वन प्रबंधन में फिसड्डी सरकार,वन अधिकारियों की मौज, वन रक्षकों का टोटा
वन प्रधान प्रदेश का हाल बेहाल
नौ सालों (2002-2011) में ६०० से अधिक गुलदार, बाघ व हाथी, व ३०० से अधिक लोग मारे गए
वन्य जीव संरक्षण के नाम पर आता है करोड़ों पैसा
नाम मात्र का मुआवजा देता है वन विभाग
दोनों राष्ट्रीय पार्कों पर लगी है तस्करों की नजर
हजारों तस्करी के केस दर्ज
उत्तराखंड राज्य बना तो उत्तरप्रदेश से बेहतर वन प्रबन्धन की आशाएं जगी थी, लेकिन पिछले नौ सालों में जहां बड़ी संख्या में जंगली जानवर मारे गए हैं वहीं जानवरों द्वारा लोगों को मारे जाने की संख्या भी कम नहीं है। वन व वन्य जीव प्रबंधन के नाम पर करोड़ों रूपया पानी की तरह बहाया जा रहा है। जबकि लोगों के हक हकूकों को वन अधिनियम का बुल्डोजर रौंद रहा है। जंगल में लगातार कम हो रहे शिकार व प्राकृतिक संसाधनों के कारण बाघ, तेंदुए, हाथी, व सुअंर समेत अन्य जानवर समीप के खेतों व बस्तियों की ओर बढ़ रहे हैं। और खाली बंजरों में झाडिय़ां उग रही हैं। जिससे आदमी व जानवरों के बीच संघर्ष बढ़ गया है। लोगों को उनके जंगल, पानी व अन्य नागरिक सुविधाओं से वंचित कर बनाए गए सेंचुरी व पार्क भी वन्यजीव प्रबंधन की दृष्टि से असफल ही साबित हुए हैं।लगभग ११ फीसदी वन भूमि पर स्थित छ: पार्क व छ: सेंचुरी अपने उद्देश्य में नाकाम रहे हैं। अगर कार्बेट पार्क को अपवाद मान भी लें तो बाकि के ११ पार्को का रिकार्ड निराशाजनक ही रहा है। यहां पार्क बनने से पहले जानवरों की जो स्थिति थी उसमें खास सुधार नहीं आया है, बलिक कहीं-कहीं तो यह संख्या कम ही हुई है। और यह सब सैकड़ों गांवों को वर्षों तक लकड़ी, पत्ती, औषधि और पानी आदि से वंचित करने के एवज में किया गया है। गोविंद पशु विहार के नाम पर बने पार्क के बीचों-बीच रहने वाले लोग आदिम मनुष्य की जिंदगी जीने को विवश हैं।
आजादी के ६० वर्ष से अधक समय बीत जाने पर भी इन गांवों में न बिजली के खंभे लगे हैं न स्कूलों को भवन मिल सके हैं। यहां के ग्रामीण सरकार को यह समझाते-समझाते थक गए हैं कि पार्क सेचुंरी उनके यहां बसने के बहुत बाद आए हैं जबकि वे और उनके पूर्वज पीढिय़ों से जंगलों का हिस्सा रहे हैं। और जंगल उनके अपने हैं। कोई भी वन अधिनियम व कठोर से कठोर कानून जंगलो की उनसे बेहतर सेवा नहीं कर सकते। लेकिन वन विभाग व सरकारों ने लोगों को तमाम सुविधाओं से वंचित रख उनके जातीय उन्मूलन की साजिश रच डाली है. लोगों के लिए आखिरी विकल्प यही बचा है कि या तो वह लोग आत्महत्या करें या इन जंगलों से भागकर कहीं चले जाएं।यही हाल अस्कोट वन्य जीव विहार का भी है। यहां कस्तूरी मृग भी देखने को नहीं मिलते। और आसपास के सैकड़ों गांवों की जिंदगी भी विहार से नर्क बनी हुई है. लोग वर्षों से विहार का श्रेत्रफल कम करने की मांग को लेकर आंदोलनरत रहे हैं। लेकिन उनकी बात की अनदेखी कर क्षेत्र को कम करने की बजाय बढ़ाया जा रहा है। सरकार का पार्क व सेंचुरी क्षेत्रों को संरक्षित करने का एक ही मतलब है कि वहां गरीब व जरूरतमंद आदमी को न घुसने दिया जाय। उसे उन अमीरों व उनकी आने वाली पीढिय़ों की अय्याशी के लिए सुरक्षित रखो जो विभाग की बाघ व गुलदार दिखाने पर पीठ थपथपा सकें। यह क्षेत्र वह इलाके हैं जिन्हें अमीर लोग अपने वातानुकूलित कमरों की जिंदगी में अनुभव नहीं कर पाते हैं। कार्बेट पार्क जिसे देश का सर्वाधिक सफल पार्क होने का श्रेय हासिल है उसके गुनाह भी कम नहीं हैं। कुमांऊ को गढ़वाल व देहरादून से जोडऩे वाली एकमात्र निकटस्थ सड़क पार्क के बीचों बीच से गुजरती है लेकिन वन विभाग व केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय इसी बात के लिए सड़कों से वाहनों की आवाजाही नहीं होने देता कि सड़क से जब अमीरों के शहजादे अपनी खुली जिप्सियों से गुजरेंगे तो जानवरों के भय से मुक्त होकर जंगल का भरपूर मजा उठा पाऐंगे। दूसरी तरफ कार्बेट पार्क की सीमा से लगे नैनीताल व पौड़ी के गांवों में लगातार तेंदुए व सुअंरं की भारी घुसपपैठ चल रही है। दुगड्डा, लैंसडाउन आदि क्षेत्रों में गुलदार द्वारा बच्चों को आंगन से उठा ले जाना आम बात हो गई है। वहीं रामनगर के ढिकुली जैसे गांव विशुद्ध कार्पोरेट संस्कृति का हिस्सा बन रहे हैं। जहां अमीर लोग माफियाओं द्वारा बनाए गए आलिशान होटलों में अय्याशी के लिए डेरे डाले रहते हैं। राजाजी पार्क अपने उत्पाती हाथियों के लिए बदनाम हो चुका है। २५ वर्ष पूर्व बने इस पार्क में हाथियों को बांधकर रखना वन विभाग के बूते की बात नहीं रह गई है। वहीं जंगल के मूल निवासियों को अन्यत्र प्रवासित करने की कहानी भी लंबी हो चुकी है। पार्क की सीमा में रह रहे १०० से अधिक गूजर परिवारों को अभी तक जमीन का टुकड़ा नहीं मिल पाया है। अल्मोड़ा स्थित बिनसर वन्य जीव विहार की स्थापना से ही उसका विरोध शुरू हो गया था। क्योंकि घनी आबादी से लगी सेंचुरी सुअंरबाड़ा बनकर रह गई थी। यहां दूसरे पशु पक्षी तो लगातार कम होते गए लेकिन जंगली सुअंरों की तादाद लगातार बढ़ती रही। परिणामस्वरूप जंगल से लगे गांवों में सुअर खेती तबाह कर रहे हैं। प्रतिवर्ष इनकी संख्या बढ़ते जा रही है। जबकि लोगों को जंगलों से पेयजल लाइन बिछाने, सड़क निकालने, चारा-पत्ती लाने, पर पूर्ण रोक है सिसे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि आप जिस जंगल में रह रहे हैं उसके लाभ लेने के लिए वन विभाग ने आपको प्रतिबंधित कर दिया हो। दूसरी तरफ बाहर से आने वाले अमीर पर्यटकों के लिए काम करने वाली कंपनियों व एनजीओ को वन विभाग ने खुली छूट दे रखी है। वन भूमि पर रेस्त्रा, होटल शिविर लगे हैं, जिससे ये कंपनियां ईको टूरिज्म के नाम पर कमाई करती हैं।
नंदा देवी बायोस्फेयर की कहानी कौन नहीं जाता। चमोली के सैकड़ों गांवों ने बायोस्फेअर के खिलाफ छीनो-झपटो आंदोलन चलाया था। इसका यही अर्थ था कि जंगल मूल रूप से हमारा है, जंगल पर अधिकार दर्शाने वाले वन विभाग के कागज मुश्किल से १००-१५० साल पुराने हैं। यहां की लकड़ी, पत्ती, पानी, चारा लेन ेसे हमें कोई नहीं रोक सकता। हालांकि बायोस्फेयर के कई गांवं को सुविधाएं देने के लिए सरकार को मजबूर होना पड़ा था लेकिन अब भी कई गावों को सुविधाएं देने के लिए सरकार को मजबूर होना पड़ा था लेकिन अब ऐसे कई गांव हैं जो कठोर वन अधिनियम के कारण नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। वर्ष २००० से पहले उत्तराखंड के जंगलों में जानवर व उनसे हताहत लोगों का हिसाब किताब बट्टे खाते में जाता था कोई भी घटना विशाल उत्तरप्रदेश में मामूली लगती। राज्य बनने के बाद कई आश्चर्यजनक पहलू सामने आए। राष्ट्ीय बाघ संरक्षण परियोजनाओं के बावजूद छोटे से राज्य में पिछले नौ सालों में ४५ से अधिक बाघ प्राकृतिक दुर्घटना, अवैध शिकार, व अन्य कारणों से मौत तक पहुंच गए।राज्य में कहीं भी पाया जाने वाला बाघ सर्वाधिक खतरे में है।
पिछले नौ सालों में ही ४५० गुलदार मारे गए हैं। अब विभाग मिशन टाइगर की तर्ज पर मिशन लैपर्ड की मांग कर रहा है। हाथियों की संख्या भी कम हुई है। इन सालों में लगभग १७० हाथी मारे गए हैं। ऐसे में पार्कों व सेचुरियों का औचित्य सवालों के घेरे में आ गया है। इन्हीं पार्क व सेचुरियों ने राज्य की बड़ी आबादी को नागरिक सुविधाओं से वंचित किया है। बावजूद सिके अगर यह जानवरों को सुरक्षित नहीं रख पाते तो इनकी जरूरत ही कया है। क्या जंगलों व जानवरों की बात वन अधिकारियों को धनकूबेर बनाने के लिए है। आम आदमी तक यह बात कहने लगा है कि वनों को उजाडऩे में सबसे बड़ा हाथ वन विभाग का ही है। इन्हीं सालों में केवल गुलदार के हाथों मारे जाने वाले लोगों की संख्या ३०० का आंकड़ा छूने वाली है। जबकि गंभीर रूप से घायल लोंगों की संख्या इसकी तीन गुनी है। हरिद्वार जिले में हाथियों द्वारा अब तक ५० से अधिक जाने ले ली गई हैं, जबकि गन्ने व धान की फसल को करोड़ों की क्षति पहुंचाई है। पर्वतीय क्षेत्रों में सुअंरों का आतंक सर चढ़कर बोल रहा है। बताया जाता है कि सुअंर अब उन क्षेत्रों तक भी पहुंच गए हैं जहां पहले कभी नहीं हुआ करते थे। जंगली जानवर आपके खेतों में आकर फसल रौंद जाए तो मुआवजा लोने के लिए आपको वर्षों तक वन अधिाकारयिों के दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं। वर्षों की मांग के बाद सुअंरों को मारने की छूट मिली है लेकिन उसे भी सिविल क्षेत्र में स्थानीय अधिकारी की इजाजत के बाद मारना होता है। सोग सुअंरों के आतंक से खेती करना छोड़ रहे हैं। जबकि संरक्षित क्षेत्रों में तस्करों की मौज है। बड़ी संख्या मे बाघ व गुलदार की खालें बरामद हो रही हैं। टस्कर(नर हाथी) के दांत भी सप्लाई होते देखे जा चुके हैं। ऐसा कोई वाकिया नजर नहीं आता जब वन विभाग ने वन तस्करों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई की हो। तस्कर जुर्माना देकर छूट जाते हैं। इस सब में वन विभाग बुरी तरह लिप्त है। यदि सेचुंरीयों व पार्कों से विभाग के अधिकारियों व कर्मचारियों को निकाल बाहर करें तो शायद जानवरों की तादाद अपने आप बढऩे लगेगी। वनस्पितयां भी फलेंगी-फूलेंगी।
उत्तराखंड की सदियों से चली आ रही वन पंचायतों को रीढ़विहीन करने में वन विभाग का बड़ा हाथ रहा है। १२ हजार से अधिक वन पंचायतों को वन विभाग जंगल का दोस्त मानने की बजाय दुश्मन मानता है। वन पंचायतों की वन प्रबंधन में शानदार भूमिका रही है। लोगों की जगल से लकड़ी, पत्ती लव उसे सुरक्षित करने की वैज्ञानिक प्रणाली है। जिन क्षेत्रों में एक बार पातन हो जाता है उसे फिर कुछ समय के लिए पूर्ण प्रतिबंधित कर देते हैं। उसी प्रकार चीड़ को रोकने के लिए भी लोगों ने बड़े कारगर उपाय किए हैं. वर्षों बाद यदि उत्तराखंड में वानिकी का इतिहास देखें तो रिजर्व व सिविल वन मिश्रित वन हैं। जहां एकल प्रजातियों जैसे चीड़ के लिए बहुत कम स्थान है। इन वनों में जैव विविधता की समृद्धि के साथ जल स्त्रोतों की भी प्रचुरता है। ये वन रिजर्व वनों से अधिक घने हैं। यहां हर आयु वर्ग का पेड़ दिखाई देता है। कभी जब जंगल का अधिक दोहन हो जाय तो गांव वाले कुछ पहल कर इसे सेक्रेच फारेस्ट) बना डालते हैं। वनों को एक निश्चित समय के लिए स्थानीय ग्रामदेवता या श्कति को चढ़ा दिया जाता है। स्वंय की जरूरतों का निषेध करते हुए स्वानुशासन लागू कर वन प्रबंधन की ये पहल बड़ी अनूठी है। इस भावना को वन विभाग लोगों में कभी पैदा नहीं कर सकता। क्योंकि २०० साल पहले अंग्रेजों ने जिस वन प्रबंधन की नींव रखी उसका एक ही मकसद था स्थानीय लोगों को प्रतिबंधित कर जंगल को अपने दोहन व उपयोग के लिए सुरक्षित रखना। वन विभाग आज भी अंग्रेजों के नक्शे कदम पर चल रहा है, परिणामस्वरूप उसके जंगल विरल होते जा रहे हैं। उनमें एख प्रजातियों व बढ़े पेड़ों का दबदबा बढ़ रहा है। पार्क वाले कुछ हिस्सों को छोड़ दें तो जानवरों का यहाम से बाहर को पलायन हो रहा है। क्योंकि वन विभाग ने कभी पारिस्थितीय संतुलन की बात पर विचार नहीं किया। जबकि वन अनुसंधान संस्थान, भारतीय वन्यजीव संस्थान जैसे विश्वविख्यात संस्थान उत्तराखंड में स्थित हैं। इनका लाभ राज्य के वन्य जीव संस्थान उत्तराखंड में स्थित हैं। इनका लाभ राज्य के वन विभाग ने नहीं लिया। प्रतिवर्ष रिजर्व वनों में घनघोर आग की लपटें उठती हैं। स्थानीय ग्रामीणों का वनट विभाग से मोहभंग व अलगाव हो से वे इन लपटों को शांत करने नहीं आते। बल्कि कभी तो उनको अपनी इच्छा इसलिए दबानी पड़ती है कि वहां आग बुझाने पहुंचे तो पता लगा वनकर्मियों ने उन्हें आग लगाने वाला बताकर धक लिया। ऐसा कई बार हुआ है। बताया जाता है कि वन विभाग के कर्मचारियों व वन माफिया की मिलीभगत से रिजर्व वनों में आग लगती है। इससे लकड़ी के अवैध कारोबार को ढ़कने व वन्यजीवों मे भगदड़ पैदा करने में मदद मिलती है। अवैध कटे पेड़ों के ठूंठों को जलाकर उन्हें वनाग्नि का परिणाम बता दिया जाता है। यह वर्षों पुरानी जुगलबंदी है। आग सिविल वनों में भी लगती है लेकिन लोग अपने जंगलों की आग खुद बुझा लेते हैं। २००९ की प्रचंड वनाग्नि के समय पौड़ी के गंगवााड़ा में तो ७ लोगों ने अपने जंगल बचाने के लिए लपटों से जूझते हुए जान तक दे डाली। सिविल वनों में आग से जूझते हुए लगबग २० लोग इस साल शहीद हो गए। वहीं वन विभाग वनाग्नि पर राष्ट्रीय- अंतराष्ट्रीय सेमिनार करता रहा। कई वनाधिकारियों ने तो बाकायदा वनाग्नि पर फंडिंग एजेंसियों से भारी बरकम प्रोजेक्ट ले रखे हैं। अधिकारी जंगल में आग बुझाने नहीं प्रोजेक्ट की स्लाडि बनाने के लिए फील्ड पर जाते हैं. ताकि अपने दानदाताओं को गंभीर समस्या के प्रति अपना समपर्ण दिखा सकें।
उत्तरप्रदेश के समय तो जो था सो था। राज्य बने के इतने साल बाद वन विभाग के पास ऐसा कोई मैकैन्जिम नहीं है जिससे पता चल सके वनाग्नि से कितनी वनस्पित व छोटे जीव जंतुओं को नुकसान पहुंचा। जबकि आग से रेंगने वाले जतुंओं को भारी नुकसान होता है। यह जानने का भी कोई उपाय नहीं है कि आग का जल स्रोतों पर कैसा व कितना प्रभाव पड़ रहा है। राजाजी पार्क में पिछले दिनों बोरिंग खोदकर जानवरों को पानी पिलाने की व्यवस्था करनी पड़ी। कई क्षेत्रों में जल स्ज्ञोत न होने से बाहर से पानी के टैकर भेजने पड़े। वन विभाग द्वारा प्रतिवर्ष कराए जाने वाले वृक्षारोपण अभियानों की कहानी भी बड़ी हास्यास्पद है। बताया जाता है कि उत्तराखंड में अब कहीं भी पेड़ लगाने जगह नहीं बची है। लेकिन पेड़ लगातार लग रहे हैं। इसमें करोड़ों के वारे न्यारे होते हैं। वन विभाग के साथ सैकड़ों की तादाद में सक्रिय एनजीओ भी इस गंगा में हाथ धो रहे हैं। सच्चाई यह है कि शहरी क्षेत्रों में पेड़ों के अंधादुंध कटान हो रहा है। देहरादून, हल्द्वानीउधमसिंहनगर आदि में तो स्थानीय डीएफओ घूस लेकर पेड़ काटने की इजाजत देते हैं। लोग आवासीय व व्यवसायिक निर्माणों के लिए पेड़ काट लेते हैं। सिके एवज में मामूली मुआवजा जमा कर देत ेहैं। यह खे तरह का फैशन चल पड़ा है कि लोग पहले पेड़ काट लेते हैं फ्रि पैसा जमा करा देते हैं। वन अधिकरियों के मुंह पर मलाई लहग चुकी है। अब तक कार्बेट पार्क के अलावा कोई भी पार्क पूर्ण नहीं है। ये पार्क तब तक प्रस्तावित पार्क की श्रेणी में नहीं आते जब तक यहां रह रहे लोगों का मानवीय पुनर्वास या कोई न्यायपूर्ण व्यवस्था कायम नहीं की जाती।कार्बेट की स्थापना १९३६ में हुई थी। जबकि १९५५ में गोविंद पशु विहार की स्थापना के बाद १९७२ में केदारनाथ वन्यजीव विहार और तब से अब तक नौ और पार्क स्थआपित किए गए हैं। लेकिन किसी का भी नोटिफिकेशन नहीं हो पाया है। इसका कारण यह है कि निर्माण व विस्थापन कार्यों के लिए आने वाले पैसे की बंदरबांट।
वन अधिकारी चाहते हैं कि पार्क व सेंचुरी निर्माणाधीन ही रहे । यदि कोई स्थाई व्यवस्था कायम हो गई तो उनका खाना कमाना इतना आसान नहीं रहा जाएगा। इसी से राज्य वन प्रबंधन की पोल खुल जाती है। वन संपदा को चूस रहे हैं अधिकारीहाल ही में विभाग के शीर्षस्थ अधिकारी के रूप में एक और प्रमुख वन संरक्षक के पद को मान्यता दी गई है। अब प्रमुख वन्यजीव प्रतिपालक प्रमुख वन संरक्षक (वन्य जीव) कहलाएंगेंविभाग में पहले से एक शीर्षस्थ प्रमुख वन संरक्षक तैनात है। वेतन के हिसाब से इस अधिकारी यानि मुख्य सचिव को हासिल है। इनका मासिक वेतन एक लाख प्रतिमाह से ऊपर है। इसके साथ ही उनको आवास, ड्राईवर, गार्ड, चौकीदार , माली, चपरासी आदि की सुविधाएं भी हासिल हैं। विभाग में अपर प्रमुख वन संरक्षक, मुख्य वन संरक्षक, वन संरक्षक, निदेशक , उपदिेशक वन वर्धनिक,वाइल्ड लाइफ वार्डन व सैकड़ों प्रभागीय वन अधिकारियों के लगभग १२०पद सृजित हैं। इन पर विभाग की आय समेत सरकारी बजट का बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। जबकि इनकी उत्पादकता वन संरक्षण व वन्य जीवों के हिसाब से कुछ भी नहीं है। बताया जाता है कि एक प्रमुख संरक्षक के बदले १० फारेस्ट गार्ड, एक अपर प्रमुख वन संरक्षक के बदले ८ गार्ड व प्रभागीय वनाधिकारियों के बदले ६ गार्ड रखे जा सकते हैं। जो सीधे-सीधे वन संरक्षण के कायो4ं से जोड़े जा सकते हैं। वन अधिकारी कभी भी पेड़ को नहीं छूते, नही जंगली जानवरों के बारे में कोई व्यवहारिक ज्ञान होता है। वह तो महीने दो महीने में सरकारी गाड़ी से वनों का एख दौरा कर आते हैं और कभी-कभी तो यह दौरे छ: महीने या साल भर में भी नहीं हो पाते। वन विभाग की वास्तव में सेवा करने वाले ३५०० वन रक्षकों की हालत दयनीय बनी हुई है। वन विभाग के जंगलों के अंदर प्रतिनिधित्व करने वाले ये कर्मचारी समाज से अलग-थलग रहकर अपना पूरा जीवन वनों को समर्पित कर देते हैं। लेकिन सुविधा के नाम पर विभाग इनको एख डंडा तक नहीं देता। हालांकि वन रक्षकों को वर्दी, कंबल, टार्च, फर्स्ट एड किट आदि दिए जाने का प्रावधान है। लेकिन अधिकारी इसमें भी गोलमाल कर जाते हैं। अंग्रेजों के जमाने में जो वन चौकियां बनी थी उनकी हालत अंत्यंत जर्जर बनी हुई है। इनकी छतें टपकती हैं व इनमें पानी बिजली की सुविधा नहीं है। ऊंचाई वाले क्षेत्रों में काम करने वाले वन रक्षकों की सेवाएं फौड की सेवाओं से कम नहीं होती। बल्कि नेपाल व चीन सीमा के सीमांत जंगलों में तैनात वन रक्षक अकेले सेना की टुकड़ी के बराबर काम करते हैं। कई बार तो वर्ष में एख या दो बार घर आना तक दुश्वार हो जाता है। क्योंकि विभाग में रिलीवर देने के लिए स्टाफ की कमी है। औ्रर यदि उसके छुट्टी में रहने के दौरान वन तस्करी की कोई घटना होती हौ तो इसका जिम्मेदारउसे ही मान जाता है। यह विभागीय प्रावधान इससे वन अधिकारियों के वन प्रबंधन की संवेदनहीनता प्रदर्शित होती है। एक न रक्षक को साल में जितनी तनख्वाह नहीं मिलती है अधिकारी उतना पैसा एक मीटिंग के बहाने उड़ा जाते हैं। अधिकारियों के राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय सेमिनारों में आने वाले खर्च की बात करना तो फिजूल है। प्रमुख वन संरक्षक अपना र्काभार ग्रहण करने के बाद कम से कम १० विदेशी दौरे कर चुके हैं और उनके मातहत अधिकारी वफादारी से उनका अनुकरण कर रहे हैं।
सुनीता भास्कर: लेखिका पेशे से पत्रकार हैं, राष्ट्रीय सहारा व् अन्य स्थानीय अखबारों में पत्रकारिता का दशकों का अनुभव , महत्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्व विद्यालय वर्धा से पत्रकारिता में एम.फिल, जल जंगल जमीन के मुद्दों पर धारदार लेखन, जनवादी मसायल पर आन्दोलन व् पत्रकारिता के जरिए सर्वहारा की आवाज़ बुलंद करना, क्रांतिकारी परिवार से ताल्लुक, मौजूदा वक्त में उत्तराखंड विश्व विद्यालय के हैलो हल्द्वानी कम्युनिटी रेडियो में ब्राडकास्टर/कम्युनिटी पत्रकार के तौर पर कार्यरत हैं. इनसे sunitabhaskar15@gmail.comपर सम्पर्क कर सकते हैं.
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