वन्य जीवन की विधाओं के पितामह को श्रद्धांजली
शिकारी से वन्य जीव सरंक्षक बनने की दास्तान
१५ अगस्त सन १९१७ को जन्मे बिली अर्जन सिंह जो ब्रिटिश भारत की कपूरथला रियासत के राजकुमार थे और लखनऊ के प्रथम भारतीय कलेक्टर जसवीर सिंह के छोटे पुत्र, नैनीताल में प्राथमिक शिक्षा, स्नातक इलाहाबाद से और फिर ब्रिटिश इंडियन आर्मी में नौकरी, द्वितीय विश्व युद्ध में वर्मा व् अफ्रीका में हिस्सेदारी यह शुरुवात थी अर्जन सिंह के जीवन की जबकि उनकी जिंदगी के असली मकसद को नियति ने अभी पोशीदा कर रखा था.
बिली का बचपन सयुंक्त प्रांत की बलरामपुर स्टेट में गुजरा वजह थी की अंग्रेज सरकार ने वहां के राजा के अक्षम होने के कारण बिली के पिता जसवीर सिंह को कोर्ट ऑफ वार्ड नियुक्त किया था. बलरामपुर रियासत में बिली ने १३ वर्ष की आयु में पहला शिकार किया वह तेंदुआ था और १४ वर्ष की आयु में एक बाघिन का। … कभी खीरी के जंगलों में भी वह अपने राजकुमार मित्रों के साथ शिकार के लिए आये थे. और शायद तभी यहां के जंगलों ने उस शिकारी का मन मोह लिया और उसने निश्चय किया होगा की कभी यहाँ बस जाया जाए। ....
… और यह शुरुवात हुई जब वह सं १९४६ में लखीमपुर खीरी के पलिया कलां गाँव में पहुंचे उस मीटरगेज रेलवे से जो खीरी के जंगलों से शाखू के वृक्षों को काटकर रेलवे पटरी बिछाने में इस्तेमाल की जाती थी, की ढुलाई के लिए बिछाई गयी थी। .
उस वक्त पलिया के निकट एक जमीन खरीदकर उन्होंने खेती करने का निश्चय किया और उस जगह का नाम उन्होंने अपने पिता के नाम पर रखा "जसवीर नगर". सन १९५९ में बिली अपनी माँ द्वारा भेजी गयी हथिनी से खीरी के जंगलों में घूम रहे थे तभी उन्हें सुहेली व् नेवरा नदी के मिलान पर वह जगह दिखाई दी जो बहुत सुन्दर और चारो तरफ से जंगलों से घिरी हुई थी और यही जगह बाद दुनिया में "टाइगर हावेन के नाम से मशहूर हुई"
बिली अर्जन सिंह ने जंगल के मध्य इस जगह पर एक घर बनाया जहां वो वन्य जीवों के साथ रहे अपने जीवन के अंतिम समय तक और इस जगह पर ही दुनिया का पहला सफल प्रयोग हुआ बाघ व् तेंदुओं का उनके प्राकृतिक आवास यानी जंगलों में पुनर्वासन का.
बिली अर्जन सिंह ने लखीमपुर खीरी के इन जंगलों के महत्त्व और इनकी खासियतों को पूरी दुनिया को बताया नतीजतन यहां तक पहुँचने की तमाम कठिनाइयों के बावजूद देश विदेश के वन्य जीव विशेषज्ञ फिल्ममेकर्स फोटोग्राफर यहाँ आये और उन्होंने बिली की अनुभवों को साझा किया सारी दुनिया से और यहीं से शुरुवात हो गयी खीरी के जंगलों की प्रसिद्धि की.
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड भारत की फाउंडर मेंबर श्रीमती एन राइट ने सबसे पहले बिली को एक तेंदुएं के बच्चे को दिया जिसकी मान का शिकार बिहार में कही किसी शिकारी ने कर दिया था इस आर्फन लियोपार्ड बेबी को बिली ने टाइगर हावेन में पाला और इसे नाम दिया प्रिंस। प्रिंस की परवरिश टाइगर हावेन के जंगली माहौल में हुई और वह खीरी के जंगलों में पुनर्वासित हुआ पर इस जीव को आस पास के लोगों ने डर की वजह से जहर दे दिया। फिर भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री ने बिली को तो मादा तेंदुए दिए जो हैरियट और जूलियट कहलाये। जर्मनी की एंजेलिया सर्वाइवल कंपनी ने हैरियट पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई जिसमें यह साबित हुआ की हैरियट ने जंगल में अपने को सफलता पूर्वक पुनर्वासित कर लिया और उसने खीरी के जंगल के नर तेंदुए से मिलान के बाद बच्चे भी दिए यह सब उस डॉक्यूमेंट्री में कैद हुआ जिसे देखकर दुनिया का हर वन्य जीव विशेषज्ञ अच्चभित सा था.
सन १९७६ में तारा यानी इंगलैंड के टाइक्रास जू से लाई गयी वह बाघिन बच्ची जेन, जिसे बिली अर्जन सिंह ने टाइगर हावेन में प्रशिक्षित किया और यह बाघों के पुनर्वासन का प्रयोग सफल हुआ सं १९८० के आते आते तारा यहां के जंगलों में रहने वाले बाघों से घुल मिल गयी थी , तारा की भी संताने हुई और इस बात का खुलासा जेनेटिक साइंस के माध्यम से हुआ जब दुधवा के बाघों में साइबेरियन गईं पाया गया चूंकि तारा चिड़ियाघर की पैदाइश थी और वह साइबेरियन नस्ल के बाघ का क्रास थी, इस तरह दुधवा दुनिया का पहला जंगल बना जहां बाघों की दो नस्ले मौजूद हैं, रॉयल बंगाल टाइगर और साइबेरियन, प्रकृति में अडाप्टेशन का यह बेहतरीन नमूना है.
यहां यह भी बताना जरूरी है अर्जन सिंह का नाम बिली क्यों पड़ा, दरअसल बिली की बुआ राजकुमारी अमृत कौर जो महात्मा ग़ांधी की शिष्या और भारत की प्रथम महिला स्वास्थ्यमंत्री थी इन्होंने ही अर्जन सिंह को बिली कहाँ और आज अर्जन सिंह पूरी दुनिया में बिली अर्जन सिंह के नाम से प्रसिद्द है.
बिली सेन्ट्रल वाइल्ड लाइफ बोर्ड के मेंबर रहे और आजीवन दुधवा नेशनल पार्क के आनरेरी वार्डन भी, भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की सहायता से इन्होने खीरी के जंगलों को सरक्षित किया और भारत सरकार ने इसे २ फरवरी सन १९७७ को नेशनल पार्क का दर्जा अब यह खीरी के जंगलों का हिस्सा दुधवा नेशनल पार्क के नाम से जाना जाता है, टाइगर प्रोजेक्ट की शुरुवात के बाद दुधवा नेशनल पार्क में खीरी जंगल की एक और सैंक्चुरी जिसे किशनपुर वन्य जीव विहार कहते है से जोड़कर यहां टाइगर प्रोजेक्ट की शुरूवात में इसमें पड़ोसी जनपद बहराइच की कतर्नियाघाट वन्यजीव विहार को भी जोड़ दिया गया, इस तरह दुधवा नेशनल पार्क, दुधवा टाइगर रिजर्व बना.
बिली के प्रयासों के लिए उन्हें भारत सरकार ने पद्म श्री, पद्म भूषन सम्मानों से नवाजा, वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड ने स्वर्ण पदक से और वन्य जीवन व् पर्यावरण के क्षेत्र में नोबल कहे जाने वाले पुरस्कार "पॉल गेटी" से बिली को विभूषित किया गया. सन २००६ में उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने बिली को यश भारती सम्मान से सम्मानित किया।
बिली अर्जन सिंह ने तराई के जंगलों का जो इतिहास अपनी किताबों में लिखा वह अतुलनीय है, टाइगर टाइगर, टाइगर हावेन, तारा- ए टाइग्रेस, प्रिंस ऑफ़ कैट्स, द लीजेंड्स ऑफ़ द मैनईटर्स, एली इन द बिग कैट्स, ए टाइगर्स स्टोरी, अर्जन सिंह'स टाइगर बुक, वाचिंग इंडियाज वाइल्ड लाइफ। बिली की बायोग्राफी एक ब्रिटिश अंग्रेज पत्रकार डफ हार्ट डेविस ने लिखी जिसका नाम है "ऑनरेरी टाइगर" इस किताब को पारी दुनिया के वन्य जीव प्रेमियों के मध्य बहुत सराहना मिली।
बिली अर्जन सिंह और उनका वह टाइगर हावेन अब किताबों में और लोगों के जहाँ में किस्से बनकर पैबस्त है, दुधवा की स्थापना करवाने वाला यह व्यक्ति और इनकी वह प्राकृतिक प्रयोगशाला टाइगर हावेन दुनिया भर के वन्य जीव प्रेमियों के लिए तीर्थ स्थल है
१ जनवरी २०१०, बिली अर्जन सिंह का देहावसान हुआ, आज बिली अर्जन सिंह की नामौजूदगी दुधवा की आबो हवा में महसूस होती है, सुहेली अब धीमी रफ़्तार में बहने लगी है, बारहसिंघा अपना वजूद खो रहे है, बाघ मारे जा रहे है, जंगल काटे, पर अब कोई नहीं है जो दुधवा के दर्द को बयान करे और लड़ाई लड़ सके इन्तजामियां से इस भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ। दुधवा के जंगलों के इस संत की छठवीं पुण्य तिथि पर उन्हें नमन.…
( यह लेख डेली न्यूज एक्टीविस्ट अखबार में सम्पादकीय पृष्ठ पर १ जनवरी २०१५ को प्रकाशित हो चुका है)
( यह लेख डेली न्यूज एक्टीविस्ट अखबार में सम्पादकीय पृष्ठ पर १ जनवरी २०१५ को प्रकाशित हो चुका है)
कृष्ण क़ुमार मिश्र
संस्थापक - दुधवा लाइव
लखीमपुर खीरी
krishna.manhan@gmail.com
editor.dudhwalive.com
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