लापरवाही की भेंट चढ़ा दुधवा का गैंडा
-डी0पी0 मिश्रा
-डी0पी0 मिश्रा
पलियाकलां-खीरी। दुधवा नेशनल पार्क में चल रही विश्व की एकमात्र अद्रितीय गैंडा पुनर्वास परियोजना के गैंडों का भविष्य सुरक्षित नहीं रह गया है इसका प्रमुख कारण है कि बीते दिवस गैंडा इकाई परिक्षेत्र में मरे गैंडा का शव एवं कंकाल पड़ा रहा उसे वनपशु खाते रहे उसकी भनक पार्क के कर्मचारियों को नहीं लग पाई यह अपने आप में ही विचारणीय प्रश्न है साथ ही गैंडों की मानीयटरिंग किए जाने का दावा भी खोखला साबित हो गया है। इस मामले को गंभीरता से लेकर प्रमुख वन संरक्षक (वंयजीव) ने कहा है कि जांच के बाद जो भी दोषी पाया जाएगा उसके खिलाफ सख्त कार्यवाही होगी ताकि इस तरह की घटनाओं की पुनरावृतित न हो सके।
एक अप्रैल 1984 को दुधवा नेशनल पार्क में पूर्वजों की भूमि पर पुनर्वासित करने की विश्व में एक अनूठी गैंडा पुनर्वास परियोजना शुरू की गई थी। डेढ़ दर्जन हाथियों के बदले में आसाम से लाए गए छह सदस्यीय गैंडा परिवार के साथ ही सन् 1985 में सोलह हाथियों के बदले नेपाल के चितवन नेशनल पार्क से चार मादा गैंडों को लाया गया था। तमाम उतार-चढ़ाव के झझांवटों को झेलने के बाद दुधवा में गैंडा परिवार बढ़ता चला गया। पितामह बांके नामक गैंडा से शुरू हुई वंशवृद्वि अब चैथी पीढ़ी तक पहुंच गई है। वर्तमान में सात नर, 15 मादा एवं नौ बच्चे यानी 31 सदस्यीय गैंडा परिवार पर्यटकों को आकर्षण का केंद्र विंदु बना हुआ है अगर यहां बच्चों समेत युवा दस गैंडा असमय कालकवति न होते तो इनकी संख्या 40 हो सकती थी। गैंडा पुनर्वास परियोजना बनाने वालों ने यहां तीस गैंडो को बाहर से लाकर बसाने और उसके बाद फैंस हटाकर उनको खुले जंगल में छोड़ देने का सपना संजोया था। उनका यह उददेश्य तो पूरा नहीं हुआ। लेकिन पितामह गैंडा की बढ़ती संतानों के कारण योजना सफलता के पायदान पर चढ़ती जा रही है। एक ही पिता की संताने होने के कारण गैंडा परिवार पर अंतःप्रजनन यानी इनब्रीडिंग का खतरा मंडराने लगा है। विशेषज्ञों का मानना है कि इससे निपटने के लिए आवश्यक हो गया है कि गैंडो को बाहर से लाया जाए। इस विकट समस्या से छुटकारा पाने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है वरन् यहां के गैंडों का ही भविष्य सुरक्षित रखने में पार्क प्रशासन असफल हो रहा है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि नेपाल में सोमवार को गैंडा सींग वरामद होने के बाद वहां से आई सूचना के बाद हरकत में आए पार्क प्रशासन ने दो मुलजिमों को पकड़ कर उनकी निशानदेही पर गैंडा इकाई परिक्षेत्र से एक गैंडा का शव कंकाल की दशा वाला बरामद किया जो करीव एक-डेढ़ माह पुराना है। बेस कैंप से एक-डेढ़ किमी की दुरी पर गैंडा शव पड़ा रहा उसे वनपशु खाते रहे उसकी भनक कर्मचारियो को नहीं लग पाई। इससे स्पष्ट हो जाता है कि गैंडों की मानीयटरिंग के नाम पर मात्र खानापूर्ति की जा रही है अगर प्रापर मानीयटरिंग हो रही होती यह जरूर पता लग जाता कि एक गैंडा गायव है। इस लापरवाही का नतीजा यह निकला कि शिकारी अपने मकसद में काम्याव हो गए और उसका सींग नेपाल तक पहुंचाने में भी सफल रहे जिसकी भनक पार्क प्रशासन को नहीं लग पाई। पार्क कर्मचारियों की इस लापरवाही एवं उदासीनता को गंभीरता से लेकर प्रमुख वन संरक्षक (वंयजीव) जेबी पटनायक ने कहा है कि जांच के बाद जो भी दोषी पाया जाएगा उसके खिलाफ सख्त कार्यवाही होगी ताकि इस तरह की घटनाओं की पुनरावृतित न हो सके। देखना यह है कि इस वात पर कितना अमल किया जाता है या फिर दुधवा के गैंडा लापरवाही की भेंट चढ़ते रहेगें इस बात को आने वाला भविष्य तय करेगा।
दुधवा के नाम दर्ज है कीर्तिमान
पलियाकलां। पूर्वजों की धरती पर से एक सदी पूर्व विलुप्त हो चुके एक सींग वाले भारतीय गैंडा को 25 साल पहले एक अप्रैल 1984 को तराई क्षेत्र की जन्मभूमि पर उनको बसाया गया था। किसी वन्यजीव को पुनर्वासित करने का यह गौरवशाली इतिहास विश्व में केवल दुधवा नेशनल पार्क ने बनाया है। विश्व की यह एकमात्र ऐसी परियोजना है जिसमें 106 साल बाद गैडों को उनके पूर्वजों की धरती पर पुनर्वासित कराया गया है। गंगा के तराई क्षेत्र में सन् 1900 में गैंडा का आखिरी शिकार इतिहास में दर्ज है, इसके बाद गंगा के मैदानों से एक सींग वाला भारतीय गैंडा विलुप्त हो गया था।
भारतीय जंगलों में घूम रहे हैं नेपाली गैंडा
पलियाकला। दुधवा प्रोजेक्ट टाइगर में शामिल किशनपुर वनपशु बिहार तथा नार्थ-खीरी वन प्रभाग की संपूर्णानगर बनरेंज के जंगल और उससे सटे खेतों में पिछले करीब एक साल से मादा गैंडा अपने एक बच्चे के साथ घूम रही है। इसके अलावा साउथ खीरी फारेस्ट डिवीजन के गोला के जंगलों में भी इस साल एक गैंडा देखा गया है। बन विभाग एवं पार्क प्रशासन इसकी सुरक्षा एवं निगरानी करने के बजाय यह कहकर अपना पल्लू झटक रहा है कि यह गैंडा नेपाल की शुक्लाफांटा सेंक्चुरी का है, जो पीलीभीत के लग्गा-भग्गा जंगल से होकर आया है और घूम-फिर कर वापस चला जाएगा।
कर्मचारियों के प्रशिक्षण की नही है व्यवस्था
पलियाकला। दुधवा के जंगलों में स्वच्छंद विचरण करने वाले तीस सदस्यीय गैंडा परिवार का जीवन हमेशा खतरों से घिरा रहता है, क्योंकि इनकी रखवाली व सुरक्षा में तैनात पार्ककर्मियों को निगरानी करना तो सिखाया जाता है किंतु बाहर भागे गैंडा को पकड़कर वापस लाने का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। इन अव्यवस्थाओं के कारण विगत एक दशक से तीन नर एवं दो मादा गैंडा उर्जाबाड़ के बाहर दुधवा नेशनल पार्क क्षेत्र की गेरुई नदी के किनारे तथा गुलरा क्षेत्र के खुले जंगल समेत निकटस्थ खेतों में विचरण करके फसलों को भारी नुकसान पहुंचा रहें हैं।
सुविधाएं के अभावों के बीच रहते हैं कर्मचारी
पलियाकला। गैंडा पुनर्वास परियोजना क्षेत्र में आवश्यक मूलभूत सुविधाओं के अभाव के चलते इसमें की जाने वाली तैनाती को कर्मचारी कालापानी की सजा मानते है। इससे वे पूरी कार्य क्षमता से डयूटी को अंजाम न ही देते हैं जिससे गैंडा इकाई परिक्षेत्र की सुरक्षाा प्रभावित होती है। जिससे गैंडों के जीवन पर भारतीय ही नहीं वरन् नेपाली शिकारियों की कुदृष्टि का हर वक्त खतरा मंडराता रहता है। इससे निपटने के लिए यह आवश्यक हो गया है कि परियोजना से जुड़े कर्मचारियों कों आवश्यक सहूलियतें दी जांए साथ ही साघन एवं ससांधनों को बढ़ाया जाए।
पशुचिकित्सक की नियुक्ति है जरूरी
पलियाकलां। दुधवा नेशनल पार्क में प्रोजेक्ट टाइगर तथा गैंडा पुनर्वास परियोजना जैसी अति महत्वपूर्ण महत्वाकांक्षी योजनाएं चल रही हैं। इसके बाद भी पार्क स्थापना के 34 साल बीत जाने के बााद भी विशेषज्ञ पशुचिकित्सक की नियुक्ति शासन द्वारा नहीं कर सका है। जबकि पूर्व के सालों में उपचार के अभाव में हाथी उसके बच्चे, गैंडों के बच्चे असमय मौत का शिकार बन चुके हैं। आए दिन नर गैंडो के बीच होने वाले प्रणय द्वन्द-युद्ध में गैंडों के घायल होने की घटनाएं होती रहती हैं। बिगत साल नर गैडों की ‘मीयटिंग फाइट’ में घायल हुई एक मादा गैंडा की उपचार के अभाव में असमय मौत हो चुकी है। दुर्घटना में घायल होने उनके उपचार के लिए अथवा असमय मरने वाले वनपशु के शव के पोस्टमार्टम के लिए लखनउ, कानपुर, बरेली से डाक्टरों को बुलाना पड़ता है। जिससे दिक्कतें होती हैं एवं अधिक धन भी व्यय होता है। ऐसी दशा में दुधवा में विशेषज्ञ पशुचिकित्सक की नियुक्ति जरूरी मानी जा रही है।
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