-बरखा लकड़ा
किसी भी देश राज्य का विकास के लिए आर्थिक विकास का होना जरूरी हैं, और आर्थिक विकास के लिए औद्योगिक विकास का होना। ये कुछ हद तक सत्य हैं, कि औद्योगिक विकास से ही आर्थिक विकास संम्भव हैं। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू जिन्हें भारत के आधुनिक विकास का जनक कहा जाता हैं। उन्होंने राज्य के विकास के लिए 1960 में एचइसी- हैवी एंजिनियरिंग कारपोरेशन, की स्थापना झारखंड जैसेे पिछड़े इलाके राॅची जिले में की थी। ताकि आदिवासियों मूलवासियों को विकास की मुख्यधारा में लाया जा सके। अब सवाल ये उठता है कि विकास किसका. औद्योगिक घरानों का या फिर राज्य की जनता. या फिर उन विस्थापितों का जिन्होंने राष्ट् के विकास के नाम पर अपनी जमीन खुले दिल से दे दी. इतना बड़ा दिल और मन कि आज की तारीख में उस देने वाली सभ्यता का कोई मुकाबला नहीं है. जहां केवल जमीन लेने वालों की केवल फौज खड़ी हो. सदियों पुराना अपनी पारम्परिक, ऐतिहासिक जमींन जो कभी हमारे पुरखे अपनी मेहनत से जंगल-झाड़, पहाड़- पर्वत को काटकर घर-आंगन, खेत- खलियान एंव पूजा- स्थल बनाया। आज इसी जमीन का सौदाकरण हो रहा है। जमीन के असली मालिक को दूध में मक्खी की तरह निकाल कर फंेका जा रहा हैं। इतना ही नहीं एचइसी द्वारा अधिग्रहीत जमींन में आदिवासियों का 30 सरना स्थल खत्म हो रहा हैं। पर सरकार को उन आदिवासियों की आस्था की परवाह नहीं हैं। क्या आदिवासियों को आस्था के साथ जीवन जीने का अधिकार नहीं हैं। इसी जगह मन्दिर होता तो आस्था का खयाल रखकर मन्दिर के लिए जमींन छोड़ दी जाती। झारखंड के बहुत से जगहों पर मन्दिर के लिए में जगह छोड़ दी गई हैं। इतना ही नहीं अगर रास्तें में मन्दिर हो तो रास्तें को मोड़ दिया जाता हैं। पर मन्दिर को नहीं तोड़ा जाता हैं।
एचइसी का स्थापना का मकसद क्या था , और एचइसी का विकास किसके लिए? अगर हम थोड़े एचइसी के इतिहास में जाए तो एचइसी स्थापना का मकसद गरीबी एंव बेरोजगारी उन्मूलन था। एचइसी के लिए जमीन भू्र-अर्जन अधिनियम 1894 के तहत लिया गया था। जिसका अधिग्रहण 1955 से लेकर 1960 तक चला। जिसके तहत आदिवासी मूलवासियों ने अपनी खेतीवाली 9,200 एकड़ हरी-भरी जमीन एचइसी को समर्पित कर दिया। 1996 में बिहार सरकार ‘डीड आॅफ कानवेन्स ’ के तहत एचइसी द्वारा अर्जित जमींन का मलिकाना हक पूर्ण रूप से एचइसी को कर दिया। एचइसी ने जरूरत से तीन गुणा ज्यादा जमीन का अधिग्रहण किया और केवल लगभग 3 हजार एकड़ में ही तीन प्लांट लगाए गए.। एच. एम.टी. पी., एच. एम बी. पी. और एफ एफ पी. इसमें एक एक प्लांट एफ एफ पी बंद हो चुका है.। बाकी अधिग्रहित भूमि में रैयत अपनी ख्ेाती बारी और पारम्पारिक बसाहट के साथ कायम रह गए. सरकार ने इस अतिरिक्त भूमि की सुध नहीं ली और एच. ई सी. प्रबंधन मनमानी कर भूमि की बिक्री कर अंधाधुंध कमाई करता रहा. इसके विरोध में विस्थापित लोग आंदोलन करते रहे. लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. 2010 में सरकार ने एच. ई. सी. को अतिरिक्त भूमि बेचने पर रोक लगा दी.
एच. ई सी. ने कानूनों का उल्लंघन कर सी. आई एस एफ को 58 एकड़, क्रिकेट स्टेडियम को 158 एकड़ और हाई कोर्ट को 158 एकड़ भूमि बेच दी और मनमाना दर से पैसा वसूला. लेकिन अतिरिक्त भूमि को बचाकर रखने के एवज में विस्थापितों को कुछ भी नहीं दिया गया.। यह सब ऐसे ही चलता रहा क्योंकि 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून के तहत विस्थापितों में खासकर आदिवासियों ने भूमि वापसी का कोई केस छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम के तहत नहीं दायर किया. इसी का लाभ उठाकर भूमि की बंदरबंाट होती रही. जून 12, 2015 को आपाधापी में झाड़खंड सरकार ने विधान सभा का शिलान्यास उस धरती में किया जो कानूनी तौर पर सरकार की है ही नहीं. लगभग 55 सालों तक अधिग्रहण के बाद दखल कब्जा नहीं होने के बावूजद बिना नए सिरे से अधिग्रहण कर सरकार ने जिस तरह से जोर जबरदस्ती किया है उससे लोकतंत्र की मर्यादा को खतरा पैदा हो गया है. आम तौर पर नई सरकार किसी मेगा प्रोजेक्ट का शिलान्यास करती है तो अखबारों में पूरा विज्ञापन प्रचारित प्रसारित करती है. लेकिन विधान सभा के मामले में बिना प्रचार प्रसार के रातों रात ही निर्माण कार्य प्रारंभ कर दिया गया. पूरे रास्ते को बैरीकेटिंग कर दिया गया और 16 मजिस्ट्रेट के साथ 200 पुलिसकर्मियों को ड्यूटी पर तैनात कर दिया गया ताकि परिंदा भी पर ना मार सके।लंकिन विस्थापितों ने तीखा प्रतिरोध किया.
इतनी कुर्बानी के बाद भी मूलवासियों और आदिवासियों के बड़े मन की बात की जा रही है. किसका मन और दिल बड़ा है. या 1960 में आदिवासयों एंव मूलवासियों की अग्निपरीक्षा हो गई और राष्ट् के विकास के नाम पर आदिवासियों और मूलवासियों ने अपनी जमीन को कुर्बान कर सुअरबाड़े जैसे घरों में रहने को विवश हो गए। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता हैं, कि आदिवासी प्राकृतिक की तरह हमेशा देते ही आये हैं। बदले में उन्हें चिडि़याघर के जानवरों की तरह जीवन जीने को मजबूर कर दिया गया हैं। अब सवाल यहाॅ ये है कि क्या आदिवासी इस देश के नागरिक नहीं या क्या इन्हें सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार नहीं।
विकास के नाम पर हमेशा आदिवासियों की बलि चढ़ायी गई हैं। आजादी के बाद से पूरे देश में विकास व राष्ट् हित के नाम पर लगभग 3 करोड़ से ज्यादा लोग विस्थापित तथा प्रभावित हुए हैं। जिनमें 40 प्रतिशत आदिवासी, 20 प्रतिशत दलित व कमजोर वर्ग के लोग हैं। यानि 60 प्रतिशत लोगों को राष्ट्हित के नाम पर जमींन की कुर्बानी देनी पड़ी। कुल विस्थापितों में से मात्र 25 प्रतिशत लोगों का किसी तरह पुर्नवास हो सका हैं। तथा शेष 75 प्रतिशत विस्थापित लोग कहाॅ गये इसकी जानकारी सरकार तक को मालूम नहीं हैं। अजादी के 66 बर्षाो के बाद भी पुर्नवास नीति नहीं बन पायी हैं। जबकि वही सरकार बिशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर कानून बनाने में सफल हुए हैं। जिसे लाखों लोग विस्थापन के कगार पर हैं। विकास के नाम पर लाखों लोग बेघर हो रहे, उनका अभी तक कोई विकास नहीं हो पाया हैं। पर औद्योगिक घरानों के लोगों का विकास जरूर हुआ हैं। उदाहरण के तौर पर फोब्र्स की धनवान सूची 2015 के अनुसार, धनाढ्य मुकेश अंबानी फिर इस साल भारतीयों में से सबसे अमीर व्यक्ति हुए हैं, जो 21 अरब डाॅलर के नेटवर्थ के साथ अपनी शीर्ष स्थिति लगातार आठवें साल बरकरार रखी हैं। इसके बाद दिग्गज कारोबारी में दिलीप सांधवी 20 लाख डाॅलर के नेटवर्थ के साथ 44वें, पायदान वैष्विक स्तर से रहें। इसके बाद अजीम प्रेमजी 19.1 अरब डाॅलर के साथ वैष्विक स्तर से 18वें पायदान पर रहें। ये तो थे पूॅजीपतियों का पायदान।
इन पायदानों में कहीं भी विस्थापितों का पायदान नहीं हैं। जबकि जमींन अधिग्रहण विकास के नाम पर लेते रहा गया हैं। जिसमें एचइसी मुख्य रूप से शामिल हैं। एचइसी स्थापना से आदिवासियों का विकास नहीं बल्कि विनाश हुआ हैं। एचइसी में बड़े पैयमाने पे बाहरी लोगों की बहाली हुई जिसमें आदिवासियों का नाममात्र का ही बहाली हुआ। 22 हजार कर्मचारियों की बहाली की गई थी । सिर्फ दो तीन साल ही एचइसी मुनाफे में रही बाकी साल सिर्फ घाटे में ही चलते रही। 22 हजार कर्मचारी वाला संस्थान आज 2 हजार कर्मियों पर सिमट गया है. एचइसी अपना कर्ज माफ करवाने के लिए सरकार को जमींन रिज्यूम कर दे रही हैं। जिसमें सरकार हाई कोर्ट एंव विधानसभा का निर्माण कर रहीं हैं। इतिहास में पहली बार सरकार 144 धारा लागू कर हाईकोर्ट का शिलान्यास किया। लेकिन पूर्व से ही संगठित आदिवासियों मूलवासियों की भीड़ ने सरकार के मंसूबे में पानी फेर दिया. मुख्यमंत्री को तीखे प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। यह कहना गलत नहीं होगा कि आदिवासी मूलवासियों का इतिहास बहुत ही गौरवपूर्ण एवं संघर्षशील रहा हैं। हमारे आदिवासी आजादी से पहले अपने देश के दुश्मनों से लड़ाईयाॅ लड़ी. और आजादी के बाद अपने ही देश के स्वार्थी, दमनकारी नीति बनाने वाले प्रशासन के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। आजाद होते हुए भी गुलाम की जिन्दगी जीने को मजबूर है। भूमि अधिग्रहण कानून का दंष से कोई भू-स्वामी नहीं बच पाऐगा। अगर सरकार की मंशा इन आदिवासियों मूलवासियों के प्रति नहीं बदली तो, एक बार फिर नयी क्रांतिकारी विचारधारा आने में देर नहीं लगेगी.
बरखा लकड़ा
An article sent by Roma
romasnb@gmail.com
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