हिंदुस्तान में बाघों की सिमटती दुनिया के प्रति गंभीर होकर सुप्रीम कोर्ट ने देश की प्रदेश सरकारों को टाइगर रिजर्व के ‘कोरजोन‘ जंगल का ‘बफरजोन‘ वनक्षेत्र बढ़ाए जाने का आदेश दिया है, साथ में कोरजोन में पर्यटकों के प्रवेश पर भी रोक लगा दी है। यह फैसला स्वागत योग्य है, लेकिन इस व्यवस्था से क्या बाघों की वंशवृद्धि को कोई फायदा पहुंचेगा? इस बात पर सवाल उठना लाजिमी है। वह भी इस वजह से कि बाघों के संरक्षण के लिए भारत सरकार ने सत्तर के दशक में बाघों के संरक्षण के लिए प्रोजेक्ट टाइगर शुरू किया था। इसके बाद भी बाघों की संख्या अरबों रुपए खर्च होने के बाद भी घटती जा रही है। यह प्रोजेक्ट टाइगर की असफलता ही कही जाएगी कि राजस्थान के सारिस्का नेशनल पार्क और पन्ना नेशनल पार्क मध्य प्रदेश में प्रोजेक्ट टाइगर शुरू किया गया उसके बाद बाघों की संख्या तो नहीं बढ़ सकी वरन् दोनों नेशनल पार्कों से बाघ जरूर गायब हो गए। प्रोजेक्ट टाइगर भी क्यों असफल हो रहा है इसकी समीक्षा किसी भी स्तर पर नहीं की गई है। तो क्या बफरजोन बढ़ा देने से बाघ अपना कुनबा बढ़ा पाएगें? इसपर संदेह होना लाजिमी है। दूसरी बात यह है कि विभिन्न कारणों के चलते बाघ जंगल के अपने प्राकृतिक वासस्थलों में न रुककर वह जंगल के बाहर आकर अपना रैन बसेरा बना लेते हैं, जहां उनके अवैध शिकार की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। जरूरत है व्यवस्थाएं इस तरह की जंगल के भीतर होनी चाहिए जिससे बाघ बाहर न आएं, तभी वह सुरक्षित रह सकते हैं और उनकी वंशवृद्धि भी हो सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने बाघों के प्राकृतिक वासस्थल यानी ‘कोरजोन’ जंगल में पहले से ही मानव की दखलंदाजी पर पूर्णतया प्रतिबंध लगाया ही था अब पर्यटकों के प्रवेश पर भी रोक लगा दी है। जबकि इससे पूर्व कोर्ट द्वारा दिए गए एक आदेश के अनुपालन में उत्तर प्रदेश की सरकार ने दुधवा नेशनल पार्क में बाघों की हिफाजत और वंशवृद्धि के लिए नार्थ एवं साउथ खीरी फारेस्ट डिवीजन एवं जिला शाहजहांपुर की खुटार रेंज तथा जिला बहराइच के कतर्निया घाट वन्यजीव प्रभाग के जंगल के ‘दुधवा टाइगर रिजर्व’ का बफरजोन वनक्षेत्र घोषित कर दिया है। इसके पीछे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि बाघों के रहने और घूमने का क्षेत्रफल बढ़ेगा ही साथ में उनका संरक्षण भी वाजिब ढंग से हो सकेगा। उधर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुपालन में पर्यटक जंगल में प्रवेश न कर सके, इसकी तैयारी में भी वन विभाग जुट गया है। अगर पर्यटकों के प्रवेश पर रोक लगाई जाती है तो इससे सरकार को ही पर्यटन व्यवसाय से होने वाले राजस्व की क्षति होगी। जबकि जंगल के भीतर क्या सही और क्या गलत हो रहा है इसकी जानकारी अब बाहर नहीं आ पाएगी। इससे वंयजीवों को कम और वन प्रवंधन में लगे स्टाफ को फायदा अधिक होगा। अभी तक यह था कि लोगों की आवाजाही से जंगल में चल रही गतिविधियों की जानकारी बाहर तक आ जाती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। इस तरह जंगल के भीतर वन विभाग का जंगलराज हो जाएगा।
यूपी के एकमात्र दुधवा नेशनल पार्क में सन् 1988 से प्रोजेक्ट टाइगर चलाया जा रहा है। दुधवा में जब इसे शुरू किया गया था तब दुधवा के आंकड़ों में यहां बाघों की संख्या 76 थी। उस समय जंगल और समीपवर्ती गन्ना के खेतों मे आमरूप से बाघ दिखाई देते थे एवं बाघों द्वारा मानव की हत्या करने या फिर मवेशियों को मारने की घटनाएं भी बहुतायत में होती थीं। अब बाघों की संख्या 110 बताई जा रही है, तो जंगल में ही वनराज बाघ के दर्शन दुर्लभ हैं, यह बात अलग है कि अब बाघ अक्सर खेतों में दिखाई देते हैं। अब तक दुधवा में ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ पर करोड़ों रुपया खर्च किया जा चुका है फिर भी बाघ अपने प्राकृतिक वासस्थल में रहने के बजाय बाहर खेतों में डेरा जमाए रहते हैं।
अंगे्रजी शासन काल में जिस किसी भी विधि से ग्रामीणों के सहयोग से बन प्रवधंन किया जाता था तब जंगल का संरक्षण भी होता था और वंयजीव-जंतु भी बहुतायत में पाए जाते थे। बदले परिवेश में आजाद हुए भारत में फारेस्ट मैनेजमेंट की विधियां बदलती गई साथ ही समीपवर्ती ग्रामीणों को वन प्रवंधन के कार्यों से अलग कर दिया गया। यहां तक उनको पूर्व में वन उपज आदि की दी जाने वाली सुविधाओं को बंद कर दिया गया है, इसके कारण समीपवर्ती ग्रामीणों का जंगल से भावात्मक लगाव खत्म हो गया साथ ही उनका वंयजीवों के प्रति रहने वाला संवेदनशील व्यवहार भी क्रूरता में बदल गया है। पिछले दस साल से दुधवा के तत्कालीन फील्ड डायरेक्टर रूपक डे द्वारा तैयार पंचवर्षीय ‘फारेस्ट मैनेजमेंट प्लान’ पर वैज्ञानिक विधि से वन प्रवंधन का कार्य किया जा रहा है। पांच साल में फारेस्ट मैनेजमेंट प्लान कितना सफल रहा अथवा असफल, इसकी समीक्षा या मूल्यांकन किए बगैर उसे पुनः पांच सल के लिए लागू किया जाना ही स्वयं में विचारणीय प्रश्न है। केवल ‘प्रोजेक्ट टाइगर‘ की बात की जाए तो इसकी असफलता की कहानी जग जाहिर भी हो चुकी है कि पूरे देश के नेशनल पार्कों में चल रहा प्रोजेक्ट टाइगर बाघों को संरक्षण देने में नाकाम्याब ही रहा है। अब अगर जंगल में पर्यटकों के प्रवेश पर रोक लगा दी जाएगी तो देशी-विदेशी पर्यटक जंगल में स्वच्छंद घूमने वाले दुर्लभ प्रजाति के वयंजीवों को न देख सकेंगे और न ही उनके संबंध में ज्ञानवर्धक जानकारी ही मिल पाएगी साथ ही वह प्राकृकि वनस्पतियों से भी वह अंजान ही रहेंगे। इसके अतिरिक्त कोरजोन में मानव अथवा पर्यटकों की आवाजाही पर पावंदी लगा दिए जाने से जंगल के अंदर शिकारियों और वन मफियाओं को अपना शरणगाह बनाने में आसानी रहेगी। इससे वंयजीवों के अवैध शिकार को बढ़ावा मिलेगा। अभी तक जंगल के भीतर मानव की अधिक दखलंदाजी तो नहीं है वरन् पर्यटकों के आने-जाने के कारण वन अपराधी जंगल के अंदर रहकर सुनियोजित अपराध नहीं कर पाते हैं। लेकिन अगर जंगल के भीतर घुसने में ही रोक लगा दी गई तो बन अपराधियों को एक तरह से जंगल के भीतर अपराध करने का अपरोक्ष लाइसेंस मिल जाएगा। यह स्थिति वंयजीवों के लिए कतई हितकर नहीं कही जा सकती है।
दुधवा नेशनल पार्क क्षेत्र के वंयजीवप्रेमी सवाल उठते हैं कि कागजों में लिखापढ़ी करके दुधवा टाइगर रिजर्व का वफरजोन जंगल बढ़ा दिया गया है, इससे वन्यजीवों को फायदा क्या पहुंचेगा? जबकि भौगोलिक परिस्थितियां तो वहीं है। बाघ अपने प्राकृतिक वासस्थल यानी कोरजोन में न रूककर जंगल के समीपवर्ती खेतों में आकर रहते हैं। दुधवा में फारेस्ट मैनेजमेंट के जो कार्य चल रहे हैं उनमें ही कहीं न कहीे कोई कमी है उसी का परिणाम है कि बाघ समेत अन्य वन्यजीव जंगल के बाहर भाग आते हैं। प्राकृतिक कारणों से जंगल के भीतर चारागाह भी सिमट गए अथवा वन विभाग के कर्मचारिययों की निजस्वार्थपरता से हुए कुप्रबंधन के कारण चारागाह ऊंची घास के मैदानों में बदल गए इससे जंगल में चारा की कमी हो गई है। परिणाम स्वरूप वनस्पति आहारी वन्यजीव चारा की तलाश में जंगल के बाहर आने को विवश हैं तो अपनी भूख शांत करने के लिए वनराज बाघ भी उनके साथ पीछे-पीछे बाहर आकर आसान शिकार की प्रत्याशा में खेतों को अस्थाई शरणगाह बना लेते हैं। परिणाम सह अस्तित्व के बीच मानव तथा वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ जाता है।
दुधवा का कोरजोन हो या फिर बफरजोन का जंगल हो उसके प्राकृतिक चारागाह सिमट गए हैं, इससे जगल में वनस्पति आहारी वंयजीवों को जहां नर्म घास यानी चारा उपलव्ध नहीं है। वहीं प्राकृतिक तालाबों अथवा जलश्रोतों का रखरखाव ऐसा है कि उनकी गहराई कम हो जाने के कारण गर्मियों में वयंजीवों को पानी के लिए जंगल के बाहर आने को बिवश होना पड़ता हैं। मानसून सीजन में नदियों की बाढ़ वन ही नहीं वरन् वंयजीवों को बुरी तरह से प्रभावित करती है। दुधवा का हरा-भरा जंगल सूखने लगा है और बाढ़ की विभीषिका अब राजकीय पशु बारहसिंघों के जीवन चक्र पर विपरीत प्रभाव डालने लगी है। जिसके कारण दुधवा नेशनल पार्क में बारहसिंघा कठिन दौर से गुजर कर अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा है। इसी तरह वनराज बाघ भी अपनी सल्तनत जंगल को छोड़कर बाहर आने को बिवश हैं। जंगल चाहे कोरजोन का हो अथवा बफरजोन का, उसमें अगर वंयजीवों के लिए चारा-पानी की व्यवस्था नहीं है तो उसका जंगल होना या न होना एक समान है।
भारत में बाघों की दुनिया सिमटती ही जा रही है। इसका प्रमुख कारण है कि पिछले कुछेक सालों में मानव और बाघों के बीच शुरू हुआ संघर्ष। बढती आवादी के साथ प्राकृतिक संपदा एवं जंगलों का दोहन और अनियोजित विकास वनराज को अपनी सल्तनत छोड़ने के लिए विवश होना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश के पूरे तराई क्षेत्र का जंगल हो अथवा उत्तरांचल का वनक्षेत्र हो या फिर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्, उड़ीसा आदि प्रदेशों के जंगल हों उसमें से बाहर निकलने वाले बाघ चारों तरफ अक्सर अपना आतंक फैलाते रहते हैं और वेकसूर ग्रामीण उनका निवाला बन रहे हैं। बाघ और मानव के बीच संधर्ष क्यों बढ़ रहा है? और बाघ जंगल के बाहर निकलने के लिए क्यों बिवश हैं? इस विकट समस्या का समय रहते समाधान किया जाना आवश्यक है। वैसे भी पूरे विश्व में बाघों की दुनिया सिमटती जा रही है। ऐसी स्थिति में भारतीय वन क्षेत्र के बाहर आने वाले बाघों को गोली का निशाना बनाया जाता रहा तो वह दिन भी दूर नहीं होगा जव भारत की घरा से बाघ विलुप्त हो जाएगें। प्रोजेक्ट टाइगर रिजर्व का बफरजोन वनक्षेत्र बढा़ देना केवल समस्या का समाधान नहीं है। अब जरूरत इस बात की है कि जंगल के भीतर चाहे वह कोरजोन हो या फिर बफरजोन का वनक्षेत्र हो उसमें ऐसी व्यवस्थाएं की जानी चाहिए जिससे न वन्यजीव चारा-पानी के लिए बाहर आएं और न ही बाघ जंगल के बाहर आने को विवश न हो सकें।
देवेन्द्र प्रकाश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार, अब तक तमाम बड़े अखबारों में पत्रकारिता, दुधवा के वन्य जीवन पर विशेष लेखन, इनसे dpmishra7@gmail.com पर सम्पर्क कर सकते हैं।
esame tiger photo bhe hone chahiye thi
ReplyDeleteNow future of Tigers are no more safe because of proper monitoring and unwated people frrely move in the core areas and do all nonsense things.Department should have demarcated the restricted core zone in proper manner and maintained the core zone well protected.In DNP/DTR in the begining as I know there was hardly buffer zone because on the north buffer zone was used a tharu rehabilitation and resstlement.
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