वो पुलिया वाली बरगदिया
आज वट-सावित्री की पूजा है। सोचा दरख्तों से इंसान के इन जज्बाती रिश्तों पर कुछ कहूं, जो कहानी कहते है हमारी बुनियाद की, परंपराओं की, और उधेड़ते है अतीत की उन सिलवटों को जो वक्त की मुसलसल रफ़्तार में पीछे रह गयी , बात बरगद की हो रही है तो बताऊ की मैं इस दरख़्त से वाकिफ हुआ अपने बचपन के उस गाँव से जिसे मैनहन के नाम से पुकारा जाता है, इस जान-पहचान के सिलसिले में दो बड़े किस्से है, पहला है, वो पुलिया वाली बरगदिया ....जी यही नाम था जब पिता जी को देर हो जाती कस्बे से घर आने में तो दादी यही कहती थी जाओ कोई देखकर आओ वो पुलिया वाली बरगदिया तक।।।हाँ मेरे बाबा भी यही कहते थे की चिंता मत करो वो पुलिया वाली बरगदिया तक आ गएँ होगे ..बस आते ही होगे अभी। और जब मैं बाजार जाता अपने बाबा की उंगली पकड् कर या उनके कन्धों पर बैठकर तब भी वो पुलिया वाली बरगदिया मिलती हमें रास्ते में और हम उसी की छाया में सुस्ताते। वैसे किसी छोटी चीज को स्त्रीलिंग में उच्चारित करना बड़ी सामान्य बात है हमारे यहाँ फिर चाहे वो छोटी पहाड़ी (पहाड़ ) हो या वृक्ष बरगदिया (बरगद)! (फ़ेमनिस्ट क्षमा करे...वैसे दुलार में भी चीजों को स्त्रीलिंग बना दिया जाता है) खैर बरगदिया के बड़े किस्से थे, कभी डाकुओं की मौजूदगी के अड्डे के रूप में, तो कभी भूत-प्रेतों के उस बरगदिया पर निवास करने की कहानी,,,,,,पर हमारे गाँव के लोगों को उस बरगदिया से दो-चार होना पडता था रोज, राह वही थी कस्बे की,,,,मैं उम्र में जब बडा हुआ तो क़स्बे के स्कूल में दाखिला दिलाया गया, फिर क्या था मैं भी दो-चार होने लगा रोज उस पुलिया वाली बरगदिया से, दोपहर की तपती धूप में हम मुसाफिरों का वही तो आसरा थी, एक पूरे रास्ते भर में, हमारे गाँव मैनहन से मितौली के मध्य नहर की पगडंडी पर वह अकेला दरख़्त था।
जब इम्तिहान होते तो रोज हम सभी बच्चे उस पुलिया वाली बरगदिया की झूलती डालों में लटक जाते और उसे चूमते यह हम बच्चों की आस्था का विषय था उस दरख़्त के लिए, वक्त गुजरता गया, हम हर रोज कुछ देर उसी बरगदिया की सरपरस्ती में सूरज की तपिश से महफूज रहते, उस बरगदिया के नीचे एक अधेड़ आदमी हमें रोज मिलता हाथ में हसिया या खुरपा या फिर बांका लिए (ये सभी औजार कृषि के लिए प्रयुक्त होते है), दरअसल यह दरख़्त जिस खेत के किनारे था, वह व्यक्ति उस खेत का मालिक था और इस बरगदिया का भी, तालीम के सफ़र में हमें गाँव से शहर आना हुआ, मगर शहर से गाँव जाने पर रास्ते में उस जगह से ही निकलना होता, बचपन की कोमल स्मृतियाँ घुमड़ जाती उस बरगदिया को देखकर,,,,,,,कई वर्षों बाद मैं गुजर रहा था उसी राह पर तो उस दरख़्त की छाँव में बैठ गया और तभी वह आदमी भी अचानक खेत से आकर मेरे पास बैठ गया, जो कभी रोज मिलता था हमें, पर कुछ बोलता नहीं था तब,,, पर आज वह बोला "भैया यहि पुलियाक़ि आगे देखौ एक पीपल का पेड लगाई दिहे हन, कुछ सालन मा बड़ो हुई जाई, तौ लोगन का छाही मिलत रही, तब तक यह बरगदिया रहै न रहै, बुढ़ाई गयी है"
मैं अभिभूत हो गया उस व्यक्ति के इस कथन से और कार्य से, मैं लगातार गाँव पहुंचता रहा उसी रास्ते, तब तक वह बरगदिया और वह निरंतर बढता पीपल का वृक्ष मुझे मिलता रहा और उन दोनो दरख्तों के साथ साथ वह आदमी भी मुझे याद आता रहा,,,,,जो आज भी विस्मृत नहीं हुआ है मेरे मन से,,,,,,,उसकी सोच ने मेरे बाल मन को बहुत प्रभावित किया था, अपने तमाम संस्कारों की फेहरिस्त में उस व्यक्ति का संस्कार भी अंकित हो गया मेरे मन में हमेशा के लिए ,,,,,,,,,,,अब राह बदल गयी, उस नहर की की पगडंडी के बजाए हम ग्रामीण तारकोल से बनी सड़क पर गुजरने लगे जो नहर से उत्तर काफी दूर है, सोचता हूँ की उन दोनों से मिल आऊँ नहर वाली पगडंडीके रास्ते से उस पुलिया वाली बरगदिया और उस जवान पीपल से, पर कही मन में डर है, कि क्या मुझे वो दोनों वही पर मिलेगे? कही उस व्यक्ति की बात सही हुई तो,,,,,की बरगदिया बूढ़ी हो चली है, इस लिए नया पीपल का वृक्ष लगा दिया है कुछ दूर पर पुलिया के पार ताकि राहगीरों को छाया मिलती रहे, पता नहीं कब बरगदिया…।
एक बात और इसी बरगद ने मुझे धरती के समानांतर फैलाव का सबक सिखाया बजाए इसके कि मैं अपनी जड़ों से दूर धरती के लम्बवत बढ़ता चला जाऊं उस निर्वात में, अपने लोगों से दूर, जहां सिर्फ खुद का कथित आभास व् दिवास्वप्न हो, यथार्थ से अलाहिदा !
(,,,,,अभी इतना ही दूसरी कहानी दूसरी क़िस्त में)
कृष्ण कुमार मिश्र
ग्राम- मैनहन पोस्ट- ओदारा
जिला -खीरी
09451925997
rochak prastuti .aabhar
ReplyDeleteहमारे ननिहाल का पीपल बूढ़ा हो चला है...और पिछले दिनों उससे मिलना हुआ तो उस पर बैठने वाले पक्षी भी याद आये जो सुबह जबरन जगा दिया करते थे... अच्छा लगा बरगदिया के बारे में जानना...
ReplyDeleteआभार ..