23 दिसंबर 2014 किसान दिवस
समाजवाद
का ये ही नारा-
नही
मरा किसान हमारा !
गत
26 फरवरी
को विधान सभा सत्र में उत्तर
प्रदेश के बाँदा जिले
से कांग्रेस के विधायक दलजीत
सिंह ने और हमीरपुर से भाजपा
विधायक साध्वी निरंजन ज्योति
ने बुंदेलखंड में किसान
आत्महत्या और कर्ज
से खुदकुशी का मामला प्रश्नकाल
में उठाया.
साध्वी
निरंजन ने बाकायदा
किसानो के नाम गिनवाकर सदन
से पूछा कि बुंदेलखंड का किसान
कर्ज से टूट कर आत्महत्या
क्यों कर रहा है ?
अब
तक कितने किसानो ने बुंदेलखंड
में आत्महत्या की है ?
उन्होंने
राजस्व मंत्री अम्बिका चौधरी
से जानना चाहा कि किसानो का
इस बेमोसम बारिस से कितना
नुकसान हुआ , किसान
को कितना मुआवजा दिया जायेगा
और कब ? इस
पर जवाब में सपा के
शिवपाल सिंह यादव और राजस्व
मंत्री ने कहा कि बुंदेलखंड
का आज तक कोई किसान कर्ज से
नहीं आत्महत्या किया है !
जबकि
बीते साल के अंत तक बुंदेलखंड
में 3269 किसानो
ने कर्जखोरी में आत्महत्या
की है l और
7 जनवरी
2014 से
14 नवम्बर
2014 तक
कुल 58 किसान
आत्महत्या से जान दिए है जहाँ
तक कर्जमाफी का सवाल है तो
समाजवादी सरकार
ने बुंदेलखंड में 29928
किसानो
का 62 करोड़
82 लाख
74 हजार
617 रुपया
कर्जा माफ़ किया है !
यहाँ
ये भी बतलाना है कि बुंदेलखंड
का अधिकतर किसान बड़े
बैंक मसलन एसबीआई,
इलाहाबाद
यू.पी.
ग्रामीण
बैंक अन्य का कर्जा लिए है
जबकि न के बराबर किसान
कापरेटिव बैंक से कर्जा लिए
है जिसका कर्जा समाजवादी
सरकार ने माफ़ी किया
है.
चुनाव
पूर्व इसी सरकार के नेताओ ने
किसानो का पूरा
कर्जा माफ़ किये जाने की घोषणा
की थी सरकार
ने कभी ये माना ही नही कि कोई
किसान कर्ज से मर रहा
है ये सरकार रही हो या और कोई
मगर
हाँ जब जिसकी सरकार
नही होती है तो अवश्य विपक्षी
दल किसान को मुद्दा बनाने का
काम कर रहा होता है
सत्ता आने पर सब भूल जाते है
इस किसान को लोकसभा
चुनाव 2014 में
हर पार्टी का अपना चुनावी
मेनिफेस्टो – घोषणा पत्र बना. विकास
के बरगलाने वाले और अच्छे
दिनों के ख्याली मुद्दों के
साथ केंद्र सरकार भी बन गई.
माननीय
लोगो के अगर पिछले 5
साल
के रिपोर्ट कार्ड देखे जाये
तो शायद कोई सांसद अपने मतदान
क्षेत्र में एक माह भी लगातार
रहा हो ये बड़ी बात है क्यों
हर लोकसभा या विधान सभा क्षेत्र
का घोषणा पत्र वहां की आवाम
या किसान के साथ बैठकर तैयार
नही किया जाता है ?
आखिर
क्यों जनता से ये नही पूछना
वाजिब समझा जाता है कि आपको
विकास किन शर्तो पर और किस
स्वरुप में चाहिए ?
केन
– बेतवा नदी गठजोड़ जैसी प्रकृति
विरोधी बांध परियोजना बनाकर
केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री
उमा भारती कौन सा जल संकट समाधान
करने जा रही है ? नपुंसक
बीजो पर खेतो में तैयार होती
फसले सरकारी खाद और बीज गोदाम
के चक्कर लगाकर कमीशन खोरी
में तरबतर है. ओला,
पाला
या सूखे से टूटे खेतो की जान
लेने का ज़िम्मेदार ये किसान
नीतियाँ ही है जिनमे किसान
हित नही होता बल्कि यूज़ कर्जदार
, मुफ्तखोर
बना देने की साजिश होती है.
यह
सियासत को ही तय करना पड़ेगा,
किसान
को गर अन्नदाता मानकर चलते
है तो चुनाव के पहले और बाद
में उसको कृषि नीति में सहभागी
नियोक्ता के रूप में रखना
चाहिए. नदी
– बांध परियोजना बनाते समय
किसान – आदिवासी लोगो से सुझाव
लेना चाहिए.
आशीष
सागर दीक्षित (लेखक बुंदेलखंड की जल जंगल और जमीन के मसायल पर संघर्षशील सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार व् प्रवासनामा पाक्षिक पत्रिका के संपादक है इनसे prawasnama@gmail.com पर संपर्क कर सकते है )
‘भारत- निर्माण’ ‘अतुल्य- भारत’ तथा ‘इंडिया विज़न- २०२०’ जैसे आकर्षक और लोकलुभावन नारों के बीच आज हमें २१वीं सदी में आये एक दशक से ज़्यादा हो चुका है। क्या वाकई हम अपने आप को उपरोक्त आदर्शवादी और आशावादी सपने को वास्तविक धरातल पर पाते है??
ReplyDeleteकहा जाता है की मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता होता है। इतिहास साक्षी है हमारे ‘भाग्य निर्माण’ का और ‘भारत निर्माण’ का। भारत के ३५ राज्यों / केन्द्रशासित प्रदेशों, ६४० जिलों, ५९२४ तहसीलों / तालुकों, ७९३३ कस्बों (४०४१ सांविधिक नगर और ३८९२ जनगणना नगर) तथा ६.४१ लाख गांव और गावों का भाग्य निर्माता, भारतीय ग्रामीण किसान। हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि तथा उसकी मजबूती का मूलाधार ग्रामीण कृषक ! जो कड़ी धूप, मुसलाधार बारिश- सूखे की मार सहकर जब यह घुटनों तक कीचड़ से भरे खेतों में जाता है तो सुगन्धित बासमती एवं भारत के १२१०५६९५७३ करोड़ (२०११ की जनगणना के अंतिम आकड़ों पर आधारित) लोगों की रोटी का इंतजाम होता है, पर विडम्बना ये कि आज तक कभी कोई राष्ट्रीय नागरिक सम्मान इन्हें नहीं मिला। आज नयी सदी के भारत की ब्रिटिश नीति ‘इंडिया’ अपने भाग्य निर्माता का मूल्याकन नहीं करना चाहती ……..और करे भी क्यों ?……….क्योंकि गुलाम मानसिकता वाले राष्ट्र का मूल्यांकन करे कौन ??
आज जब हम अपनी प्राचीन गौरवशाली सांस्कृतिक परम्परा का सिंहावलोकन करे तो पाते है कि इस सांस्कृतिक समृध्दि के पीछे एक मजबूत आर्थिक- सामाजिक अवसंरचना का कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा है। तभी हम संसार की प्राचीनतम सजीव सभ्यता एवं संस्कृतियों में से है।
वर्तमान परिदृश्य में हमारी समाजगत जटिलता के मूल में, सांस्कृतिक समन्वय एवं ग्रामीण सामाजिक अधोसंरचना तथा एक राष्ट्र की अवधारणा की केन्द्रीय भूमिका से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है। फिर भी आज सबसे ज्यादा उपेक्षित और तिरस्कृत यही पक्ष ‘भारत’ है। हमारी दिव्आयामी मानसिकता तथा उससे उपजी दिव् राष्ट्र की अवधारणा ……जिसमे पहला पक्ष ‘भारत’ और दूसरा पक्ष ‘इन्डिया’।
आज हमारे सामने की द्वन्द की स्थिति है, जिसमें यही दोनों पक्ष आमने सामने है और उसमे भी ‘इन्डिया’ का पक्ष ‘भारत’ पर हावी है।
आज हमारे पास नारे तो बड़े मनोहारी तथा दावे बड़े तर्कशील हैं, किन्तु वास्तविकता में उन्हें क्रियान्वित करने की दृढ़ इच्छाशक्ति एवं मजबूत संकल्पशक्ति का सर्वथा आभाव सा दृष्टिगत होता है। इतनी विशाल शक्ति का स्वामी होने तथा उसमें भी युवाओं की प्रतिशतता आधे से कही ज़्यादा होने के बावजूद ‘आज का युवा भारत’ क्यों २१वीं सदी में ‘विकासशील से विकासोन्मुख’ के बीच ही मैराथन दौड़ का हिस्सा मात्र बना हुआ है? जहाँ तक मेरी समझ है इसका मूल स्रोत महज़ किताबी ज्ञान है क्योंकि इस देश में एयरकंडीसन कमरों में बैठकर जमीन से जुड़ी नीतियों / नियमों का क्रियान्वयन उन हाथों में सौपा जाता है जिनका वास्तविक रूप में उस विषयवस्तु से दूर दूर तक कभी कोई ताल्लुक रहा ही नहीं।
आज हम जनसंख्या- विस्फोट का हवाला देते हुए उसके केवल नकारात्मक पक्ष की ही बात करते है, हमारा ध्यान उसके दुसरे सकारात्मक पक्ष उसके विशाल और मानव शारीरिकी एवं बौद्धिक सम्पदा पर क्यों नहीं जाता जो की एक मजबूत अर्थव्यवस्था का आधार है। बाजारीकरण के इस युग में आज इस विशाल बाज़ार पर अपनी गिद्ध दृष्टि जमाए बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जिस तीव्र गति से अपने पाँव पसार रही है उससे क्या निष्कर्ष निकला जा सकता है ?
निष्कर्ष सिर्फ इतना ही नहीं होगा की इंडिया सिर्फ एक Economic Hub के रूप में विकसित होता एक बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार दिखता तो प्रतीत होगा ……..बल्कि निष्कर्ष ये भी होगा कि भारत गरीबी भुखमरी और गुलामी की तरफ भी बढ़ेगा। आज यह गुलामी हमारी मानसिक और बौद्धिक गुलामी का प्रतीक बन रही है।
पिछले ६ दसको में देश बदला है पर आम आदमी की जिंदगी और मुश्किल हुई है। जो हजारो टन अनाज सड़ रहा है वो ऐसे ही सड़ता रहेगा। गरीब चाहे भूखा मरे पर स्टाइल मारने का हक तो उसे भी है…..उसके झोपड़ों तक बिजली, पीने का साफ पानी नहीं पहुंचा पर टीवी पहुंचा दी गई, ताकि मूर्खों के स्वप्रलोक में वह भी मगन रहे, राजनीति का एक सिद्धांत है …अगर जनता को तुम रोटी नहीं दे सकते तो उन्हें सर्कस दिखाओ !
पहला सारी नदियां पी गया
ReplyDeleteक्योंकि वह बहुत प्यासा था
दूसरा सारे जंगल भकोस गया
क्योंकि वह बहुत भूखा था
तीसरा सारी जमीन हड़प गया
क्योंकि उसका कुनबा बहुत बड़ा हो गया था
ऐसा कहती हैं सरकारी रपटें
और जब हम अपनी भूख प्यास
और छत की बात करते हैं
सरकारी रपटें कुछ नहीं कहती
पुलिस का बयान कहता है
कुछ अतिवादी लोग मार गिराए गए हैं....!
किस सरकार से उम्मीद लगाए हैं जो ख़ुद भूमि अधिग्रहण जैसे तमाम कानूनों, नीतियों को बदलना ही अपनी मुख्य नीति बनाए है!!??...छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उत्तराखण्ड तो सब इन्हीं के सताए हुए हैं!! बड़े पैमाने पर कृषि भूमि और किसान तबाह किए जा रहे हैं!!...कुछ इनसे ज़्यादा आगे हमें सोचने की ज़रूरत है!!...
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