छत की ओर टार्च की रोशनी डाली तो सिर से पाँव तक सिहर उठी। घोसले से थोड़ी दूरी पर घन्नी पर साँप था उसकी पूँछ नीचे लटक रही थी। अम्मा जल्दी आॅगन की ओर भागकर आई बाबा से बताया कि धन्नी पर साँप है। बाबा तुरन्त उठे और बाहर तरवाहे पर से दउवा को बुला लाये उनके साथ दो और आदमी थे जो नुकीले बल्लम लिये थे। साँप मेरे लिये नया जीव था। इसलिये भय का कोई मतलब ही न था। मैं भी फुर्ती से दौड़कर सबसे आगे साँप देखने पहुॅच गई, अम्मा ने बिजली की सी फुर्ती से मुझे झपटकर पीछे, खींचा और गोद में उठाकर आॅगन में चारपाई पर लगभग घसक सा दिया साथ ही चेतावनी दी अगर यहाँ से हिली तो................।
उधर दउवा ने अम्मा की बताई दिशा में देखा तो साॅप लटक रहा था। चिडि़या अलगनी से उड़कर अब ताखे में बैठ गयी थी। पर अब वे चुप थी। दउवा के साथ आये दो व्यक्तियों में से एक ने मसहरी पर चढ़कर एक ही झटके में बल्लभ से छेदकर साॅप को लटकाकर आॅगन में आये तो टार्च की रोशनी में मैने पहली बार साँप देखा।
अब चिडि़या शान्त हो गयी थी और घोसले में चली गयी थी।
अम्मा बहुत घबड़ा गई थी। उन्होनें मुझे लेकर उस कमरे में लेटने से मना कर दिया था। उस दिन दादी की चारपाई के पास ही चारपाई डालकर मच्छर दानी लगाकर वे मुझे लेकर सोई थी। अगले दिन भी वे उस कमरे में मुझे सुलाने में डर रही थी पर चिडि़या मस्त थी। चिडि़या के बच्चों की उत्सुकता में मैं कहीं और जाना नही चाहती थी, अम्मा ने भी हिम्मत बाॅध ली हम उसी कमरे में रहे तीन दिन बाद चिडि़या के बच्चों की आवाज सुनाई दी रूनझुन रूनझुन नन्हें घुघरूओं सी झनक-मेरा मन बल्लियों उछल रहा था पर धन्नी पर झाॅक पाना मेरे लिये संभव नही था पर मैं बहुत खुश थी पूरे आॅगन में दौड़ दौड़कर सबको बता आयी थी। मेरी गौरैया ने बच्चे दिये है। उत्साह में मैं अपनी हर चीज उनसे बाॅटने को तैयार थी। बच्चों की चोंच में दाना डालते समय कभी कभी बच्चों का सिर व नन्ही नन्ही चोंच वाला खुला मुँह दिख जाता मैं निहाल हो जाती। कुछ दिनों में चिडि़या के बच्चे थोडा थोड़ा उड़ने लगे थे अम्मा के मना करने पर भी मैं चुपके से छू लेती, मखमल जैसी प्यारी गुनगुनी नन्ही गौरैया को छूकर मुझे बहुत अच्छा लगता और एक दिन बच्चे उड़े तो लौटकर नही आये शायद अब वे कहीं दूर मुक्त गगन में गुनगुनाते उड़ रहे होंगे। मैं उदास हो गयी थी पर माॅ ने बताया गौरैया कर घर यहीं है, वो जरूर आयेंगे। मै रोज ढेरों गौरैया उ़डती देखती और सोचती कहाँ होंगे मेरी गौरैया के बच्चे?
डा0 शशि प्रभा बाजपेई
भगवानदीन आर्य कन्या स्नाकोत्तर महाविद्यालय
लखीमपुर खीरी
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ReplyDeleteNamaskar Dr Bajpai,
ReplyDeleteThanks for sharing such nice and heart touching story of your childhood. With Regards