Photo courtesy: Krishna Kumar Mishra |
भूमि अधिग्रहण अध्यादेश व्हिप(चाबुक) और लोकसभा-राज्यसभा सांसद
- अनंत जौहरी
66-A रद्द करने का निर्णय ऐसे समय में न्यायपालिका ने किया है जबकि पूरे देश में इस समय भूअधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में जन-जन मुखर हो गया है। सामंती राज सत्ता का यह चरित्र रहा है कि वह जनता की न्याय पूर्ण आवाज़ को किसी प्रकार दबाता रहे। लोकतंत्र में हमारे संविधान में मूल अधिकारों में शामिल होने के पश्चात भी हमेशा प्रेस, आंदोलनों एवं व्यक्तियों द्वारा उठाई जन आवाज़ को रोका गया है। परंतु न्यायपालिका के हस्ताक्षेप से यह स्वतंत्रता वापस आती रही है। लेकिन हमेशा न्यायपालिका की छतरी का उपयोग उचित नहीं है।
सवाल यह है कि जिला मुख्यालयों, जंतर-मंतर और मशाल जुलूस पर उठती आवाज़ें केवल आवाज़ें ही बनकर रह गईं हैं, निर्णय में परिवर्तित नहीं हो पातीं। भगतसिंह ने असेम्बली में बम फेंका था कि ब्रिटिश राज के बहरे कान विरोध को सुनें लेकिन तब से आज तक ने राज्य ने ऐसे तरीके ढूँढ लिए हैं कि आवाज़ों का असर कम होता जा रहा है। राज्य थकाता है, निराश करता है।
लोकतांत्रिक संविधान में यह व्यवस्था है कि ऐसी आवाज़ों को निर्णय में बदला जाए। इसीलिए व्यापक और प्रभावशाली अभिव्यक्ति को निर्णय में बदलने के लिए “निर्णय की स्वतंत्रता” का प्रावधान संविधान में रखा गया है। जिसे इस समय बाधित कर दिया गया है।
हमारे मूल संविधान में राजनैतिक दलों को निर्णय का कोई अधिकार नहीं दिया गया है। परंतु आज निर्णय सत्ताधारी दल ही लेता है और अधिकतर सारे विपक्षी दल इसका विरोध करते हैं। संविधान में तो “राजनैतिक दल” यह शब्द ही नहीं है। संविधान निर्माता ज़रूर यह जानते थे कि आगे आने वाले समय में राजनैतिक दल एकाधिकारी प्रवृत्ति से ग्रसित हो जाऐंगे। शायद उन्हें पश्चिम के पूँजीवादी लोकतंत्र से यह सीख मिली हो।
मूल संविधान के अनुसार विधान सभा, लोक-सभा में हमारे चुने हुए प्रतिनिधि को अपने विवेक और मतदाता के मतानुसार निर्णय लेने का ‘अधिकार था’ परंतु संविधान के विरोधाभासों का इस्तेमाल करते हुए राजनैतिक दलों ने अपने अधिकार निरंतर बढ़ाए, दल-बदल कानून लाकर सर्वसम्मति से सभी राजनैतिक दलों ने सांसद और विधायकों के ‘निर्णय के अधिकार’ को पूरी तरह से छीन लिया। उन्हें पार्टी का गुलाम बना दिया। राजनैतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र के धकाते जाने से आज लगभग सभी पार्टियों में सुप्रीमो ही निर्णय लेते हैं। इस प्रकार संविधान प्रदत्त निर्णय का अधिकार जन प्रतिनिधि से छीनकर लगभग सभी पार्टियों के सुप्रीमो के पास चला गया है।
दल-बदल कानून उस समय लाया गया जब आया राम-गया राम का खेल चल रहा था। हॉर्स ट्रेडिंग (घोड़ा ख़रीद) हो रही थी। 1984 में पहली बार लाए गए दल-बदल कानून में 35% सांसद या विधायक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी बनाकर गयाराम हो सकते थे, ऐसा कानून बना। उस समय आयाराम-गयाराम के विरूद्ध जन भावना बन गई थी। इस अवसर का फायदा उठाते हुए चालाकी से ऐसा संविधान संशोधन लाया गया कि अगर कुछ प्रतिनिधि न्याय के पक्ष में जनहित का निर्णय लेना चाहें तो पार्टी सुप्रीमो के निर्णय की इच्छा के विरूद्ध जाने से सदन की सदस्यता खो देंगे। यह भय और लालच की तकनीक थी जिसे सभी दलों ने इस्तेमाल किया, लेकिन सन 2004 में इस 33% के समूह को और कमज़ोर करने के लिए दोबारा संशोधन लाया गया और व्हिप(चाबुक) को और मज़बूत बनाया गया जिससे कि पार्टी निर्णय के विरोध में जाने की कोई हिम्मत न कर सके और यह व्यवस्था अगर बनी रही तो देश में कभी एक व्यक्ति की तानाशाही कायम हो जाएगी।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या यह संभव नहीं था कि संशोधन में ऐसी व्यवस्था बनाई जाती कि आयाराम-गयाराम लोकतंत्र विरोधी कुचेष्टा न कर पाए। जिससे मतदाता की अभिव्यक्ति और सांसद की निर्णय की स्वतंत्रता क़ायम रह सके।
शायद एक ऐसी व्यवस्था आज भी बिना कानून बदले बनाई जा सकती है। राजनैतिक दल के कार्यकर्ता के श्रम और पार्टी के फंड का किसी उम्मीदवार को जीतने के लिए बड़ा योगदान होता है। इसलिए ऐसा व्यावहारिक प्रबंध किया जाए कि जब अविश्वास का प्रस्ताव या कोई ऐसी परिस्थिति बने जिसमें मत-विभाजन होने पर सरकार गिर जाए तभी व्हिप का प्रयोग किया जाए। ऐसी व्यवस्था से बहुमत से चुनी हुई एकदलीय या बहुदलीय सरकार अपदस्थ नहीं होगी।
व्हिप(चाबुक) का प्रयोग न होने से प्रत्येक बिल, कानून एवं बजट आदि में प्रतिनिधि के निर्णय की स्वतंत्रता भी क़ायम रहेगी। इसके साथ ही यह व्यवस्था भी बनाई जाए कि मतदान गोपनीय न हो। ऐसा होने से संबंधित प्रतिनिधि का मतदाता जान सकेगा कि उसके प्रतिनिधि ने किसके हित में निर्णय लिया है। क्योंकि राजनैतिक दलों के अंदर निरंतर जन विरोधी निहित स्वार्थ अधिक शक्तिशाली होते जा रहे हैं। जो लोकतंत्र को ही समाप्त कर देंगे।
व्हिप शब्द असंसदीय घोषित होना चाहिए क्योंकि व्हिप(चाबुक) का उपयोग घोड़े को निर्देश देने, तेज़ चलने या दंड देने के लिए होता है।
नोट : सन्नद्ध लोकसभा-राज्यसभा में आने वाले बिलों पर निर्णय लेनेके लिए मतदाता अपने-अपने क्षेत्र में सभी पर्टियों के प्रतिनिधियों को कहें कि हमें इस बिल संशोधन क़ानून में निर्णय लेने के लिए पार्टी व्हिप जारी ना करे, जिससे कि जनहित, न्यायहित में हम स्वतंत्र होकर अपने विवेक से निर्णय ले सकें और यह मतदान पारदर्शी हो जिससे हम अपने मतदाता के हमारे प्रति उठे अविश्वास को भी दूर कर सकें। ऐसा करने से किसी भी पार्टी का कोई अहित नहीं होने वाला है और यह अधिकार पार्टी के पास सुरक्षित है, कि वह व्हिप जारी करे या ना करे, और सांसद यह भी कहें कि वे चाहते हैं कि इस बार से ही पार्टियाँ व्हिप(चाबुक) जैसे अपमान जनक शब्द का प्रयोग हमारे लिए न करें, कोई दूसरा शब्द चुन लें।
अनंत जौहरी ( लेखक मूलत: किसान हैं, किसान अधिकार मंच के माध्यम से अन्नदाता की आवाज बुलंद करते आ रहे हैं, देश -विदेश में किसानों के हितों की बात पर चर्चा-परिचर्चा, मध्य प्रदेश के अनूपपुर से ताल्लुक, इनसे kisan.adhikar@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं. )
- अनंत जौहरी
66-A रद्द करने का निर्णय ऐसे समय में न्यायपालिका ने किया है जबकि पूरे देश में इस समय भूअधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में जन-जन मुखर हो गया है। सामंती राज सत्ता का यह चरित्र रहा है कि वह जनता की न्याय पूर्ण आवाज़ को किसी प्रकार दबाता रहे। लोकतंत्र में हमारे संविधान में मूल अधिकारों में शामिल होने के पश्चात भी हमेशा प्रेस, आंदोलनों एवं व्यक्तियों द्वारा उठाई जन आवाज़ को रोका गया है। परंतु न्यायपालिका के हस्ताक्षेप से यह स्वतंत्रता वापस आती रही है। लेकिन हमेशा न्यायपालिका की छतरी का उपयोग उचित नहीं है।
सवाल यह है कि जिला मुख्यालयों, जंतर-मंतर और मशाल जुलूस पर उठती आवाज़ें केवल आवाज़ें ही बनकर रह गईं हैं, निर्णय में परिवर्तित नहीं हो पातीं। भगतसिंह ने असेम्बली में बम फेंका था कि ब्रिटिश राज के बहरे कान विरोध को सुनें लेकिन तब से आज तक ने राज्य ने ऐसे तरीके ढूँढ लिए हैं कि आवाज़ों का असर कम होता जा रहा है। राज्य थकाता है, निराश करता है।
लोकतांत्रिक संविधान में यह व्यवस्था है कि ऐसी आवाज़ों को निर्णय में बदला जाए। इसीलिए व्यापक और प्रभावशाली अभिव्यक्ति को निर्णय में बदलने के लिए “निर्णय की स्वतंत्रता” का प्रावधान संविधान में रखा गया है। जिसे इस समय बाधित कर दिया गया है।
हमारे मूल संविधान में राजनैतिक दलों को निर्णय का कोई अधिकार नहीं दिया गया है। परंतु आज निर्णय सत्ताधारी दल ही लेता है और अधिकतर सारे विपक्षी दल इसका विरोध करते हैं। संविधान में तो “राजनैतिक दल” यह शब्द ही नहीं है। संविधान निर्माता ज़रूर यह जानते थे कि आगे आने वाले समय में राजनैतिक दल एकाधिकारी प्रवृत्ति से ग्रसित हो जाऐंगे। शायद उन्हें पश्चिम के पूँजीवादी लोकतंत्र से यह सीख मिली हो।
मूल संविधान के अनुसार विधान सभा, लोक-सभा में हमारे चुने हुए प्रतिनिधि को अपने विवेक और मतदाता के मतानुसार निर्णय लेने का ‘अधिकार था’ परंतु संविधान के विरोधाभासों का इस्तेमाल करते हुए राजनैतिक दलों ने अपने अधिकार निरंतर बढ़ाए, दल-बदल कानून लाकर सर्वसम्मति से सभी राजनैतिक दलों ने सांसद और विधायकों के ‘निर्णय के अधिकार’ को पूरी तरह से छीन लिया। उन्हें पार्टी का गुलाम बना दिया। राजनैतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र के धकाते जाने से आज लगभग सभी पार्टियों में सुप्रीमो ही निर्णय लेते हैं। इस प्रकार संविधान प्रदत्त निर्णय का अधिकार जन प्रतिनिधि से छीनकर लगभग सभी पार्टियों के सुप्रीमो के पास चला गया है।
दल-बदल कानून उस समय लाया गया जब आया राम-गया राम का खेल चल रहा था। हॉर्स ट्रेडिंग (घोड़ा ख़रीद) हो रही थी। 1984 में पहली बार लाए गए दल-बदल कानून में 35% सांसद या विधायक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी बनाकर गयाराम हो सकते थे, ऐसा कानून बना। उस समय आयाराम-गयाराम के विरूद्ध जन भावना बन गई थी। इस अवसर का फायदा उठाते हुए चालाकी से ऐसा संविधान संशोधन लाया गया कि अगर कुछ प्रतिनिधि न्याय के पक्ष में जनहित का निर्णय लेना चाहें तो पार्टी सुप्रीमो के निर्णय की इच्छा के विरूद्ध जाने से सदन की सदस्यता खो देंगे। यह भय और लालच की तकनीक थी जिसे सभी दलों ने इस्तेमाल किया, लेकिन सन 2004 में इस 33% के समूह को और कमज़ोर करने के लिए दोबारा संशोधन लाया गया और व्हिप(चाबुक) को और मज़बूत बनाया गया जिससे कि पार्टी निर्णय के विरोध में जाने की कोई हिम्मत न कर सके और यह व्यवस्था अगर बनी रही तो देश में कभी एक व्यक्ति की तानाशाही कायम हो जाएगी।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या यह संभव नहीं था कि संशोधन में ऐसी व्यवस्था बनाई जाती कि आयाराम-गयाराम लोकतंत्र विरोधी कुचेष्टा न कर पाए। जिससे मतदाता की अभिव्यक्ति और सांसद की निर्णय की स्वतंत्रता क़ायम रह सके।
शायद एक ऐसी व्यवस्था आज भी बिना कानून बदले बनाई जा सकती है। राजनैतिक दल के कार्यकर्ता के श्रम और पार्टी के फंड का किसी उम्मीदवार को जीतने के लिए बड़ा योगदान होता है। इसलिए ऐसा व्यावहारिक प्रबंध किया जाए कि जब अविश्वास का प्रस्ताव या कोई ऐसी परिस्थिति बने जिसमें मत-विभाजन होने पर सरकार गिर जाए तभी व्हिप का प्रयोग किया जाए। ऐसी व्यवस्था से बहुमत से चुनी हुई एकदलीय या बहुदलीय सरकार अपदस्थ नहीं होगी।
व्हिप(चाबुक) का प्रयोग न होने से प्रत्येक बिल, कानून एवं बजट आदि में प्रतिनिधि के निर्णय की स्वतंत्रता भी क़ायम रहेगी। इसके साथ ही यह व्यवस्था भी बनाई जाए कि मतदान गोपनीय न हो। ऐसा होने से संबंधित प्रतिनिधि का मतदाता जान सकेगा कि उसके प्रतिनिधि ने किसके हित में निर्णय लिया है। क्योंकि राजनैतिक दलों के अंदर निरंतर जन विरोधी निहित स्वार्थ अधिक शक्तिशाली होते जा रहे हैं। जो लोकतंत्र को ही समाप्त कर देंगे।
व्हिप शब्द असंसदीय घोषित होना चाहिए क्योंकि व्हिप(चाबुक) का उपयोग घोड़े को निर्देश देने, तेज़ चलने या दंड देने के लिए होता है।
नोट : सन्नद्ध लोकसभा-राज्यसभा में आने वाले बिलों पर निर्णय लेनेके लिए मतदाता अपने-अपने क्षेत्र में सभी पर्टियों के प्रतिनिधियों को कहें कि हमें इस बिल संशोधन क़ानून में निर्णय लेने के लिए पार्टी व्हिप जारी ना करे, जिससे कि जनहित, न्यायहित में हम स्वतंत्र होकर अपने विवेक से निर्णय ले सकें और यह मतदान पारदर्शी हो जिससे हम अपने मतदाता के हमारे प्रति उठे अविश्वास को भी दूर कर सकें। ऐसा करने से किसी भी पार्टी का कोई अहित नहीं होने वाला है और यह अधिकार पार्टी के पास सुरक्षित है, कि वह व्हिप जारी करे या ना करे, और सांसद यह भी कहें कि वे चाहते हैं कि इस बार से ही पार्टियाँ व्हिप(चाबुक) जैसे अपमान जनक शब्द का प्रयोग हमारे लिए न करें, कोई दूसरा शब्द चुन लें।
अनंत जौहरी ( लेखक मूलत: किसान हैं, किसान अधिकार मंच के माध्यम से अन्नदाता की आवाज बुलंद करते आ रहे हैं, देश -विदेश में किसानों के हितों की बात पर चर्चा-परिचर्चा, मध्य प्रदेश के अनूपपुर से ताल्लुक, इनसे kisan.adhikar@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं. )
जिसने सबको बनाया और जो मौत और तकदीर पर नियंत्रण रखता है, उस खुदा को भी उस वक्त खून के आंसू निकल आते होंगे जब अन्नदाता काल के गाल में समा जाता है. खुदा तो सिर्फ जीवन का दाता है, पालता तो किसान है. दुनिया को पालने वाले किसान इस लोकतंत्र में खुद को पाल नहीं पा रहे हैं. हमें पालने वाले किसान मौत को गले लगा रहे हैं और हम डिनर पर टीवी के सामने बैठकर क्रिकेट के छक्कों पर ताली बजा रहे हैं. हम टीवी फोड़ देते हैं, बरतन तोड़ देते हैं, सोशल साइट्स पर अनसोशल हो जाते हैं, हमारी देशभक्ति जोर मारने लगती जब हमारी टीम हार जाती है. लेकिन हमारा खून नहीं खौलता जब हमें डिनर कराने वाला जिन्दगी की जंग हार जाता है. हमारा अन्नदाता जब फांसी के फंदे को अपने गले का हार बना लेता है, हम चुप रहते हैं, फिर भी हम संवेदनशील कहे जाते हैं, कथित सभ्य भी !
ReplyDelete'भारत एक कृषिप्रधान देश है, किसान हमारे अन्नदाता हैं.' इन सारे जुमलों को सुनकर अब हंसी छूट जाती है. गुस्सा आता है. खून खौलता है. 'सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है, कभी देखा है पत्थर पे भी कोई बेल लगती है. कोई भी अंदरूनी गंदगी बाहर नहीं होती, हमें इस हुकूमत की भी किडनी फेल लगती है..' मशहूर शायर मुनव्वर राना के इस शेर सरीखी ही तबीयत 'सरकार' की. सरकार में राज्य से लेकर केंद्र तक को देखें, इसे अलहदा ना समझें क्योंकि सत्ता का स्वरूप एक ही होता है. बेमौसम हुई बारिश के बाद जम्हूरियत की आंखें उम्मीदबर हैं और दिल बेचैन. जुबां खामोश हैं, पर जेहन में सवालों का शोर. बेमौसम बारिश और ओलों से यूपी से लेकर एमपी तक में किसान मौत को गले लगा रहे हैं लेकिन उनकी मौत भी हमारे 'ज़िल्ले इलाही' को जगा नहीं पा रही है. किसानों का इरादा जख्मों पर मरहम लगाने का है, लोग भी हर तरह 'साहेब' के मुंह से इमदाद सुनने को बेसब्र हैं. अपने उघड़े जख्मों पर मरहम लगाने की उम्मीद लगा रहे हैं, दवा तो नसीब नहीं हुई लेकिन मध्य प्रदेश के कलेक्टर साहेब ने उस पर नमक जरूर रगड़ दिया. डीएम साहेब ऑडियो स्टिंग में कह रहे हैं, 'हम तो तंग आ गए हैं रोज-रोज की.....जो मरेगा इसी की वजह से मरेगा क्या... इतने बच्चे पैदा किए तो टेंशन से प्राण तो निकलेंगे ही...पांच-पांच, छह-छह छोरा-छोरी पैदा कर लेते हैं...और आत्महत्या कर हमको बदनाम करते हैं..' ये टेक्नोलॉजी है कि साहेब पकड़े गए. वैसे कमोबेश हम सूबे के साहेब की यही सोच है. मन की बात के जरिए जम्हूरियत से सीधे संवाद कर रहे हैं हमारे जिल्ले इलाही लेकिन उनतक हमारे मन की बात को कौन बताए. जब बीच वाले साहेब की सोच यही है. प्रधानमंत्री ने कॉरपोरेट को सुरक्षा देने के लिए अपनी पूरी 'स्किल' लगा दी है. पूंजीपतियों ने इसे अपने 'स्केल' पर खूब सराहा है. किसानों के मरने की 'स्पीड' वैसे ही बनी हुई है. किसान मरता है तो मरने दो. बस गाय बचा लो. गाय धर्म है, वोट है, फिर सत्ता में आने का जरिया है.
किसानों की मौत से संसद का सीना ‘दुःख और दर्द से छलनी हो जाय’ यह हादसा क्यों नहीं होता! किसानों के जज्बात को, इज्जत से जिन्दा रहने की जिद को नए रास्ते क्यों नहीं मिलते, अभी तक मैं समझ नहीं पाया. मेरे दादा जी अक्सर कहा करते थे कि उत्तम खेती, मध्यम बान, निखिद चाकरी भीख निदान. पूर्वांचल के लोग इस कहावत को अच्छी तरह से समझ जाएंगे. फिर ऐसा क्या हुआ कि सबका 'दाता' भिखारी बनता गया. मुल्क के हुक्मरानों को न केवल इस गहराती गई त्रासदी का पता था बल्कि काफी हद तक वे ही इसके लिए जिम्मेदार भी थे. इतनी बड़ी आबादी के खेती पर निर्भर होने के बावजूद किसानों को लेकर केवल राजनीतिक रोटियां सेंकी गईं, क्योंकि परिणाम नीति और नीयत की पोल खोल देते हैं. मुझे घिन आती है उस देश की व्यवस्था पर जिसके गोदामों में अरबों का अनाज सड़ जाता है पर सरकार भूखमरी के शिकार लोगों में वितरित नहीं करती?
साहेब कोई किसान यूं ही नहीं मरता. उसे मरने पर मजबूर करती है आपकी व्यवस्था, उसे मारता है बेटी की डोली न उठ पाने का दर्द, उसे मारता है अपने बच्चे को रोटी नहीं दे पाने की कसक, उसे मारती है अपने दुधमुंहे बच्चे को दूध देने के लिए बनिये की दुकान पर मंगलसूत्र रखने को मां की मजबूरी, उसे मारती है हमारी और आपकी चुप्पी.