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International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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Feb 7, 2016

वर्तमान विकास की संरचना में गाँधीवादी वैकल्पिक विकास की आवश्यकता एवं उपयोगिता


भारती देवी

विकास एवं शांति अध्ययन विभाग,  संस्कृति विद्यापीठ,  महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र}


आज सम्पूर्णमानव सभ्यता एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहाँ पर विनाश का संकट सिर पर मंडरा रहा है। विश्व के हर हिस्से में अलग-अलग तरह की प्राकृतिक आपदाएं देखने को मिल रही हैं। लाखों लोग इन आपदाओं का शिकार हो रहे हैं। इन सब का कारण हमारे आधुनिक अनियंत्रित विकास को बताया जा रहा है। इस तरह से हमने अपने अस्तित्व को समाप्त करने के सामान आधुनिक विकास के नाम पर एकत्रित कर लिये हैं।

जैसा की जनार्दन पांडे अपनी पुस्तक ‘Gandhi and 21st Century’ में मार्टिन लूथर किंग के शब्दों में बताते हैं, की यह ऐसा युग है जहाँ की मिसाइल्स को उचित दिशा है परंतु लोगों को नहीं । जब तक की इस युग के मनुष्यों को उचित दिशा प्राप्त नहीं होगी तब तक विकास को सही दिशा में नहीं ले जाया जा सकता है। गांधी का विकास का सिद्धांत इस संदर्भ में आर्थिक आवश्कयता और इसकी चाह में अन्तर को स्पष्ट करता है । 

वर्तमान परिस्थिति का यदि सूक्ष्मता से आंकलन किया जाए तो पता चलता है कि आज मानवजाति के सामने विकास की अंतिम पायदान आ चुकी है जो की विकास को विपरीत दिशा में चलने को निर्देशित कर रही है। विकास के दुष्परिणामों को देखते हुए यह महसूस किया जा रहा है, की इसे किस दिशा में मोड़ा जाए जिसे जानने का अथक प्रयास न केवल वैज्ञानिक स्तर पर किया जा रहा है बल्कि सामाजिक स्तर पर भी लोगों ने सोचना प्रारंभ कर दिया है। उन्नीसवी सदी के अंत में जब उपभोगवादी सभ्यता अपने उत्कर्ष पर थी, उसी समय रस्किन, थोरो, टालस्टाय , आदि पश्चिम के विचारकों ने कई मूलभूत प्रश्न खड़े किए और भविष्य के बारे में चिंता व्यक्त की थी। इस संदर्भ में चिंता जताते हुए गैर पश्चिमी विचारकों में गांधी का महत्त्वपूर्ण स्थान आता है, जिन्होंने 1909 में इसी विषय को हिन्द स्वराज में अधिक तीखे लेकिन विश्वासपूर्ण स्वर में आगे बढ़ाया  । 
विकास के जिन भयानक खतरों के प्रति आगाह बीसवी सदी के प्रारंभ में किया गया था, सदी के अंत तक आते‌‌-आते हम आधुनिक सभ्यता पर मंडराते खतरों से रूबरू होंने लगे।
आधुनिक औधौगीकरण ने संपूर्ण विश्व के सामने जो विकास का ढाँचा तैयार किया और जिसमें गरीबी एवं अभाव को समाप्त करने का लुभावना सपना था वह केवल सपना ही रह गया। इसी तरह सामाजिक क्षेत्र में बराबरी और व्यक्ति स्वतंत्र्य का तथा राजनैतिक क्षेत्र में जनतंत्र का। इन दिशाओ में विकास के नाम पर कुछ हुआ भी, पर अब यह स्पष्ट  हो गया है की कुल मिलकर यह सब एक छलावा था । असली मकसद तो अपने मुनाफे के खातिर दुनिया के संसाधनों पर विशेष वर्ग के द्वारा कब्जा जमाने का तथा लोगों  को शोषण के जाल में फंसाये रखने का था । 

सभी क्षेत्रों में विकास चाहे वह आर्थिक हो, सामाजिक हो, या फिर राजनीतिक हो इन सभी में जिस बराबरी की बात की गयी थी आज उससे उल्टी ही परिस्थितियाँ निर्मित हो रही हैं। जीडीपी में लगातार हो रही वृद्धि किसी भी रूप में गरीबी का स्तर कम करने में कतई कामयाब नहीं दिखाई दे रही है बल्कि गरीबी अपने चरम पर है। विकास के सारे उपाय गरीबी को कम करने की बजाय गरीबी को कैसे ढका जाए के लिए निरंतर प्रयासरत हैं। अभाव, मंहगाई, बेरोजगारी की समस्या ने तीसरे विश्व के देशों में भयानक रूप धारण कर लिया है। विश्व में विकास के नाम पर दश प्रतिशत लोग लगभग संपूर्ण संसार के संसाधनों पर कब्जा कर चुके हैं। लगातार दोहन से खनिजों की समप्ति का संकट पास आता जा रहा है। उपभोग की प्रवृत्ति को इस ऊँचाई तक बढ़ा दिया गया है की वह विलासिता के चरम पर पहुँच गयी है, जिसके परिणाम स्वरूप ग्लोबल वार्मिंग और भयानक पर्यावरण प्रदूषण के ख़तरे हम स्पष्ट रूप से देख रहे हैं ।

वैकल्पिक विकास की आवश्यकता-
ऐसे विकास की आवश्यकता इसलिए महसूस की गयी क्योकि गांधी जी इस बात से पूरी तरह से सहमत थे कि हमारी अधिक आबादी गाँवों में रहती है इसलिए ऐसे विकल्प की  खोज हो कि जिसमें वे अपने समाज के साथ अधिक सामंजस्य से जीवन बिता सके। तभी हम यह कह सकते हैं कि हम एक बड़े समानतामूलक समाज का नेतृत्व कर रहे हैं   समाज के विकास के लिए अभी तक जो भी प्रारूप अपनाए गए चाहे वह पूंजीवादी प्रारूप हो या साम्यवादी, दोनों ही इस उपभोक्तावादी विकास के कुचक्र के शिकार होकर एक ही दिशा की तरफ बढ़े। दोनों में ही बाजार का प्रभाव अधिक रहा । समाज में जिस समानता को स्थापित करने की बात की जाती थी वह कोई भी विकास का प्रारूप पूरा करने में सफल नहीं हो सका। पूंजीवादी प्रारूप जो की निजी स्वामित्व के आधार पर उधोगों का विकास करके लाभ को समाज के अंतिम आदमी तक पहुँचाने का दावा कर रहा था वह सिर्फ वर्ग असमानता एवं उपभोक्त्तावादी संस्कृति को बढ़ाता रहा इसने संपूर्ण विश्व को बाजार में परिवर्तित कर दिया तथा सभी को खरीददार बना दिया । 

मार्क्स ने उत्पादन के साधन और इनसे जुड़े उत्पादन संबंधो को विकास की दिशा का नियामक बता कर एक तरह से तकनीकी निर्यातवाद को जन्म दिया। उन्होंने यह भी मान लिया की एक स्तर पर तकनीकी और उससे जुड़े उत्पादन संबंध में विरोध पैदा होता है, इससे क्रांतिकारी बदलाव की शुरुआत होती है। पूर्वकाल में यानि पूंजीवादी व्यवस्था के पहले जैसा भी हुआ हो लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन की तकनीकी के उत्पादन संबंध यानि पूंजीपति और मजदूरों के संबंध में विरोध पैदा होता है और इससे क्रांतिकारी बदलाव की शुरुआत होती है ।

पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन की तकनीकी और उत्पादन संबंध के मध्य यानि पूंजीपति और मजदूरों के संबंध उनके बीच तनाव पर हावी होते दिखते हैं । प्रतिस्पर्धा पर आधारित पूंजीवाद मजदूर समेत हर नागरिक को एस्केलेटेर की एक सीढ़ी पर खड़ा कर देता है, इस  आश्वस्ति के साथ की वह ऊपर उठता जाएगा । ठीक विपरीत विकल्प के रूप में जहाँ-जहाँ साम्यवादी व्यवस्था आयी चाहे वह रूस हो, चीन हो या फिर वियतनाम हो वे सब राज्य सत्ता के नियंत्रण में ही भिन्न रही और कलेवर उनका भी पूरी तरह से पूंजीवादी था । इसने भी समाज में समानता स्थापित करने में नकामयाबी हासिल की । आज चीन पूरी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था को अपना चुका है । 

आज भी हम विकास के जिस प्रतिमान के साथ जा रहे हैं वह हमें किस कदर नष्ट होने की कगार पर ले जा रहा है उसके उदाहरण हम दिन प्रति दिन देख रहे हैं। वर्तमान औदद्योगिक समाज के नियामक तत्व 18 वीं 19 वीं सदी से परवान चढ़ी औदद्योगिक क्रांति और इसके वे आदर्शवाद हैं जो इस गति को औचित्य प्रदान करते है। जैसा की समाज शास्त्री मैक्स बेबर का मानना था, ईसाई धर्म के प्रोटेस्टेंट धारा की इस स्थापना मंं  विशेष भूमिका थी जो की व्यावसायिक सफलता को ईश्वरीय अनुकंपा मानती थी, और इसे मानव समाज का सर्वोच्च और सर्वजनीय आदर्श बना डाला। इस मान्यता के सार्वभौम होने से आर्थिक गति विधियों का क्षेत्र एवं वैश्विक अखाड़ा बन गया है, जहाँ सभी खिलाड़ी मार पछाड़ में लगे रहते हैं, जिसमें प्रतिस्पर्धी की मौत से ऊर्जा ग्रहण  कर अधिक बलिष्ठ बना जाता है  ।

एक तरफ पूंजीवादी व्यवस्था अत्यधिक उत्पादन कर बाजार को पाट डालती है, दूसरी तरफ भुखमरी, बेरोजगारी, आत्महत्या, अवसाद, आदि को भी बढ़ाती है। श्रमिकों के शोषण और इससे उपजे बाजार के संकट एवं ट्रेड मार्क साइकिल यानि उत्पादन की स्फीति और संकुचन के चक्र की समझ मार्क्स की अर्थशास्त्र में दूसरे विचारों से अधिक विश्वसनीय लगती है। लेकिन अनवरत औधोगिक  विकास की जो संभावना पूंजीवादी तकनीकी में दिखाई देती है उसके प्रति मार्क्स में एक सम्मोहन था। जो की ‘कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो’में जाहिर होता है, जहाँ  पूंजीवाद की उपलब्धियों को इन शब्दों में गरिमामंडित किया गया है। प्रकृति की शक्तिओं को मनुष्य  के मातहत करना , मशीन व रसायन शास्त्र को उद्योग और कृषि में लगाना , भाप से समुद्री जहाज , रेल और इलेक्ट्रिक टेलीग्राफ चलना , पूरे महादेशों को खेती के लायक बनाना, नदियों से सिंचाई के लिए नहर, भूमि  से हठात पूरी आबादी का उभार आना, किसी पूर्ववर्ती सदियों  की कल्पना में भी सामाजिक श्रम की ऐसी उत्पादकता नहीं रही होगी ।

मार्क्स ने भी एक अलग रूप में प्रकृति के दोहन और औधोगीकरण की बात की । इससे पूंजी का संचय होना अवश्यंभावी था । लेकिन इस बात को नजर अंदाज किया की संचित श्रम सदा किसी उत्पाद का रूप होता है और यह उत्पाद प्रकृति से प्राप्त कच्चे माल, खनिज आदि के रूपांतरण से एवं ऊर्जा प्रदान करने वाले कोयला, तेल आदि को जला कर प्राप्त होता है । दरअसल अत्याधुनिक उद्योगों में मानव श्रम जो की ऊर्जा का ही एक परिष्कृत और संचित रूप है अपना महत्त्व खोता गया है और मशीन एवं रोबोट धीरे-धीरे इनका काम संभालने लगे हैं । इस दृष्टि से देखने पर यह तुरंत जाहिर होता है की चूकि धरती के संसाधन कच्चे उद्धृत पदार्थ हों, खनिज हों, या ऊर्जा देने वाला कोयला, पेट्रोलियम या प्राकृतिक गैस इसके अति दोहन से कुछ दिनों  बाद संकट पैदा होगा । इनके दोहन से इनके ख़त्म होने का संकट पैदा हुआ है| आज संपूर्ण विश्व पर्यावरण प्रदूषण केविश्वव्यापी संकट से भी जूझ रहा है जिसने मानव सभ्यता के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा कर दिया है । 

यू तो ऊर्जा संकट और प्रदूषण के प्रभाव इ. एफ. शूमाकर के ‘स्माल इस बियूटीफुल’,‘ क्लब आफ रॉम’ के अध्ययन ‘द लिमिट्स आफ ग्रोथ’ के प्रकाशन के बाद से ही पिछली शताब्दी के उत्तार्ध से चर्चा होने लगी थी । लेकिन इस पर दुनिया के राष्ट्रों द्वारा साक्रिय पहल 1922 के ब्राजील के ‘रियो डी जेनेरिओ’में हों वाले शिखर सम्मेलन में शुरू हुई । इसके बाद 1944 में क्योटो प्रोटोकाल नाम से एक समझौता हुआ और तय हुआ की औद्द्यगिक देश ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 2012 तक 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत घटा देंगे । इस पर 1995 में मान्यता की मुहर लगी , लेकिन दुनिया के बड़े औद्योगिक देश और प्रति व्यक्ति सबसे अधिक उत्सर्जन करने वाले अमेरिका ने इस पर अपनी स्वीकृति नहीं दी । कार्बनडाई आक्साइड का उत्सर्जन 1990 में 22.7 अरब टन था । क्योटो प्रोटोकाल में इसे घटाकर 21.5 अरब करने का लक्ष्य था। लेकिन 2010 में यह बढ़कर 33 अरब टन हो गया। यानि घटाने की बजाए डेढ़ गुना बढ़ गया । दरअसल औदद्योगिक प्रगति के उन्माद में प्रदूषण फैलाने वाली गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्यों को सदैव नजर अंदाज किया गया ।

आज विकास के प्रतिमानों से उपजे भयंकर परिणामों से ऐसे वैकल्पिक विकास के मॉडल की अत्यधिक आवश्यकता है, जो असमनता को पाटते हुए पर्यावरण की रक्षा में भी योगदान दे सके । गांधी जी तो पहले ही कह चुके थे की यह एक पागल दौड़ है जो हमें सिर्फ़ विनाश की गर्त में ले जाएगी । उन्होंने धरती की संसाधनों की सीमितता एवं मर्यादा की तरफ ही हमारा ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा था की यह आवश्यकता तो सबकी पूरी कर सकती है पर लालसा एक की भी नहीं । 

वैकल्पिक विकास की उपयोगिता
विकल्प की खोज तो दुनिया में बहुत ही पहले से हो रही है । परंतु आज सर्वाधिक आवश्यकता उन प्रयोगों को जमीन पर उतारने की है तभी हम सभ्यता को संकट से बचा सकते हैं। गांधी के पहले भी लोगो ने विकल्प पर चर्चा प्रारंभ की थी परंतु गांधी इस मायने में सर्वाधिक उपयुक्त साबित हुए । उन्होंने 1904 से अपने जीवन काल में लगातार विकल्प का सफल प्रयोग 1947 तक किया । संपूर्ण देश के लोगो में इस वैकल्पिक विकास से एक ऊर्जा का संचार हुआ और लोगो में आत्मविसवास की भावना भी देखने को मिली वे हमेशा अहिंसक अर्थ व्यवस्था की बात करते हैं। तथा विकास शब्द के स्थान पर स्वराज को लाने का समर्थन करते थे। जो की स्वावलंबी जीवन पर आधारित समानता मूलक समाज की स्थापना करता है । उन्होंने विकल्प के सफल प्रयोगों में नयी तालीम, खादी ,ग्रामउधोगों, पर आधारित ग्राम स्वराज की संकल्पना को साकार करके दिखाया। आधुनिक भारत और आधुनिक विकास के मोह में नेहरू ने गांधी के विकल्प को छोड़ दिया था तथा विकास के मशीनी औदद्योगिक प्रारूप को अपनाया जिससे की समाज में गैर बराबरी का संकट अधिक गहरा हो गया । 

परंतु इन सबके बाद भी कुछ गांधी वादी उनके ही विकास के मॉडल पर चलते रहे और आज भी वे प्रयोग समस्त विश्व को विकास के वैकल्पिक मॉडल का सफल प्रयोग करके अपनाने को प्रोत्साहित कर रहे है जिससे प्रेरणा लेकर विकास करने से संपूर्ण विश्व की सभ्यता नष्ट होने से बच सके । जिनमें लक्ष्मी आश्रम कौसनी जो की नयी तालीम के माध्यम से विकास के विकल्प का संपूर्ण ढांचा हमारे सामने प्रस्तुत करता है ,यहाँ की शिक्षा में गांधी के’ Three-H’ head,heart,hand को वास्तव में परिपक्व करने का उद्देश्य है| ये शिक्षा ऐसी है जो की संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास कर सके ।

पर्यावरण संरक्षण भी उससे ही निकाल कर आता है । गुजरात विद्यापीठ का ग्राम शिल्पी कार्यक्रम भी गाँवों को उनके संसाधनों से ही श्रम आधारित अहिंसक अर्थ व्यवस्था पर आधारित ग्राम स्वराज्य का कार्य कर रहा है ।

मगन संग्रहालय एवं उसका एक प्रकल्प ग्रामोपयोगीविज्ञान केंद्र वर्तमान विकास के विकल्प का सम्पूर्ण ढांचा प्रस्तुत करता है, अन्ना हजारे का रालेगड़ सिद्धि, मोहन हीरा भाई हीरालाल का मेढ़ालेखा एवं हिबरे बाजार इसके कुछ महत्तवपूर्ण उदाहरण हैं, जो की संपूर्ण सभ्यता को समानता पर आधारित पर्यावरण की रक्षा करते हुए अहिंसक समाज रचना की ओर अग्रसर करने का प्रयास कर रहे हैं। आज आवश्यकता  समाज को जागरूक करते हुए इन्हें अपनाने के लिए प्रेरित करने की है।


निष्कर्ष
यहाँ पर विकास के अंतिम पग पर आकर किस तरह से हमारा पूरा का पूरा विकास का उपक्रम विनाश के पग पर चलने लगता है को जानने का प्रयास किया गया है, और ऐसे भारत के लिए कोशिश है की जिसमें गरीब से गरीब लोग भी विकास का हिस्सा बन सके और यह महसूस करे की यह उनका उद्देश्य  है और इसके निर्माण में उनका भी श्रम महत्त्व पूर्ण भूमिका अदा करता है ।

गांधी के ही शब्दों में ही कहें तो ऐसे भारत की कोसिस है जिसमें की ऊँचे और नीचे वर्गो का भेद नहीं होगा और जिसमें विविध संप्रदायों से पूरा मेल जोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृश्यता एवं शराब व दूसरी नशीली चीजों का कोई स्थान नहीं होगा। स्त्रियों को भी समान अधिकार होगा और वे भी विकास का हिस्सा होंगी । सारी दुनिया के साथ हमारा रिश्ता शांति का होगा और विकास के फलस्वरूप होने वाले विनाश में सबके साथ मिलकर उपाय निकालने की कोशिश सतत बनी रहेगी। शोषण की राजनीति से इस समाज और देश को बाहर निकालना है।  ऐसे भारत की कल्पना करना ही मेरा उद्देश्य है जिसमें की सभी का सम्मान हो और सबको काम का समान अवसर हो ।


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                          नोट- इस शोध पत्र की पी डी ऍफ़ फ़ाइल देखने के लिए यहाँ क्लिक करें.                                                                                   

       
                                                                          लेखिका                                                                                    भारती देवी ,पी-एच.डी. शोधार्थी
                                                  विकास एवं शांति अध्ययन विभाग
                                                       महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा(महाराष्ट्र)
email: bharatitiwari009@gmail.com







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