रस्सी वाला जंगली पौधा- यूरेना लोबाटा
(एक खूबसूरत फूल की कहानी)
(एक खूबसूरत फूल की कहानी)
फूल इंसानी चेहरों की तरह होते हैं, बस शक्लें पहचानने का हुनर हो तो इन फूलों को देखकर बताया जा सकता है की ये पौधा किस प्रजाति का है, किस परिवार से ताल्लुक रखता है, और इसका नाम क्या है! फूल सुन्दर ही होते हैं, जाहिर है इंसानी चेहरे भी इन फूलों की तरह ही है जो सुन्दर ही होते है फिर वह चाहे अफ्रीकी हो, अमरीकी हो या भारतीय बस नजरिया खूबसूरत हो, फूलों को देखने की तरह का! तो फूलों के चेहरों की किताब पढने और उन्हें समझने की इस फेहरिस्त में एक नए फूल से परिचित कराता हूँ आप सभी को, ये नन्हा सा गुलाबी फूल मेरे घर के पास के उस खुले मैदान में खिला, इसकी आमद उन तमाम प्रजातियों के मध्य अभी नयी है, ये नया सदस्य मेरी निगाह में और उत्तर भारत की तराई जनपदों में अभी भी यह प्रजाति वन्य जीवन से सम्बन्धित सरकारी विभागों में भी दर्ज नहीं है, नतीजतन इसकी पहचान और इसकी खूबियों से परिचय करना मुझे और अच्छा लगा, एक नई जानपहचान !
जब इस फूल को पहली बार देखा तो लगा अरे! यह तो गुलहड की हूबहू छोटी प्रतिकृति है, बस यही वजह रही इससे पूरी तरह बावस्ता हो जाने की, जाहिर था यह गुलहड जैसा है तो मालवेसी कुल से ताल्लुक रखता होगा. इसका अंगरेजी नाम है "सीजरवीड" महान सीजर पर इसका नाम क्यों पडा यह बात अभी तक पुख्ता नहीं है, जबकि यह रोमन राजाओं से बिलकुल कोई सम्बन्ध नहीं रखता.
वैसे तो बनस्पति विज्ञान में इसका नाम "यूरेना लोबाटा" है और इसकी उत्पत्ति का स्थल एशिया ही बताया गया है, किन्तु यह प्रजाति जंगलो, नदियों के किनारों, नम भूमियों आदि में स्वत: उगती है, वैसे तो यह दुनिया में उष्ण-कटिबंधीय क्षेत्रों में गोलार्ध के दोनों हिस्सों में पाया जाता है. इसकी खेती ब्राजील, कांगो व् अफ्रीका के कुछ स्थानों में की गयी, वजह थी इससे निकालने वाला खूबसूरत सफ़ेद रंग वाला व् मजबूत रेशा जो रस्सी, कपडे बनाने में इस्तेमाल होता है. इससे ये रेशा बिलकुल उसी तरह निकालते है, जैसे भारतीय किसान सनई और पटसन से रेशे निकालते है, फूल खिल जाने पर इन पौधों को काट लिया जाता है, फिर किसी तालाब में पानी में डुबोकर रखा जाता है ताकि इन पौधों में सडन शुरू हो जाए, फिर कुछ दिनों बाद इन्हें पानी से निकालकर पौधों के तने से रेशे निकाल लिए जाते है, जिनसे रस्सियाँ बनाई जाती है, और रेशे उतारा हुआ तना जो सफ़ेद रंग का होता है, उसे सुखा कर जलौनी लकड़ी के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.
यहाँ गौरतलब यह है की अब उत्तर भारत में न तो सनई-पटसन बोया जाता है, और न ही प्राकृतिक रूप में उगा यह यूरेना लोबाटा से रेशे निकाल कर रस्सियाँ बनाई जाती है, प्लास्टिक ने इस प्राकृतिक काटन की जगह ले ली, नतीजतन गाँवों में रस्सियाँ बनाने का चलन ख़त्म हो गया और साथ ही ख़त्म हो गयी वह विधा और देशी औजार जिससे बड़े-बूढ़े रस्सियाँ बटा(बनाना) करते थे. और इन सूत(काटन) की रस्सियों का ख़त्म होना हमारे पालतू जानवरों, बैल, गाय, भैस आदि के लिए एक अंतहीन पीडादायक सजा बन गयी, क्योंकि इन जानवरों की नकेल अब इस मुलायम सुतली के बजाए प्लास्टिक की रस्सियों की डाली जाती है, जिसकी खुरदरी रगड़ इनके कोमल अंग को रोज घायल करती है.
यूरेना लोबाटा जंगली माहौल में कई वर्षों तक पुष्पित होता रहता है, जब इसकी खेती की जाती है तो रेशों के लिए इसे एक वर्ष में ही काट लिया जाता है, यह ऊंचाई में ५ से ७ फीट तक लंबा होता है इसके तने से तमाम शाखाएं निकलती है. इसके गुलाबी पुष्प जिसमे गुलहड की भाति पांच दल होते है और उसी तरह का परागकणों से लदा पुंकेसर. इसे उगने के लिए धूप, गर्म मौसम व् नम भूमियाँ चाहिए, भारत की तराई में यह जुलाई-अगस्त में उगता है और सितम्बर के महीने में इसमें पुष्प आने लगते है, अक्टूबर के अंत तक इसके कांटेदार फल पककर जमीन में गिरते है और इनके करीब से गुजरने वाले जीव-जन्तुओं में यह फल चिपक जाते है जो इस प्रजाति को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते है, यही जरिया है इस प्रजाति का अपने बीजों के प्रकीर्णन का.
इसके फूलों के खिलने का समय भी बड़ा अद्भुत है, सूरज के निकलने से पहले भोर में ही यह फूल खिलते है और ज्यों ही सूरज आसमान पर चढ़ कर अपनी किरणे बिखेरना शुरू करता है, यूरेना लोबाटा अपने पुष्पों को ढकने की ताकीद कर देता है, और दोपहर होने से पहले इसके पुष्पों के पुष्प दल बंद हो जाते है, मानों अपने नाजुक अंगों को धूप से बचाने की कवायद हो यह. यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है, की इन फूलों की खूबसूरती वही निहार सकता है जो सूरज के आने के साथ ही जग जाए, और इन फूलों का रस वही जीव ले सकता है जो सुबह सुबह सक्रीय होता हो, खिले हुए फूलों की यह बहुत अल्प अवधि ! शायद प्रकृति का इस में भी कोइ राज हो.
यूरेना लोबाटा का एक हम शक्ल भाई भी है फ्लोरिडा में बस फर्क इतना है की इसका पुष्प कुछ बड़ा होता है जिसे सीशोर मेलो कहते है. वैसे आप को बता दूं की भारत में किसानों द्वारा उगाया जाने वाला पटसन भी इसी परिवार से सम्बन्ध रखता है यानी माल्वेसी कुल से. पटसन के पुष्प जिन्हें बचपन में मैंने अपने खेतों में देखा वह बिलकुल यूरेना लोबाटा की तरह ही थे बस आकार में वह काफी बड़े थे.
यूरेना लोबाटा काटन के अतिरिक्त तमाम औषधीय गुणों से भरा हुआ है, इसकी जड़ व् पत्तियां कई बीमारियों को दूर करने में कारगर है, और दुनिया के तमाम देशों में इसका पारम्परिक इस्तेमाल होता है, इसकी जड़ व् पत्तियों का चूर्ण डायबिटीज, पेट की बीमारियों, दर्द निवारक के तौर पर प्रयोग में लाई जाती है, जड़ व् पत्तियों से बनी पुल्टिस का प्रयोग सूजन कम करने में भी किया जाता है. इसकी पत्तियों व् जड़ से बने काढ़े का इस्तेमाल बुखार, पेट दर्द, मलेरिया, गनोरिया आदि में करते है, सर्प दंश में भी और घाव हो जाने पर यूरेना लोबाटा की पत्तियों और जड़ की पुल्टिस का इस्तेमाल कई देशों में किया जाता है.
तो फिर इतनी खासियतों वाले इस पौधे को आप भी खोजे कही अपने आस-पास शायद गुलाबी फूलों से लदा यह पौधा कही दिख जाए.
अपने आस-पास की प्रकृति में मौजूद जीवों से जान-पहचान बढ़ाना बहुत प्राचीन सिलसिला रहा है इंसानी दिमाग का और उसने प्रकृति के इन तमाम रहस्यों को इन्ही पेड़-पौधों और जंतुओं से सीखा है, आज बहुत से कलुषित इंसानी मसले इतना पैबस्त हो गए है इंसान के दिमाग में की उसे फुर्सत ही नहीं है इस प्रकृति को निहारने की नतीजतन वह वंचित हो रहा है प्रकृति में मौजूद आनंद और सुख से.
यह लेख डेली न्यूज एक्टीविस्ट (लखनऊ) अखबार में दिनांक ४ अक्टूबर २०१३ को सम्पादकीय पृष्ठ पर रस्सी वाला जंगली पौधा- यूरेना लोबाटा शीर्षक के साथ प्रकाशित हुआ है,
(अपडेट : ४ अक्टूबर २०१३ )
यह लेख डेली न्यूज एक्टीविस्ट (लखनऊ) अखबार में दिनांक ४ अक्टूबर २०१३ को सम्पादकीय पृष्ठ पर रस्सी वाला जंगली पौधा- यूरेना लोबाटा शीर्षक के साथ प्रकाशित हुआ है,
(अपडेट : ४ अक्टूबर २०१३ )
कृष्ण कुमार मिश्र
(आजकल फूलों से दोस्ती की जा रही है)
krishna.manhan@gmail.com
krishna.manhan@gmail.com
पूरे लेख में तमाम अच्छी बातों में से सबसे अच्छी बात यह थी की " आजकल फूलों से दोस्ती की जा रही है"
ReplyDeleteसुन्दर आलेख के लिए शुक्रिया । फूल के गुण ही नहीं आकृति भी कपास के फूल से मिलती है।क्या एक ही कुनबे के हैं। जैव विविधता में पहाड़ों का महत्व तो है ही । भले ही खेती न होती हो लेकिन खेती के हजारों साल में विकसित होने में इनका अपूर्व योगदान है।
ReplyDeleteसुंदर लेख और महत्वपूर्ण जानकारी के लिए शुक्रिया!!...शुभकामनाएँ!!...
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