इसलिए करते हैं हम मूर्ति पूजा
एक बात तो है कि जो मजा चोरी से अपनी पसंद से तोडकर गन्ना खाने में है, वो पूछकर लेने में तो बिल्कुल भी नही। यही सोचकर मैं और मेरा छोटा भाई दूसरे गांव के गन्ने के खेत में घुस चुके थे। सबसे अच्छी किस्म का गन्ना था वो। ललचाई नजरों से हमने कईंयों गन्ने देखे पर बेहतर ना मिला। इसी खोज बीन में उस शाम हम जंगल की गहराईयों में उतरते चले गये।
भगवान कसम ! हम दोनों ही भूल चुके थे कि आगे जाना बिल्कुल भी खतरे से खाली न होगा। तभी मुझे महसूस हुआ कि भाई मेरे आसपास नहीं है। मैंने इधर-उधर देखकर उसे आवाज दी तो उसने और भी अगले खेत से मुझे पुकारा-
“आगे आओ भाई ! यह गन्ना और भी अच्छा है, जल्दी आओ” इससे बेहतर मेरे लिए और क्या हो सकता था। मैं दौडकर उसके पास गया। हम खोजते हुए बस दो ही कदम बमुश्किल चले होंगें हमे अपने आस-पास कुछ सुगबुगाहट महसूस हुई। फिर लगा जैसे किसी शेर ने डकार भरी हो। मेरी और मेरे भाई की सांसें जस की तस थम गई। शरीर में रक्त की गति करीब दस गुनी हो गई थी। अगले ही पल महसूस हुआ कि उस विशालकाय प्राणी ने एक करवट बदली है।
भाई ने फटी आँखों से मेरी आँखों में झांका, उसके चेहरे पर विस्मय और अजीब से भय की छाया थी। देर सवेरे कहीं जाना हो, किसी को तलब करना हो तो वो हमेशा आगे रहता है। पर यह कोई इन्सान नही बल्कि कोई खूंखार जानवर लगता है। और हमारे पास एक कील तक नही उसका सामना करने के लिए। मेरी भी धडकनें बेकाबू थी, मैंने उसे इशारे से समझाया।
“लम्बी सांसें लो और अपने पैरों पर चढती चींटियों को फिलहाल नजर अन्दाज करके बडे आराम से अपनी बैल्ट निकाल लो, मेरे पैर के नीचे दो पत्थर जैसा कुछ है, मैं उन्हें भी उठा लेता हूँ, चप्पलें निकाल कर हम आराम से भाग निकलेंगे। जबकि जानवर बडा है, उसे भागने में दिक्कत होगी। अब आराम से पैर पीछे रख, करीब दस कदम हटने के बाद हम भागेंगे।”
और हमने वैसा ही किया भी, लेकिन जैसे हम चार-एक कदम पीछे हटे होंगें कि तभी एक सांप जैसा कुछ हमारे पैर के नीचे से सर्रर्रर्र...ऽऽऽऽऽ से निकला, हम दोनों भाईयों की तो चींख ही निकल गई। हम धडाम से एक-दूसरे को थामे नीचे गिरे। दिमाग सुन्न और हाथ-पैर ठण्डे हो रहे थे। एक बार आसमान की तरफ देखा तारे उपजने लगे थे। मन में यही आया कि बोल दूं-
“हम भी आ रहे हैं”।
भाई ने कहा- “हम घर भी बताकर नहीं आए भाई”.........चुप यार ! सांप चला गया उसने शायद हमें नही काटा.........तू डर..........और इससे पहले कि मैं उसे “डर मत” बोल पाता, गन्नों को ताबडतोड रौंदता हुआ वो विशालकाय हमारी तरफ बढा। हम तो जहाँ-के-तहाँ पडे ही थे। मारे भय के दूसरी चींख निकली। वो जानवर भी हम पर चिल्लाया। पर इस बार हम नहीं चींखें क्योंकि हम जान गये थे कि यहाँ हमें सुनने वाला कोई नहीं है। हमने एक-दूसरे को कसकर जकड रखा था। अंधेरे में उसको पहचानना मुश्किल था। वो दौबारा झल्लाकर आगे बढा और इस बार हम दोनों खडे होकर पीछे को भागे ही थे कि वो जानवर धम्म-से धरती पर गिर पडा। और इस बार उसकी जो करूणामयी पुकार निकली वो वास्तव में हृदय विदारक थी, हमसे पीछे मुडे बिना रहा नही गया। वो खुद से जुझ रहा था। उसकी आवाज इस बार हम पहचान गये थे क्योंकि डर थोडा इतर हो चुका था।
वो तो एक हष्ट-पुष्ट सांड था। हम उसके करीब पहुँचे। हमने हाथ लगाने से पहले दूर से ही उसको चुमकारना शुरू किया। उसने भी धीरे-धीरे हामी भरनी शुरू कर दी। भाई ने मुझसे कहा-
“भाई ! वो सांप नही रस्सा था ! देखो रस्से से इसकी गर्दन और अगले पैरों को एक साथ बांधा गया है।”
वाकई उसको बुरी तरह से रस्सों में जकडा गया था। वो अपना एक पिछला पैर बार-बार पटक रहा था। मैंने महसूस किया कि उस जगह पर कोई धारदार हथियार भौंका गया होगा। हमें सबसे पहले इन रस्सों की जकडन से मुक्त कराना था, लेकिन रस्से एक तो भिगने की वजह से और दूसरे उसकी बेहिसाब झटपटाहट के कारण ऐंठ कर कडे हो चुके थे जो हमारे हाथों से खुल पाने मुश्किल थे। इसीलिए उन गोबर-मिट्टी-गारे से सडे रस्सों की गाठें हमने हाथों से ही नही, मुंह से भी खोलकर निकाल फैंकी। अब वो पूरी तरह आजाद हो चुका था। मन हुआ उसे बाहों में भरकर खूब प्यार दूँ, बात करूँ और धीरे-से कान में कहूँ-
“खबीश कहीं के ! तूने तो हमें डरा ही दिया था”
पर नहीं फिलहाल उसका लेटे रहना ही मुनासीब समझ हमने गन्ने तोडे, ऊपर की हरी कोकलें उसके सामने डाल दी, ताकि वो उन्हें खा सके। जाते वक्त भाई उससे बोला-
“ये गन्ने हमने अपने खाने के लिए नहीं बल्कि इसलिए तोडे ताकि तू कुछ खा सके ! वरना हम कभी किसी का कोई नुकसान नही करते।”
डरे हांपे हम सीधे घर पहुँचे। लेकिन किसी को बताया कुछ नही। रात के सपनों में भी मुझे तो सांपों से बंधा एक सांड ही दिखाई देता रहा था। अचानक कुछ शोर सुनकर मेरी आँखें खुली। मेरा छोटा भाई बोल रहा था-
“हमने रात ही तो देखा था ! भाई ने नही बताया क्या !”
ओत्तेरी की-मर गये यार ! मैने तो देर से आने का कारण कुछ और ही बता डाला था, ये खबीश सारी पोल खोले जा रहा है। सोचकर मैं तेजी से उठा और रजाई ओढकर कमरे से बाहर निकला कि तभी मुझे सांड महाशय की भी आवाजें सुनाई दी। मैं लगभग फुदकता-सा बाहर आया। उसे देखते ही बरबस मेरे मुंह से निकल पडा-
“ओए...तूने तो घर भी ढूंढ लिया बे....!”
उसने अपने नथुनों से ढेर सारा धुआं उगलते हुए धीरे से हामी भरी और मेरी तरफ देखा। उसकी आँखों में पानी उतर आया। मम्मी उसके लिए दो बादाम और ढेर-सा गुड लेकर आई “सर्दी में गुड खिलाने से उसको थोडी गर्मी मिलेगी”
मैं उसके पास पहुँचा ताकि उसे छू सकूं तो उसने अपनी खुरदरी जीभ से मेरा हाथ चाटना शुरू कर दिया-
“अरे छैनूं ! गुदगुदी हो रही है भाई, तुम्हारी जीभ है या रेगमार !”
मम्मी ने मुझे उसके साथ खेलता देख गुड भी मुझे ही दे दिया और बोली-
“तू नाम बडी जल्दी रखता है रे ! छैनूं........! अच्छा नाम है।”
देखते-ही-देखते उसे देखने वालों का जमावडा-सा लग गया वहाँ। तभी मुझे याद आया कि उसको एक घाव भी था। मैंने पीछे जाकर देखा-उसका पुट्टा चिरे तरबूज-सा खिला पडा था। आसपास भी गहरे निशान थे। मैं दौडकर अन्दर गया, मम्मी को गर्म पानी करने को बोल मैंने सबसे पहले उसे चारा डाला और घाव पर जमीं मिट्टी और थक्के साफ किये और फिर उसके घाव में मरहम भर दिया।
लोगों में तरह-तरह की बात होने लगी। मुझे महसूस हुआ कि लोगों के अन्दर उसके प्रति सहानुभूति है। पूरे गांव में खबर फैल गई कि भगवान के आर्शीवाद से गांव में भगवान शिव के नन्दी पधारे हैं। औरतों ने उसे रोटियां, गुड और भी न जाने क्या-क्या खिलाया, मर्दों ने उसकी सुरक्षा के बारे में सोचना शुरू कर दिया। सभी का सक गौकशी की और था। गहरे जंगल में किसी जानवर का जकडे मिलना, इस बात का पुख्ता सबूत भी था। इसीलिए लोगों ने कईं अधकचरे कसाईयों पर भी नकेल कसी, और चेतावनी भी दी।
छैनूं की चमत्कारिकता इसलिए भी बढ गई थी क्योंकि वो प्रत्येक शनिवार भूमिया और प्रत्येक सोमवार शिव मन्दिर प्रांगण में ही रहता था, तो लोगों की उसके अलौकिक होने की आशंका और भी बलवती होती जाती थी। बीतते-बीतते कुछ समय बीता। अब छैनूं मेरे पास सिर्फ मरहम पट्टी ही करवाने नही आने लगा था। उसका बाकी का वक्त गांव के बडे लोगों से सम्पर्क साधने में ही बीतने लगा था। मैं सुबह उठकर मम्मी से पूछता कि-
“आज छैनूं नही आया क्या !”
तब मम्मी से एक बहुत पुराना जवाब ही मिलता था-
“तू सबसे इतनी जल्दी मत घुला-मिला कर, तुझे नींद भी ठीक से आई थी ना”
“हाँ आई थी, पर मुझे रात छैनूं का सपना आया” “
तो ये कौन सी नई बात है ! चल फटाफट स्कूल के लिए तैयार हो”
मुझे हर समय उसका वो भोला चहेरा और आँखें नजर आती जिनमें आंसू भर कर वो मुझे देखता था। उसकी धुआँ उगलती मीठी सांस, और गरजती आवाज, मेरी हर बात पर हामी भरना, हाथ चाटना, मेरी आवाज पर दूर से भी कान खडे करना और छैनूं कहते ही मेरी तरफ पलटना, उसके गले पर लटकता वो मखमली मोटा गद्दर कम्बल के जैसा कम्मल, जिस पर हाथ फिराते ही वो लम्बी डकारें भरता और आँखें बन्द करके अपना कुन्तलों का चहेरा मेरे छोटे से कंधे पर टिका लेता था, वो सब याद आता था। पर वो नही आता था क्योंकि वो अब बडे समाज का सामाजिक प्राणी हो चुका था। उसकी याद आती तो मैं अपनी गाय के बछडे में वो सब बाते ढूँढने की कोशिश करता, पर उसके छोटे नथुनों से तो बीडी जितना धुँआ भी बहुत मुश्किल से निकल पाता था। वो गरजता नही था, सिर्फ दूध पीने के लिए मिमिया सकता था। अगर उसकी भोली आँखों में झांकने की कोशिश करो तो टक्कर मारकर माथा फोड दे। उसके गले पर एक रूमाल के माफिक कम्मल लटका था। उसको छूने जाओ तो रस्सा तुडाने को आमादा हो जाता कि जैसे मैं उसे दूध पिलाने के लिए लेने आया हूँ।
छैनूं सिर्फ छैनूं है और मेरे बिरजू को छैनूं बनने में ढेर सा वक्त लग जाना है। यही सोचते-सोचते अभी सिर्फ दो ही महीने गुजरे थे कि एक शाम मचे कोहराम ने छैनूं की पूरी प्रभुता इर्द-गिर्द कर दी। मुंतजिर और आमिर नाम के दो लोग उसके पीछे मशाल और भाले लेकर दौड रहे थे, दो और लोग उसके पीछे कनस्तर पीटते हुए दौडे आ रहे थे। छैनूं यहाँ से कूद वहाँ से टापे सीधा मेरे दरवाजे के सामने आकर हुंकारा। मैं बाहर निकला, हथियार बंद उसके बिल्कुल नजदीक और वार करने को एक दम तैयार !
मैं सामने आया “ओए ! कोई हाथ नही लगावेगा”
“क्यों ! तेरा है !”
“हाँ मेरा है”
“तो घर में बांध के रख, लोगों का नुकसान करेगा तो मार तो खावेगा”
दूसरा चिल्लाया-
“बरछी मार बरछी ! वकालत का टैम ना है”
तभी पापा आ गये- “ओ ! पिच्छै हट”
“तुझे के पता इसनै चणे के पूरे खेत का के सत्यानाश.........!”
“मैं बोल्या पिच्छै हट.......! अर अगर इसै यहाँ मेरे दर पै जरा सी भी चोट आई तो म्हारे तै बुरा कोई ना होवेगा ! जा घर जा..........!”
आज की मुसीबत टली पर तभी के तभी दूसरी मुसीबत आन पडी, और तब के बाद शायद ही कभी धारदार हथियार बंद लोगों ने उसका पीछा छोडा हो। लेकिन इस बार आमिर या उसके भाई नही बल्कि कल तक उसको पूजने वाले अमर और उसके भाई थे। उस पर औचक हमले हुए, उसको घेर कर बींधा जाता था, उसकी फुर्ती ही थी जो हर बार उसे बचा ले जाती थी। उसके खिलाफ सही आरोप कम और अफवाओं के केस ज्यादा दर्ज थे। सभी आमिर चुप थे क्योंकि उनके पहल करने से पहले ही कुछ संवैधानिक धाराएं बाधित हो रही थी, पर अमर उसके खिलाफ कमर कसे हुए थे।
अपने खिलाफ लोगों का बढता आक्रोश देख उसने हमारे घेर में अन्य पालतू जानवरों के साथ जामुन के पेड के नीचे अपना आराम गाह बना लिया, यह जगह उसके लिए ज्यादा महफूज थी, क्योंकि यह जगह मेन रोड से कटकर एक संकरी गली में थी।
एक सुबह छैनूं ने अपनी बोझिल पलकें खोली, और अपने आस-पास के शान्त माहौल को निहारकर वो फिर निन्द्रा तल्लीन हो गया। कुछ ही देर में स्कूली बच्चों का कोलाहल शुरू हो गया, हम काॅलेज जाने को तैयार थे, सब कुछ सामान्य था, सिवाये इसके कि कुछ लोग आँखों ही आँखों में इशारे करते हुए हमारे घेर के चारों ओर बने मकानों की छतों पर चढ रहे थे। तभी घेर के दोनों ओर से ट्रेक्टर आकर इस तरह खडे हुए ताकि दोनों ओर की गली बंद हो जाए। आते-जाते लोगों ने तब भी ध्यान नही दिया, वो ट्रेक्टर से बचते-बचाते निकलते रहे। छैनूं की निन्द्रा टूटी, उसने नजरे उठाकर देखा, कुछ जाने-पहचाने, खुंखार और क्रूर चहेरे सामने थे। हमें आदत है कालेज जाते वक्त सभी सहगामियों को इक्ट्ठा करने की और इसी कारणवश मैं उधर जा रहा था, और मुझे यह भांपते पल भी न लगा कि यह जरूर छैनूं के प्राण के प्यासे ही खडे हैं। मैं झट से ट्रेक्टर पर चढा और उसे फांदते हुए घेर में कूदा। एक हमलावर ने छैनूं पर वार किया। भाला सीधा छैनूं के पैर के पास जमीन में घुस गया।
“उसे मत मारो योगपाल भाई, उसे मत मारो”
मैं चिल्ला-चिल्लाकर उनसे विनती जैसी कुछ कर रहा था, पर उन्होंने तो भालों की बरसात सी ही कर दी पूरे प्रांगण में। वो भूल चुके थे कि वहाँ उनका कथित दुश्मन “एक जानवर” ही नही बल्कि एक “मैं” भी हूँ, वो शायद हर उस चीज को मिटा सकते थे जो उनके आडे आ रही थी, एक भाला मुझसे कुछ दूरी पर ही गडा, मैं बुरी तरह घबरा कर पीछे हटा तो एक ट्रेक्टर घुर्र-घुर्र करता लगभग मुझसे टकराया, ट्रेक्टर को नजदीक आता देख छैनूं ने ट्रेक्टर के ऊपर अपने अगले पैर रख लिए, वो उसे फांदना चाहता था, तभी उन्होंने एक और नुकीला हथियार दागा जो हम दोनों के बीच आकर गिरा। मैं समझ गया कि वो लोग क्रोध में इतने अन्धे हैं कि मुझे भी नही देख पा रहे हैं।
छैनूं ताकतवर तो है लेकिन अगर मुझे कुछ हुआ तो वो मुझे बचा नही पायेगा। वहाँ मौत हमें छूकर गुजर रही थी। अब लोगों ने दिवारें उखाड कर ईंटे बरसानी शुरू कर दी थी। मुझे ट्रेक्टर को दौबारा कूद कर वापस आना पडा। मैं वहाँ से भी चिल्लाता ही रह गया। छैनूं घायल हुआ जा रहा था, उसकी ट्रेक्टर को फांदने की कोशिश नाकामयाब हो रही थी, और उन दानवों की युक्ति कामयाब हो रही थी। छैनूं ने आखिरी कोशिश की और इस बार उसके पैर स्टैरिंग तक चले गये। ड्राईवर जो अभी तक खिलखिला कर फटा जा रहा था, मारे भय के ट्रेक्टर लेकर पीछे भागा। छैनूं को रास्ता मिल गया, छैनूं वहाँ से सीधा भागा।
मैं आज भी वो पल याद करता हूँ तो रोंगटे खडे हो जाते हैं, कि जब दो छोटे-छोटे बच्चे जो ठीक से चल भी नही पाते थे, फरवरी की ठण्ड में गली में बैठे खेल रहे थे। छैनूं ने जैसे ही घेर से निकल कर सीधी दौड लगायी तो मेरे हताश चेहरे पर रोनक आई, मैं खूब जोर और जोश से चिल्लाया-
“भाग छैनूं भाग”
लेकिन वो अबोध बालक मौत के इस मंजर से अनभिग थे। छैनूं जैसा विशालकाय एक बार में उन्हें रौंद सकता था। वो दृश्य देखकर मेरी सांसे थम गई थी, और मेरा मुंह फटा का फटा रह गया था कि जब वो उनके ऊपर से गुजरा था। बच्चे सिर्फ इधर-उधर देखते रह गये और फिर से खेल में मग्न हो गये, क्योंकि वो पूरी तरह सुरक्षित थे। इसके विपरीत वो वहशी ट्रेक्टर लेकर फिर से उस संकरी गली में उसके पीछे दौडे। उनको तो वो बच्चे भी दिखाई नही दिये, बहुत मुश्किल से उन बच्चों को वहाँ से बचाया जा सका।
इस घटना के बाद खबर आस-पास तक फैल गई। हमलावरों की पूरे गांव में थू-थू हुई। पंचायत में आमिर और उसके भाईयों ने बताया कि वाकई में वो जानवर साधाहरण नही था। हमारे चने का खेत खाने के बाद एक ही जगह से दो-दो, तीन-तीन कौंपलें फूटने लगी थी, जहाँ इसने गन्ने के पौधे खाये थे अब वहाँ गन्ना इतना घना हो गया है कि वहाँ से निकल पाना कठिन है, हम उसमें खाद कैसे डाले ! या फिर ये कहें कि “डालने की जरूरत ही नही”। हम अपना इल्जाम वापस लेते है, इसकी जूठन में बरकत है, इसलिए और लोगों को भी अपने इल्जाम वापस ले लेने चाहिए।
पर बाकि लोगों का आरोप यह था िकवह रात के समय उनके जानवरों को टक्कर मार-मारकर घायल कर जाता है। हमनें रात में अक्सर उसको भैंसों को टक्कर मारते देखा है। तब पंचायत में फैसला हुआ कि सभी अपने तबेलों को रात के समय किसी भी तरह खुला न छोडें, ताकि वो अन्दर ही ना जा सके। लोगों ने यह भी मान लिया और शाम से ही अपने तबेलों की निगरानी शुरू कर दी।
सुबह में सबने शुकून की सांस ली। सब कुशल-मंगल था। बहुत शान्ति थी। छैनूं को मैं सिर्फ अपना मान रहा था, पर उसका सार्वजनिकीकरण हो जाने से भी अब मुझे कोई खास दुःख नही था। हर वक्त ना सही कभी-कभी तो वो आता ही है। हर शनिवार और सोमवार तो मन्दिर प्रांगण में मिलेगा ही। मैं सुबह उठकर ये सोच ही रहा था कि तभी मेरे छोटे भाई ने आकर मुझे खबर दी-
“भाई छैनूं को किसी ने जहर देकर मार डाला”
“अपने छैनूं को.....!”
“हाँ भाई ! पीछे वाले बाग में मरा पडा है”
मैं झट से रजाई से निकला और उस ओर भागा। मुझे याद है भाई पीछे-पीछे चप्पलें और स्वेटर उठाये लाया था। हम सिर्फ उसे देखते रह गये, वो एकदम शान्त था। उसके कान, नाक, आँख, मुंह सब ओर से काला पड चुका खून बह रहा था, मक्खियाँ भिन-भिना रही थी। लोगों की भीड जमा होने लगी। मैं वहाँ ज्यादा देर तक रूक नही पाया। मैं उसे देखकर काफी कमजोर पड रहा था।
उसे इस हालत में पडा देख वो दिन याद आ रहा था, जब हम उसे इसी हालत में बंधा देख देर-सवेर देखे बिना ही खोलने में लग गये थे। मुंह से रस्सियां खोलते-खोलते ये तक भूल चुके थे कि दादी को तीनों वक्त हाई जिनिक-जिनिक की स्पैलिंग रटवाने वालों के मुंह में खेत की गारा-मिट्टी भर गयी थी। “आज याद आ रहा है, जब वो सदा के लिए जा रहा है !” बार-बार अपने होंठ और दांत साफ कर रहे हैं, दातों में किरकिराहट महसूस हो रही है, दोनों के जहन में वो ही पल याद आ रहा है। बरबस ही जब हमनें एक-दूसरे की आँखों में देखा तो वो भरभरा रही थी, कह रही थी-
“जो भी हुआ अच्छा नही हुआ है”
करीब दो घण्टे में ही आस-पास के गांव तक के लोग भी इक्ट्ठा हो गये। छैनूं को मन्दिर के प्रांगण में दफना दिया गया। शायद ही किसी मृत व्यक्ति की शवयात्रा में इतने लोग इक्ट्ठा हुए होंगें, शायद ही इतना कफन किसी और पर डाला गया होगा, शायद ही इतने लोग एक साथ किसी के अन्तिम दर्शन को कहीं उमडे होंगें जितने कि छैनूं के लिए आये थे। तीन शंख और तीन घण्टे एक साथ बज रहे थे। लोगों से शान्ति बनाये रखने के लिए अपील की जा रही थी। औरतों और बच्चों से न रोने का अनुरोध किया जा रहा था। छैनूं को उस दोपहर अश्रुपूर्ण विदाई दे दी गई और इसी के साथ ही साथ घोषणा की गई कि यहीं इसी स्थान पर प्यारे नन्दी महाराज की समाधि और मूर्ति लगाई जाएगी।
छैनूं के स्वर्ग सिधारते ही गांव से पूरे छः भैंसे चोरी हुए, और तब सबके सामने बात सीधी हो गई कि चोर रात में भैंसे चोरी करने आ तो लगातार रहे थे लेकिन छैनूं अक्सर उनको वहाँ से मार भगाता था। पर दुर्भाग्य यह था कि जैसे ही जानवरों में भगदड मचती और मालिक उठकर वहाँ आते तो सामने हमेशा छैनूं को ही पाते थे। और उनका श कइस बात पर जाता कि छैनूं उनके जानवरों को मारने आता है।
कुछ दिनों बाद मूर्ति भी लग गई, एक दम छैनूं जैसी। लोग आते हैं, जल चढाते हैं, मुंह पर गुड चिपकाते हैं, चरण छूते हैं, उसके पाक साफ व्यवहार को याद करके और उसकी कमी का अहसास करके आँखे नम करते हैं और चले जाते हैं।
मैं उसकी आँखों में झांकता हूँ तो वो कोई उत्तर नही देता। उसका गला बहुत कठोर है, मीठी सांसे ना छोडना ही तो उसकी सबसे बडी खासियत है। अब वो किसी का खेत चरने नही जा सकता है, ना ही रोटी खाने किसी के घर जा सकता है, ना ही वो देर रात गलियों में रोनक करेगा, ना किसी के जानवरों को घायल करेगा। बस जैसे हमने बैठा दिया, चिपका दिया, चिपका रहेगा। अब वो निर्जीव हमारे वश में है।
“मैं समझ गया इसीलिए तो करते हैं हम मूर्ति पूजा”
अंकुर दत्त (लेखक मूलत: सहारनपुर जनपद
उत्तर प्रदेश के निवासी है, मौजूदा वक्त में दिल्ली में निवास, वन्य जीवन
एवं इतिहास में गहरी दिलचस्पी, भावनात्मक मसलों को कागज पर कलम और ब्रश से
उतार लेने के हुनर में माहिर, इनसे ankurdutt@ymail.com पर सम्पर्क कर सकते हैं।)
बहुत मर्मस्पर्शी कहानी ...॥
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