15 दिसम्बर 2011 को बड़ी संख्या में आदिवासी एवं अन्य परम्परागत वन समुदाय जंतर मंतर पर देगें सरकार को चुनौती
20 राज्यों से हज़ारों की संख्या में जनवनाधिकार रैली में भाग लेने के लिए वनाश्रित समुदाय दिल्ली रवाना
संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान हज़ारों की संख्या में देश के आदिवासी एवं अन्य परम्परागत वनसमुदाय मागेगें सरकार से जवाब कि आखिर पांच साल बीत जाने पर भी वनाधिकार कानून 2006 को पूरी तरह से देश में लागू क्यों नहीं किया जा रहा। दिल्ली में सर्दी बढ़ने के बावजूद भी कल रात से ही कई प्रदेशो जैसे उत्तराखंड़, उत्तरप्रदेश व झाड़खंड़ के वनक्षेत्रों से हज़ारों की संख्या में वनाश्रित समुदाय जंतर मंतर पर एक़ि़त्रत होना शुरू हो गये हैं। जिसमें 80 फीसदी महिलाए हैं जो कि जंगल पर अपने सामुदायिक वनाधिकारों के लिए यह ऐलान करने आई हैं कि अब वनों पर समुदाय का नियंत्रण रहेगा न कि सरकार व वनविभाग का। आज शाम तक कई राज्यों से हज़ारों की संख्या में वनाश्रित समुदाय जंतर मंतर पर इकट्ठा हो जाएगें। यह राज्य हैं छतीसगढ़, बिहार, तमिलनाडू, कर्नाटक, केरल, पं बंगाल, अरूनांचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उड़ीसा, मध्यप्रदेश आदि। यह जनवनाधिकार रैली अपने वनाधिकारों को लेकर ही नहीं बल्कि केन्द्र सरकार द्वारा लाए जाने वाले काले कानून ‘भूमि अधिग्रहण कानून’ का भी विरोध दर्ज करने आ रहे हैं जिसकी मंशा वनाधिकार कानून की मंशा के ठीक विपरीत है जोकि एक हाथ दे और दूसरे हाथ ले की मंशा पर आधारित है। इस जनवनाधिकार रैली के तहत वनाश्रित महिलाओं अपने नेतृत्व में यह ऐलान करने आ रही हैं कि अगर उनके अधिकारों को तत्काल मान्यता नहीं दी गई तो वे अपने खोए हुए जंगल, भूमि, नदी, तलाब, समुद्र, वनोपज आदि सरकार, वनविभाग, कम्पनियों से छीन कर अपना दख़ल कायम करेगें।
गौर तलब है कि सन् 2006 में अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वननिवासी(वनाधिकारों को मान्यता) अधिनियम-2006 लोकसभा में पारित किया गया लेकिन अभी तक इस कानून को लागू करने की राजनैतिक इच्छा सरकारों में दिखाई नहीं दे रही है। अभी भी वन क्षेत्रों में वनविभाग का उत्पीड़न बादस्तूर ज़ारी है व वनविभाग पर इस कानून को लागू करने की जिम्मेदारी सौंप दी गई है जिसका ज्वलंत उदाहरण छतीसगढ़ व मध्यप्रदेश में है। इस कानून के लागू होने से जहंा एक और वनाश्रित समुदाय को जंगलों के अंदर एक जनवादी जगह बनाने में मदद मिली है व पहली बार शासन व प्रशासन का दख़ल हुआ है जिसके कारण जहां लोग संघर्ष कर रहे हैं वहीं पर इस अधिनियम के तहत कुछ सफलाताए जरूर हासिल हो रही हैं लेकिन अभी तक व्यापक तौर पर वनों में रहने वालों को उनके अधिकारों की मान्यता नहीं मिल पाई है। सबसे पहले इस कानून के तहत वनाश्रित समुदायों को व्यक्तिगत दावों में ही उलझा कर रख दिया गया है व लाखों के पैमाने पर इन दावों को भी निरस्त कर दिया गया है यह कह कर कि यह दावें ग्राम स्तरीय वनाधिकार समिति ने निरस्त किए हैं। जबकि इन दावों को उपखंड़ स्तरीय समिति एवं वनविभाग द्वारा गैरकानूनी ढं़ग से निरस्त किया जा रहा है। लगभग 50 फीसदी दावें अन्य परम्परागत वनसमुदाय के निरस्त किए गए हैं यह कारण बता कर कि उनके पास 75 वर्ष का प्रमाण मौजूद नहीं है। अन्य परम्परागत वनसमुदाय में दलित, पिछड़ी, मुस्लिम व अन्य ग़रीब तबका शामिल है जो कि सदीयों से आदिवासीयों की तरह वनों में रहते चले आ रहे हैं। इनमें से एक समुदाय टांगीयां वननिवासीयों ने तो अंग्रेज़ों के ज़माने से हिमालय की तलहटी पर लाखों हैक्टेयर इमारती वनों को आबाद किया व देश के औद्योगिकरण में एक विशिष्ट भूमिका निभाई। लेकिन इनके अधिकार तो देने की बात दूर इनके गांवों को गिना तक नहीं जा रहा है। देश में वनग्रामों की संख्या लगभग 7000 के आसपास है लेकिन सरकारी दस्तावेज़ों में इनकी गिनती ही नहीं की गई है। ऐसे कई मिसालें हैं जैसे पं0बंगाल, असम, उत्तराखंड़, उत्तरप्रदेश आदि। इन गांवों को वनाधिकार कानून के तहत राजस्व ग्राम में बदलने की प्रक्रिया को करना है लेकिन इस संवैधानिक अधिकारों को देने की बजाय बेदखली के नोटिस व अतिक्रमण के झूठे मुकदमें दायर कर उन्हें जेल भेजा जा रहा है। वहीं दूसरी और कानून की प्रस्तावना में उल्लेखित ऐतिहासिक अन्याय को समाप्त करने की मंशा के ठीक विपरीत वनाश्रित समुदायों पर सन् 2006 के बाद हज़ारों मुकदमें भारतीय वनअधिनियम 1927 के तहत किए जा रहे हैं। यह वहीं कानून हैं जिसे अंग्रेज़ों ने भारत के जंगलों को साम्राज्यवादी मुनाफे के लिए इस्तेमाल करने के लिए बनाया था और इसी कानून को वनाश्रित समुदाय के प्रति किए गए ऐतिहासिक अन्याय की बुनियाद माना गया है लेकिन फिर भी अभी तक केन्द्र सरकार द्वारा वनविभाग के उपर लगाम नहीं कसी जा रही है। उसी तरह न्यायपालिका भी अभी तक नए कानून वनाधिकार कानून को समझने में नाकाम है या जानबूझ कर समझना नहीं चाहती व अभी तक ब्रिटिश के बनाए कानून व वनों से जुड़े अन्य सामान्य कानूनों के तहत ही कार्यवाही कर वनश्रित समुदाय के प्रति नाइंसाफी कर रही है। यहीं नहीं वनक्षेत्र में पाई जाने वाली आपार खनिज एवं भूगर्भभीय संपदा को गैरकानूनी रूप से अनापति प्रमाण पत्र ज़ारी किए जा रहे हैं जो कि लाखों हैक्टेयर वनभूमि पर अपना कब्ज़ा जमा कर हमारे देश की धरोहर प्राकृतिक संपदा को राजसता में बैठे लालची राजनेताओं के माध्यम से नष्ट करने पर आमादा है। इस मामले में अभी हाल ही में वन सलाहकार समिति ने इस तथ्य को उजागर किया कि कई बड़ी कम्पनियों को पर्यावरण अनुमानको के विरूद्ध अनापति प्रमाण पत्र ज़ारी करने में कई उच्च वन अधिकारीयों को दोषी पाया गया है।
इन सब मुददों को लेकर जनवनाधिकार रैली में कई जनसंगठनों व सामाजिक आंदोलनों की भागीदारी 15 व 16 दिसम्बर को जंतर मंतर पर होने वाली है। जिसे कई पार्टीयों के सांसद सम्बोधित करेगें। यह जनसंगठन व जनांदोलन कई प्रदेशों से हैं जिनमें मुख्य तौर पर राष्ट्रीय वन-जन श्रमजीवी मंच, कैमूर क्षेत्र महिला मज़दूर किसान संघर्ष समिति, महिला वनाधिकार एक्शन कमेटी, तराई क्षेत्र एवं थारू आदिवासी महिला मज़दूर किसान मंच, वनग्राम एवं भू-अधिकार मंच, घाड़ क्षेत्र मज़दूर संघर्ष समिति, घाड़ क्षेत्र मज़दूर मोर्चा, कैमूर मुक्ति मोर्चा, बिरसा मुंडा भू-अधिकार मंच, पाठा कोल दलित अधिकार मंच, मानवाधिकार कानूनी सलाह केन्द्र, वनवासी जनता यूनियन, दक्षिण बंगा मत्सयजीवी मंच, हिमालय वनग्राम यूनियन दार्जिलिंग, हिमालय नीति अभियान हिमाचल प्रदेश, झाड़खंड़ खनन क्षेत्र समन्वय समिति, केरल स्वतंत्र मतस्य थोज़ीलई यूनियन, किसान मुक्ति संग्राम समिति असम, लोक संघर्ष मोर्चा महाराष्ट्र, नदी घाटी मोर्चा छतीसगढ़, राष्ट्रीय आदिवासी गठबंधन, दलित भूमिअधिकार संघर्षो का राष्ट्रीय संघ, बुनकारों को राष्ट्रीय संघ, राष्ट्रीय मछुआरा मंच, राष्ट्रीय वनाधिकार अभियान, पं0 बंगा खेत मजदूर समिति, सुन्दरबन वनाधिकार संग्राम समिति, वनपंचायत संघर्ष समिति, मजूर श्रमिक यूनियन असम व पं0बंगाल, जनसत्याग्रह उड़ीसा, आदिवासी सालीडारीटी काउसिल, डायनमिक एक्शन, माटू जनसंगठन, जनआंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, राष्ट्रीय घरेलू कामगार यूनियन, राष्ट्रीय हाकर संघ, न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव, पार्टनर इन जस्टिस कन्सर्न, प्रोग्राम फार सोशल एक्शन, विकल्प सामाजिक संगठन, सेंटर फार हयूमन राईटस इनिशिएटिव, ट्रेनिंग एण्ड रिसर्च एसोशिएशन, वनटांगीया समिति गोरखपुर,इत्यादि।
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