जल जंगल जमीन- जो बुनियादी हैं! उन्हें ही तहस नहस किया जा रहा है-
विकास बनाम विनाश
मानव
सभ्यता की हम बात करते रहते हैं. कितने दशक बीत गये, बीतते जा रहे हैं.
कहते हैं. इतिहास खुद को दुहराता है. उसी कि राह हम देख रहे हैं. समाज के
बनने बिगड़ने के हम साक्षी बनते रहते हैं. यह बनना बिगड़ना क्या है, यह समझ
पाना कठिन होता जा रहा है. क्योंकि जिसे हम ‘बनना’ कहते हैं, वह दूसरे के
दृष्टि में बनना ही हो ऐसा आवश्यक नहीं है. बनना शब्द रचनात्मक पहल को
दर्शाता है.
इस बनने और बिगड़ने की परिभाषाओं को भी
समझना चाहिये.किसी बसी-बसाई या बनी हुई सभ्यता को बिगाड़कर किसी नई चीज़ का
निर्माण उसी पर करना इसे बनना कहना या मानना चाहिये कि बिगड़ना! यह तय कर
पाना कठिन हो रहा है. सारी मान्यताएं,अवधारणाएं और पैमाने बदल गये हैं. ये
बदलाव भी इतनी तेजी से हो रहे हैं, कि मौलिकताओं को टिका पाना
कठिन होता जा रहा है. जो मौलिक है, वो उन्हें पुराना लगता है और पुराना
अर्थात उसका नवीनीकरण होना ही चाहिये, नवीनीकरण कैसे होना चाहिये, तो कहते
हैं, कि विकास हो!! विकास कैसे हो!? तो एक ही रास्ता उन्हें समझ में आता है,
कि जो उनकी दृष्टि में विकास है?.
---अनियोजित विकास
इस विकास का लाभ एक बहुत ही छोटे तबके को हुआ है, जो बड़ी तेज़ी से विकसित
हुआ है. सवा अरब के हिंदूस्तान में यह समृद्धि ज़्यादा से ज़्यादा तीस करोड़
लोगों तक पहुँची बताई जा रही है, इसके बाद के तीस करोड़ लोग संघर्ष के बीच
जीवन व्यतीत कर रहे हैं, और आखिरी साठ करोड़ लोग अपने मनुष्य होने के स्वयं
के अस्तित्व को तलाश रहे हैं. हमारे वनवासी भाई पहले ही बड़े बाँधों के नाम
पर उजाड़े जाते रहे हैं और अब बड़ी पूँजी के नाम पर उन्हें बेदखल किया जा रहा
है. तिजोरियों वाला इंडिया अलग देश है और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता और
नक्सलवाद से जूझता हिन्दूस्तान एक अलग देश है और दोनों ही के बीच एक लम्बी,
गहरी और चौड़ी खाई है.
गाँधी विचार की प्रासंगिकता-
इन सब बातों को हम सोचते हैं, तो गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज’ में जो कहा है,
वह ध्यान आता है, कि “मनुष्य कि वृत्तियाँ चंचल हैं. उसे शरीर को जितना
ज़्यादा दिया जाये, उतना ज़्यादा माँगता है. ज़्यादा लेकर भी वह सुखी नहीं
होता. भोग भोगने से भोग कि इच्छा प्रबल होती जाती है.” वे यह भी कहते हैं,
कि “सभ्यता वह आचरण है, जिससे आदमी अपना फर्ज़ अदा करता है. फर्ज़ अदा करने
के मायने हैं, नीति का पालन करना. नीति का पालन करने का मतलब है, अपने मन और
इंद्रियों को बस में रखना. ऐसा करते हुए हम स्वयं को पहचानते हैं. यही
सभ्यता है. इससे जो उल्टा है, वो बिगाड़ करने वाला है. समझना यही है कि यह
सभ्यता दूसरों का नाश करने वाली और खुद नाशवान है.” ......
एक
तरफ हम अपनी सुविधाओं के लिये प्राकृतिक संसाधनों को दोहन कर आराम के साधन
जुटा रहे हैं, तो दूसरी तरफ लाखों लोग अपनी भूमि और आजीविका के संसाधनों
से वंचित हो रहे हैं, इसलिये हमें भी यह
समझ में आना चाहिये कि असली विकास हम किसे कहेंगे!! वह जो सभी लोगों को
सम्मान भरी आजीविका दे और प्रकृति के साथ सामंजस्य से जीना सिखाये या फिर
वह जो कुछ लोगों के लोभ-लाभ के लिये निसर्ग-मानव के सम्पोषित प्रयासों को
समूल नष्ट कर दे!!?? हमारी सभ्यता हमें सिखाती आई है, जितने हम प्रकृति से
जुड़े रहेंगे उतने ही हम सम्पोषित स्वरूप में रहेंगे. हमनें फिर किया भी
वही. जब तक हमारा प्रकृति से सामंजस्य था, तब तक किसी प्रकार का असंतुलन
नहीं था. सभी प्राकृतिक संसाधन – जल, जंगल और ज़मीन हमारे साथ और हमारे लिये
थे. परंतु बाद में हमने यह महसूस किया कि प्रकृति जो हमसे अभिन्न थी, उससे
हमें अलग कर दिया गया है और उस पर अधिकार और मालिकाना हक जताना शुरु हुआ, अब वो
प्राकृतिक संसाधन कुछ ही लोगों के हाथ में जा रहे हैं.
सही
एवं स्वमानी आजीविका आयोजन – जल, जंगल, ज़मीन, तकनीक, श्रम और मानव
प्रेरणा पर स्थानीय लोगों के नियंत्रण और अपनी आवश्यकताओं के हिसाब से उसके
असरदार इस्तेमाल पर निर्भर करता है. परंतु विकास के नाम पर किये जाने वाले
ज़्यादतर हस्ताक्षेप स्थानीय संसाधनों को ऐसी विशाल और केंद्रीकृत संस्थाओं
के हवाले कर देते हैं, जिनकी ना लोगों के प्रति जवाबदेही होती है और ना ही
उनकी ज़रूरतों के प्रति समझ होती है.
जिस प्रक्रिया में
से थोड़े से लोगों के हाथ में सत्ता एवं सम्पत्ति का संकेंद्रण होगा और
व्यापक स्तर पर लोग अपनी जीविकोपार्जन के साधन से बेदखल कर दिये जायेंगे,
वह कैसे स्वीकार की जा सकती है? उद्योग के विकास के नाम पर बड़े व भारी
उद्योगों की ही चर्चा क्यों होती है? उद्योग के विकास का अर्थ ग्रामीण
उद्योग का विकास क्यों नहीं हो?
उत्तरप्रदेश में
भट्टापरसोल तथा आछेपुर गाँव, बिहार में मुज़फ्फरपुर के निकट मरा
गाँवमहाराष्ट्र के रत्नागिरी जिला के जैतापुर गाँव तथा देश के अन्य कई
गाँवों में भूमि अधिग्रहण कानून के तहत बड़े उद्योगों द्वारा किसानों पर
अत्याचार किया गया. इसे सरकार ने अनदेखी कर दिया है. पश्चिम बंगाल में
सिंगूर तथा नंदीग्राम में बहुत पहले ही किसानों की भूमि छीन लेने की
कार्यवाही भूमि अधिग्रहण कानून के तहत की गई, जिसकी चर्चा पूरे देश में
हुई. फिर भी इसका क्रम टूट नहीं रहा है. शासनकर्ताओं ने मान लिया है, कि इस
देश का उद्योगीकरण करने के लिये भारी उद्योगों का निर्माण करना ज़रूरी है,
जो बड़े उद्योगों कि इकाईयों द्वारा ही सम्भव है.
नदियां और जंगल-
इसी
प्रकार के तथाकथित विकास का शिकार पिछले काफी अरसे से उत्तराखंड भी हो रहा
है. उत्तराखंड हिमालय के प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों युक्त इलाका ही नहीं
वरन एक करोड़ मनुष्यों का घर भी है. जल, जंगल और ज़मीन जैसे प्राथमिक संसाधन
उत्तराखंड के अलावा देश के बड़े हिस्से को सदियों से जीवन दे रहे हैं. यहाँ
से निकलने वाली नदियों का पानी दिल्ली के साथ – साथ देश के नौ राज्यों के
अलावा बांग्लादेश तक फैले करोड़ों लोगों की प्यास बुझा रहा है. यहाँ के वन
इन तमाम जीवनदायिनी नदियों सहित हज़ारों जलधाराओं के उद्गम और जलग्रहण
क्षेत्रों की नाज़ुक पारिस्थितिकी को टिकाये हुए हैं. वनों से ही स्त्रोतों
वा नदियों में पानी है. इतना ही नहीं यहाँ के वन हिमालय की नाज़ुक भूसंरचना
की उथल- पुथल रोकने के साथ ही पर्वतीय ग्रामीण अर्थतंत्र का आधार भी हैं.
आज भी प्राकृतिक जंगल बचे हैं, तो इसलिये कि यहाँ की 80% आबादी
जीविकोपार्जन के लिये प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वनों पर निर्भर हैं.
हिमालयी आबादी और प्राकृतिक संसाधनों का यह ताना- बाना उत्तराखंड में
प्राकृतिक संसाधनों और आबादी के रिश्तों को प्रगाढ़ करने वाली प्रक्रियाओं
का परिणाम है और उसे बनाये रखने की ज़िम्मेवारी लोगों और सरकार की है. हमारी
सरकारें इस समझ को लगातार नज़र अंदाज़ करतीं आ रहीं हैं. अब तक जो विकास
नीतियाँ बनाई गईं हैं, उनमें न हिमालय बचाने की हिमायत है और नही लोगों को
समृद्ध करने का ज़रिया. पर्यावरण संरक्षण के नाम पर स्थानीय लोगों की सदियों
पुरानी वनाधारित जीवनशैली को समाप्त कर अभयारण्यों और वन्यजीव विहारों का
विस्तार किया जा रहा है. वन संरक्षण के नाम पर पर्वतीय गाँवों की वेनाप और
ग्राम समाज की भूमि को वन विभाग के अधीन कर दिया गया है. इससे 93% भूमि
राज्यके कब्ज़े में आ गई है. जबकि 64% वन क्षेत्र पहले ही वन विभाग के अधीन
है. इस भूमि के आधे हिस्से में भी वन नहीं है.
ग्रामीण अर्थतंत्र की रीढ़ और सामूहिक वन प्रबंध की मिसाल वन पंचायतों को
विश्व बैंक के कर्ज़ से चल रही संयुक्त वन प्रबंध योजना के हवाले कर सरकारी
नियंत्रण बढ़ा दिया है. प्राकृतिक वनों का ह्रास हो रहा है. वनों में
प्रतिवर्ष आग लगने की घटनाएँ बढ़ रहीं हैं. इसके अलावा प्रतिवर्ष हज़ारों
हेक्टेयर वनक्षेत्र एवं वनावरण बड़ी परियोजनाओं के कारण नष्ट हो रहे हैं.
परिणामस्वरूप जलग्रहण क्षेत्रों में भूक्षरण की गति तेज़ हुई है और उनकी जल
ग्रहण क्षमता में कमी आई है, और हिमालयी नदियों में बाढ़, भूस्खलन व
पारिस्थितिकी बदलावों की गति तेज़ हुई है, जिससे यहाँ के नाज़ुक पर्वत ही
नहीं वरन उनसे निकलने वाली हिमानी पोषित एवं गैर हिमानी वर्षा पोषित नदियों
का अस्तित्व खतरे में है.
हिमालयी नदियों का
संकट और भी गहरा है. भूमंडलीय तापमान में वृद्धि और मानवीय गतिविधियों के
हिमरेखा तक पहुँच जाने के कारण हिमालयी नदियों के जलस्रोत ग्लेशियर अपना
प्राकृतिक स्वरूप खो रहें हैं. इनके सिकुड़ने की गति तेज़ हो गई है. बर्फ
पिघलने से ग्लेशियर झील में तब्दील हो रहें हैं और निचली घाटियों में आने
वाली बाढ़ का कारण बन रहे हैं.
अब तक उत्तराखंड हिमालय के
विकास का जो मॉडल सामने आया है, उसमें दशकों से स्थानीय गाँवों को रोशन
करने वाली थल- पिथोरागढ़, आरे- बागेश्वर, मसूरी तथा रामगाड़ नैनीताल जैसी
विद्युत परियोजनाओं की अनदेखी कर कुछ लोगों की ऊर्जा की भूख मिटाने के लिए
विकास के नाम पर हिमालय की पारिस्थितिकी को रौंदने वाली टिहरी जैसी
परियोजनाओं को प्राथमिकता देने वाली विकास नीति आई है. इसके तहत उत्तराखंड
की नदियोंको सुरंगों और बाँधों में समाने और अति संवेदनशील पहाड़ों को खोखला
करने का काम शुरु हो गया है.
नदियों का कत्ल कर रही परियोजनायें
सरकारी दस्तावेज़ों के अनुसार गंगा, यमुना, टौंस से लेकर काली तक उत्तराखंड
की लगभग सभी बड़ी नदियों पर बिजली उत्पादन हेतु लगभग 600 परियोजनाएँ
निर्माणाधीन अथवा प्रस्तावित हैं. जिसमें नदियों की अविरल धाराओं को बाँध कर
और संवेदनशील पहाड़ों को खोखला कर नदियों के जल को लम्बी लम्बी सुरंगों में
डाला जा रहा है अथवा डाला जाएगा. हक़ीक़त यह है, कि इनसे लोगों तथा देश को
कोई दीर्घकालीन लाभ नहीं मिलने वाले हैं. इन नदियों के किनारे सदियों में
विकसित हमारी समूची नदी घाटी सभ्यता विलुप्त हो सकती है. इसकी शुरुआत टिहरी
से हो चुकी है. फिर भी दर्जनों बाँध निर्माणाधीन और प्रस्तावित हैं.
सुरंगों के माध्यम से कार्यांवित होने वाली परियोजनाओं से अनेक गाँवों का
अस्तित्व खतरे मे पड़ने वाला है. चमोली जिले में सुरंग आधारित विष्णुप्रयाग
जल विद्युत परियोजना से चॉई गाँव का विध्वंस, बागेश्वर में सुडिंग गाँव और
उत्तरकाशी जिले में पाला गाँव के अस्तित्व का संकट इसके नवीनतम उदाहरण हैं.
इसके अलावा अनेक बस्तियाँ विस्थापन के कगार पर हैं और अनेक बस्तियों के
साथ – साथ उनके खेत, जंगल और उनसे जुड़े जीविका के साधन समाप्त हो रहे हैं,
जिनकी कोई भरपाई नहीं होने वाली है. निरंकुश सरकारें लोगों की आस्था और
आजीविका के आधारों को नष्ट करने पर जुटी हुई हैं.
इस प्रकार उत्तराखंड की नदियों के लिए दो तरह के खतरे साफ नज़र आ रहे हैं.
जिनके घातक परिणाम हो सकते हैं, इसकी शुरुआत हो चुकी है. जिसे निम्न रूप
में देखना उचित होगा- पहला जल विद्युत परियोजनाओं के अंतर्गत नदियों में
बनने वाले बड़े बाँध और सुरंगों के दुष्परिणामों के रूप में. दूसरा
उत्तराखंड हिमालय की जीवन रेखा कही जाने वाली गैर हिमालयी वर्षा पोषित
नदियों में निरंतर पानी की कमी के दुष्प्रभावों के रूप में सामने आईं हैं.
रूपल
अजबे ( गाँधी शांति प्रतिष्ठान नई दिल्ली में शोध सहायक के तौर पर
कार्यरत, महात्मा के जीवन-दर्शन को मुसलसल जारी रखने की कवायदों में मशरूफ़,
हिन्दी-उर्दू अदब के मुख्य नगरों में से एक नगर इन्दौर से ताल्लुकात रखती
हैं, क्रान्तिकारी विरासत, इनसे सम्पर्क rupalajbe@gmail.com पर कर सकते
हैं। )
"समाज के बनने बिगड़ने के हम साक्षी बनते रहते हैं. यह बनना बिगड़ना क्या है, यह समझ पाना कठिन होता जा रहा है. क्योंकि जिसे हम ‘बनना’ कहते हैं, वह दूसरे के दृष्टि में बनना ही हो ऐसा आवश्यक नहीं है. बनना शब्द रचनात्मक पहल को दर्शाता है."
ReplyDeleteसार्थक वाक्य, ये वाक्य हमें सोचने के लिए बाध्य करते है कि विकास और प्रगति के नाम पर हम कर क्या रहे है, जो लोग पिछले ३ दशको में विकास और प्रगति के नाम पर होने वाले छद्दम तमाशे से परचित है शायद इन निर्णयों से कतई उत्साहित नहीं होगें, देश को अपनी विकास अवधारणा पर पुनर्विचार करना होगा कि जो कुछ हो रहा है वो वाकई है क्या ?