वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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ये जंगल तो हमारे मायका हैं

May 7, 2013

पर्यावरण की नज़र से एक दु:स्वप्न है गुजरात ! मोदी वालों !

    
शेर का सवाल और गुजराती अस्मिता -
गीर के शेरों का विवाद यह बताता है, कि देश में पर्यावरण जैसे मुद्दे पर भी भावनाओं को भड़काने की राजनीति हो सकती है !
   

     गुजरात के मुख्यमंत्री की वेबसाइट बताती है कि ‘वह पर्यावरण संरक्षण के मामले में बहुत संवेदनशील हैं। पर्यावरण और प्रकृति का संरक्षण शताब्दियों से हमारी संस्कृति का हिस्सा रहे हैं। वह हमेशा प्रकृति माता के साथ सामंजस्य बनाकर उसे नुकसान पहुंचाये बिना जीने के हिमायती हैं।’ जमीनी सच्चाइयां इससे ज्यादा जटिल चित्र खींचती हैं। सन 2009 में नरेंद्र मोदी के सात साल तक मुख्यमंत्री रह चुकने के बाद पर्यावरणविद एस फैजी ने गुजरात की यात्रा की और उन्होंने पाया कि गुजरात ‘पर्यावरण की नजर से एक दु:स्वप्न’ है। पिछले वर्षों में गुजरात में हजारों वर्ग किलोमीटर प्राकृतिक जंगल नष्ट कर दिया गया है। खनन की वजह से पक्षी और वन्यजीव अभयारण्य का अतिक्रमण हो रहा है। जमीन में लवण की मात्रा बढ़ रही है और नरेंद्र मोदी की सरकार ने दुनिया के सबसे बड़े जहाजों के कबाड़खाने अलंग को सुधारने की कोई कोशिश नहीं की। व्यावसायिक हितों को साधने के लिए खनन की वजह से जमीन, समुद्र और समुद्र तट प्रदूषण के शिकार हो गये हैं। औद्योगिक प्रदूषण की वजह से वडोदरा जिले के बहुत बड़े क्षेत्र में भूमिगत जल इस्तेमाल के लायक नहीं रह गया है और उपजाऊ जमीन बंजर हो गयी है।

नरेंद्र मोदी के पर्यावरण संबंधी दावे दो ताजा घटनाओं से और ज्यादा समझ में आते हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के उद्योगपति मित्रों में गौतम अडाणी खास हैं। अडाणी समूह पिछले डेढ़ दशक में खूब फला-फूला है। पर्यावरण मंत्रालय की एक विशेषज्ञ समिति ने पाया है कि मुंद्रा में अडाणी के बंदरगाह में कानूनी प्रावधानों और पर्यावरण के मापदंडों का उल्लंघन हुआ है। दलदली जंगलों के विनाश और समुद्री पर्यावरण के प्रदूषण की वजह से स्थानीय मछुआरे दरिद्रता की हालत में पहुंच गये हैं। विशेषज्ञ समिति ने अडाणी समूह पर 200 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाने की सिफारिश की है। जिस समिति ने यह जांच की थी, उसमें जानकार और निष्पक्ष विशेषज्ञ थे। भारत के समूचे पश्चिमी किनारे पर उद्योगपतियों और उनके मित्र राजनेताओं के गठजोड़ ने किसानों और मछुआरों को जमीन और समुद्र से खदेड़ दिया है, इससे पर्यावरण के विनाश के साथ सामाजिक असंतोष भी पैदा हुआ है। अच्छा हो अगर पर्यावरण मंत्रालय महाराष्ट्र में ऐसी गड़बड़ियों की जांच करने के लिए एक समिति बनाये।

अडाणी के बारे में फैसला गुजरात के मुख्यमंत्री पर अप्रत्यक्ष चोट थी। नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा और उनके अहंकार पर सीधी चोट सुप्रीम कोर्ट के एक ताजा फैसले से हुई है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने खतरे में पड़ी एशियाई शेरों की प्रजाति के लिए एक और अभयारण्य की तजवीज की है। भारत के कई जाने-माने वन्यजीव विशेषज्ञों का यह प्रस्ताव था कि शेरों के लिए बेहतर होगा कि वे गुजरात के गीर जंगलों तक सीमित न रहें। राष्ट्रीय वन्यजीव एक्शन प्लान के तहत शेरों के लिए एक दूसरा घर खोजने को प्राथमिकता दी गयी। यह इसलिए जरूरी है कि किसी रोग या भूकंप या जंगल में आग जैसी प्राकृतिक आपदा की वजह से एक ही जगह रह रहे शेर हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो सकते हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने बताया कि 1994 में सेरनगेटी में एक वायरस की वजह से एक हजार से भी ज्यादा शेर मारे गये थे।

इतिहासकार दिव्यभानु सिंह और महेश रंगराजन ने एशियाई बब्बर शेरों के अतीत और वर्तमान का गहराई से अध्ययन किया है। उनका अध्ययन बताता है कि यह प्रजाति किसी वक्त मध्य और उत्तर भारत के बड़े इलाकों में पायी जाती थी, लेकिन शताब्दियों तक खेती के विकास और महाराजा व नवाबों के शिकार की वजह से शेरों की संख्या घटती चली गयी। 19वीं के शताब्दी के अंत तक एशियाई शेर सिर्फ गीर के जंगलों में बचे थे, जो उस जमाने में जूनागढ़ रियासत का हिस्सा थे।

यहां भी उनका भविष्य सुरक्षित नहीं था, क्योंकि कई अंग्रेज अफसर अपने घर टांगने के लिए शेर का सिर चाहते थे। उन्हें किसी तरह जूनागढ़ के नवाब ने रोके रखा, जिनकी मदद लॉर्ड कजर्न ने की। लार्ड कजर्न ऐसे वायसराय थे, जो प्रकृति के संरक्षण का महत्व समझते थे। जब कजर्न ने शेर के शिकार का आमंत्रण ठुकरा दिया, तो नवाब उनका उदाहरण देकर बाकी लोगों से भी शेरों को बचा लिया। बब्बर शेर इस तरह एक मुस्लिम नवाब और अंग्रेज साम्राज्यवादी की वजह से बच गये, लेकिन उनका भविष्य फिर भी खतरे में था। 1980 के दशक से ही वैज्ञानिक दूसरे जंगलों की तलाश में लग गये थे, जहां बब्बर शेरों को रखा जा सके, ताकि उनके बचने के मौके बढ़ जाएं। भारतीय वन्यजीव संस्थान के विशेषज्ञों ने मध्य प्रदेश के कूनो अभयारण्य को इसके लिए सबसे उपयुक्त पाया। वहां पर बहुत जगह है और शेरों के भोजन के लिए जानवरों की कमी भी नहीं है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और इस कार्य में उसने गुजरात सरकार से सहयोग मांगा। लेकिन गुजरात इस बात के लिए राजी नहीं हुआ और मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया। जब अदालत में मामला चल रहा था, तभी नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक घोषणा की कि गुजरात के शेर गुजरात को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे।

तब भी नहीं, जब एक समान विचारधारा वाली भाजपाई मध्य प्रदेश सरकार उनसे आग्रह कर रही हो। मार्च 2012 में जब सुप्रीम कोर्ट इस मामले को सुन रहा था, तब नरेंद्र मोदी ने विधानसभा का सत्र छोड़कर राज्य वन्यजीव बोर्ड की बैठकों में हिस्सा लिया, जिसमें गुजरात का पक्ष तैयार किया गया। अदालत में अपना पक्ष रखते हुए गुजरात सरकार ने पहले शेरों के स्थानांतरण के वैज्ञानिक सबूतों को गलत सिद्ध करने की कोशिश की, लेकिन न्यायाधीश इससे सहमत नहीं हुए, क्योंकि ज्यादातर वन्यजीव विशेषज्ञ स्थानांतरण के पक्ष में थे। तब गुजरात सरकार ने अपने तर्क बदल दिये और कहा कि मुद्दा वैज्ञानिक तर्कों के परे है। बब्बर शेर गुजरातियों के परिवार और समाज का हिस्सा हैं, जब परिवार का मामला हो, तो कोई तर्क नहीं चलता। 15 अप्रैल, 2013 को अपने फैसले में शीर्ष अदालत ने गुजरात सरकार के तमाम तर्क खारिज कर दिये और यह आदेश दिया कि छह महीने में शेरों को गीर के जंगलों से कूनों में स्थानांतरित कर दिया जाए।

इस मुद्दे पर मोदी का विरोध क्षेत्रीय अस्मिता का आह्वान करने के उनके पुराने तरीके का उदाहरण है। लेकिन इससे जो उन्माद फैलता है, वह नियंत्रण से बाहर सकता है। अभी-अभी बब्बर शेरों के एक विशेषज्ञ रवि चेल्लम को गुजरात वन विभाग ने गीर से जाने के लिए कहा, ताकि उनका सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ सक्रिय आंदोलनकर्ताओं से सामना न हो जाए। गुजरात की कई गैर-सरकारी संस्थाएं शेरों के स्थानांतरण के खिलाफ सक्रिय हो गयी हैं। राज्य सरकार को चाहिए कि वह उन्हें तुरंत रोके, ताकि सुप्रीम कोर्ट का विवेकपूर्ण, तार्किक और वैज्ञानिक आदेश लागू हो सके।

                                                                                                                                                                                                                                                                         सौजन्‍य: दैनिक हिंदुस्‍तान



रामचंद्र गुहा प्रसिद्द इतिहासकार हैं।  अखबारों  एवं  पत्रिकाओं में एतिहासिक व् सामाजिक मुद्दों पर निरंतर   लेखन, कई विश्व प्रसिद्द पुस्तकों के लेखक रामचंद्र  गुहा  द्वारा  सन २००७ में लिखी उनकी किताब इंडिया आफ्टर गांधी को अपार लोकप्रियता मिली। इस किताब को हिंदी में पेंग्विन ने प्रकाशित किया है, जिसका अनुवाद मधुबनी बिहार के पत्रकार/लेखक सुशांत झा ने किया है। रामचंद्र गुहा से ramachandraguha@yahoo.in पर एवं  सुशांत झा से jhasushant@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। इस लेख को मोहल्ला लाइव पर भी पढ सकते है । 

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