-कृष्ण कुमार मिश्र
आज फिर हमारे लखीमपुर खीरी के अवधीकवि व् प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के तत्कालीन विधायक पंडित बंशीधर शुक्ल जी याद आ गए और याद आ गयी उनकी वह कविता "चौराहे पर ठाढ़ किसनऊ ताकए चारिहवार"...आज फिर एक सरकारी दिवस है "किसान दिवस" भारत के प्रधानमंत्री रहे चौधरी चरण सिंह के जन्म दिवस को यह गरिमा प्रदान की भारत सरकार ने की २३ दिसम्बर किसान दिवस के तौर पर मनाया जाए...भारत के अन्नदाता का जो सूरत ए हाल है उसमे क्या इस देश व् प्रदेश का विकासवाद का नारा और कथित कवायदें फिट बैठती है ..देखिएगा ज़रा ये तस्वीर और विचारिएगा की ये वही किसान जो जाड़ा गरमी बरसात बिना किसी हाइजीन के दिन रात म्हणत करता है और तब आकर हमें मयस्सर होती है रोटी वो रोटी जो ज़िंदा रहने के लिए जरूरी...फिर भी ये वही पर है जहां सदियों पहले था ..आजादी आयी तो उम्मीद जगी की अपना मुल्क अपना राज अब इस किसान के दिन बेहतर होगे आखिर यही तो जमीन का आदमी है जिस पर टिका है समाज तंत्र व्यापार और सरकार ..सबने इसकी महत्ता स्वीकारी वादे नारे और योजनाएं ...न जाने क्या क्या इस किसान की जागती आँखों को दिखा दिया गया ....जो केवल सपना था और है ......बावजूद इसके इस किसान के जीवन की यात्रा अनवरत जारी है और ये ढो रहा है हमारे व्यभिचार भ्रष्टाचार का बोझ बिना कराहे हुए शायद इसकी आँखों से वह सपना अभी भी नहीं टूटा की अच्छे दिन आयेगे ...और आज भी यह जय जवान जय किसान वाली धुन पर थिरकता हुआ अपना पसीना बहाता जा रहा है उन लोगों के किए जिनके जिस्म से एक बूँद पसीना भी शायद कभी निकलता हो वातानुकूलित घरो कारों और जहाज़ों में जो अयासियों के सारे साजों सामान के साथ रहते है....
भारत कुमार का वह गीत भी अब किरकिरा लगता है जिसे सुनकर कभी आँखें नम हो जाती थी गर्व से ...इस देश की धरती सोना उगले उगले ....यकीनन ये धरती हमें वह सब मुहैया कराती है जो हमें चाहिए पर क्या मिलता है इन किसानों को ये सोना रुपया ..बस ये सीजनल मजदूर के सिवा कुछ नहीं ...राह ताकना इनकी नियति बन गयी है कभी बादल की राह, कभी सहकारी समितियों के काले व्यापारियों से बची खुची फ़र्टिलाइज़र की राह कभी राशन की दूकान पर मिट्टी के तेल की राह और अंत में चीनी मीलों और सरकार के उस फरमान की राह जिसमे इन्हे अपने ही उगाये गन्ने की फसल की रकम की दरियाफ्त होती है ...
कोफ़्त होता है की खुद उत्पन्न करने वाला रहमों करम पर रहता है कभी चीनी मिल मालिकों के नखरों के और कभी सरकार के फरमानों के ....ये गुलामी नहीं तो और क्या है ...हम जिस फसल को उगाते है उसका मूल्य निर्धारण करने वाले और लोग क्यों ....यह बात जाहिर करती है इस बात को की हम अपनी जमीनों के मालिक तो छोड़िए किरायेदार भी नहीं सिर्फ मजदूर है इस व्यवस्था के....
कोफ़्त होता है की खुद उत्पन्न करने वाला रहमों करम पर रहता है कभी चीनी मिल मालिकों के नखरों के और कभी सरकार के फरमानों के ....ये गुलामी नहीं तो और क्या है ...हम जिस फसल को उगाते है उसका मूल्य निर्धारण करने वाले और लोग क्यों ....यह बात जाहिर करती है इस बात को की हम अपनी जमीनों के मालिक तो छोड़िए किरायेदार भी नहीं सिर्फ मजदूर है इस व्यवस्था के....
आज गन्ने के किसान की दशा व्यथा अंगरेजी हुकूमत के नील की खेती करने वाले किसानों से ज्यादा बेहतर नहीं है....ये किसान जो अन्न उपजाता था इससे कृषि क्रान्ति के तहत सरकारों और नीतिकारों ने अन्न के देशी बीज भी छीन लिए अब यह निर्भर है देशी विदेशी कंपनियों या कालाबाजारियों पर जो इसे हर वर्ष हाइब्रिड बीज बेंचते है ...इनके घरों से अन्न रखने के वे सारे साजों सामान भी नदारद है अब जिन्हे अवध में डेहरिया बख्खारिया और मेटुके कहते थे ...इनके खेतों से और इनकी थालियों से दालों की किस्में गायब हो गयी..अनाज की विविधिता भी ...बस ये नपुंसक बीजों के गेहूं की रोटी और चावल खाता है ...सब्जियों के बीज भी हाइब्रिड बीजों ने नष्ट कर दिए इनके घरों से अब ये सब्जी व्यापारियों की दी हुई कीटनाशक युक्त कालाबाजारियों से प्राप्त बीजों से उगाई गयी सब्जियों पर निर्भर है ...
इस अनियोजित विकास ने भारत की मूल सभ्यता के उस मूल व्यक्ति को ही बदल दिया जिसकी वजह से गाँव और गाँव का पारिस्थितिकी तंत्र मौज़ू था, और इस परिवर्तन के साथ ही बदल रही है वह सच्चाई जिसे बापू ने अपने शब्दों में कहा था की भारत गाँवों में बसता है। अब सिर्फ जमीने और उन पर खेती करने वाले मजदूर और उनकी कालोनियां। गाँव गाँव नहीं रहे और न ही गाँव का हरा भरा विविधितापूर्ण पर्यावरण। न खलिहान न चौपाल और न ही चरागाह जो संस्कृति का केंद्र हुआ करते थे.… और न ही पुराने दरख्तों वाले बाग़ बगीचे व् छोटे जंगल जहां पशु पक्षियों और तितलियों का बसेरा होता था कुल मिलाकर किसान बदला तो संस्कृति और पर्यावरण दोनों बदल गए या यूं कहे की ये लहूलुहान है इस संक्रमण से। … अनियोजित विकास का संक्रमण !
इस अनियोजित विकास ने भारत की मूल सभ्यता के उस मूल व्यक्ति को ही बदल दिया जिसकी वजह से गाँव और गाँव का पारिस्थितिकी तंत्र मौज़ू था, और इस परिवर्तन के साथ ही बदल रही है वह सच्चाई जिसे बापू ने अपने शब्दों में कहा था की भारत गाँवों में बसता है। अब सिर्फ जमीने और उन पर खेती करने वाले मजदूर और उनकी कालोनियां। गाँव गाँव नहीं रहे और न ही गाँव का हरा भरा विविधितापूर्ण पर्यावरण। न खलिहान न चौपाल और न ही चरागाह जो संस्कृति का केंद्र हुआ करते थे.… और न ही पुराने दरख्तों वाले बाग़ बगीचे व् छोटे जंगल जहां पशु पक्षियों और तितलियों का बसेरा होता था कुल मिलाकर किसान बदला तो संस्कृति और पर्यावरण दोनों बदल गए या यूं कहे की ये लहूलुहान है इस संक्रमण से। … अनियोजित विकास का संक्रमण !
किसान जिसे अन्नदाता कहते है अब वह अन्न दाता नहीं रहा वह गुलाम हो गया नीतिकारों का अब वह वही फसल उगाता है जो सरकार और व्यापारी कहते है मसलन चीनी मीलों का तंत्र इन किसानों को आगाह करता है की ये बीज बोना है और इसमें यह खाद और ये पेस्टीसाइड पडेगा तो ये किसान वही करता है क्योंकि ऐसा न करने पर इसकी फसल मिल नहीं खरीदेगा....यह वही बीज बोता है जो स्थानीय बीज के सौदागर इन्हे मुहैया कराते है महंगे दामों पर नकली और रुग्ण बीज ..क्योंकि इन सौदागरों को चाहिए मुनाफ़ा और इस मुनाफे के लिए ये तमाम नकली कंपनियों के अप्रमाणित बीजों को फैला देते है हमारी जमीन पर किसान के माध्यम से ...और यही वजह किसान की खुद की निर्भरता ख़त्म हो गयी और वह आश्रित है इन सरकारों और बाज़ार का ..दरअसल यह किसान जान ही नहीं पाया की कब वह किसान से मजदूर बन गया व्यवस्था का ...आज न तो उसकी थाली में अन्न के असली दाने है और न वे सुनहरे बीज जिन्हे वह उगाता था वसुंधरा की गोद में ....अब वह बोता है नपुंसक बीज जिनमे जरूरी होता है जहर यानी कीटनाशक और उगाता है नकली अन्न के दाने .......यही दास्ताँ है अन्नदाता की एक घिनौना सफर जिसने उसे मालिक से मजदूर बना दिया .....जिम्मेवार कौन ? यह सवाल उभरता है और डूब जाता है हर बार सरकारी फाइलों में अखबार की कतरनों में और लोगों के जहन में ....
krishna.manhan@gmail.com
कुछ नबोले, कुछ न कहकर, सारे व्यथित आभाव को सहकर , निज रक्त - पसीने से सिंचित करता देश - विदेश का धरा धाम .....किसान उसी का जिंदा नाम ...फिर भी लड़ता- मरता है अपने ही पोषित मानुष से !
ReplyDeleteहे ग्राम देवता ! नमस्कार !
ReplyDeleteसोने-चाँदी से नहीं किंतु,
तुमने मिट्टी से दिया प्यार।
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
१९४८ में डॉ. रामकुमार वर्मा जी द्वारा रचित ये श्रृध्दा सुमन उन किसानों को अर्पित है जो सम्पूर्ण राष्ट्र की रोटी का इंतजाम करते है। डॉ. रामकुमार वर्मा जी के बेहद भावुक कर देने वाले ये शब्द गावों में अँधेरी जिन्दगी जी रहे किसानों का दिल जीत लिया करते थे, फिर पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने नारा दिया – ‘जय जवान जय किसान’ तब शायद किसी ये ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि एक दिन भारत में फ़ौज के जवान और गाँव के किसान दोनों ही अपनी धार गंवा बैठेंगें। पर किसानों की विडम्बना देखिये कि निरंतर परिवर्तित इस दौर में चंद पैसों के लालच में भारत के सनातनी और ऋषि कृषि परम्परा को बाजारू कृषि बना दिया गया। विकासशील देशों के साथ भारत के किसानों की दुर्दशा की कहानी उन दिनों शुरू हुई जब भारत ने १९९५ में विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि समझौते पर अपने हस्ताक्षर किए।
अब आप ही लोग जवाब दें कि डॉ. रामकुमार वर्मा जी द्वारा रचित उपर्युक्त पक्तियाँ कहाँ सटीक बैठती हैं ??????????????????
हमारे सत्ता नायक यह भूल गए कि ये जमीनें और ये किसान इस देश की सम्पूर्ण जनता के अन्नदाता है परन्तु रियल स्टेट डेवलपर की भांति सोचता ये शासनतंत्र सिर्फ अपनी तिजोरिया भरने में मस्त है। हमारे हुक्मरानों ने उदार नीतियों के नाम पर व्यवसायीकरण के रास्ते को अपनाते हुए किसानों के लिए ऐसी नीतियों को रचने का खेल शुरू कर दिया है जो मिट्टी से प्यार करने वाले ग्राम देवता के देवत्व को ज़मीदोज करने के लिए काफी है !!!