किसान के घर की दशा- फोटो: आशीष सागर |
ग्रेट गैंबलर की इतनी दुर्दशा, कौन है जिम्मेदार
यह लेख शाहजहांपुर के कृषि विज्ञान केंद्र के कृषि वैज्ञानिक के०एम० सिंह से वरिष्ठ पत्रकार विवेक सेंगर से हुई बात-चीत पर आधारित हैं।
दुनिया का सबसे बड़ा जुंआरी किसान है। ताश के पत्ते खेलते वक्त तो कोई न कोई एक जुंआरी जीतता है, लेकिन किसान हर बार हार जाता है...फिर भी वह हर बार अपना सबकुछ दांव पर लगाता है। वह गिरता है और उठ कर फिर से चलने लगता है। इसी में किसान की पूरी जिंदगी गुजर जाती है।
किसान के खून पसीने की कमाई पर हर कोई डाका डालने पर जुटा हुआ है। खेत किसान का, उसमें बोई जाने वाली फसल की लागत किसान की, लेकिन उसका मुनाफा लेते हैं बिचौलिए। खेत की जुताई करने के लिए ट्रैक्टर की जरूरत पड़ती है, तो किसान को डीजल भी शुद्ध नहीं मिलता है। इसके बाद बीज बोता है, उसकी भी कोई गारंटी नहीं, उसे शुद्ध प्रजाति ही मिल जाए। खाद लेने जाता है तो वहां भी निर्धारित मूल्य से ज्यादा देने पड़ जाते हैं। खाद असली मिल जाए यह भी बहुत बड़ी बात है। सिंचाई कई दौर में होती है, इसी दौरान डीजल के दामों में बढ़ोतरी भी हो जाती है। इस दौरान किसान को ऊपर वाले की मार झेलनी पड़ती है। बाढ़, ओलावृष्टि से अगर बचकर फसल पक गई तो तमाम हिस्सेदार आ जाते हैं। गेहूं, धान, गन्ना की प्रमुख फसल का मुनाफा बिचौलिए ही ले जाते हैं, किसान मूल लागत बचा ले, यही बहुत है। किसान जब धान की फसल काटता है तो उससे नमी का पैसा काट लिया जाता है, लेकिन जब रबी की फसलें काटता है तो उस समय फसलों के दानों में लगभग आठ से नौ प्रतिशत नमी होती है, जबकि मूल्य निर्धारण 12 प्रतिशत नमी पर किया जाता हैं, इस सूख का पैसा किसानों को आज तक कोई नहीं देता है।
कौन है जिम्मेदार
किसान की फसल को हर वक्त खतरा रहता है। कहीं बाढ़ का, कहीं ओलावृष्टि का, कहीं आग का। ऐसे में वक्त में भी किसान यह जानने की कोशिश नहीं करता है कि आखिर वह अपनी फसल की सुरक्षा के लिए क्या उपाय करे। दरअसल, बड़े और पढ़े-लिखे किसान तो अपनी फसलों को बीमा करा लेते हैं, लेकिन छोटे या मझोले किसानों को इसकी जानकारी ही नहीं रहती है। फसल बर्बाद होती है तो किसान कर्ज लेता है, जमीन गिरवी रख देता है, एक दिन वहीं किसान जो जमीनदार था, भूमिहीन हो जाता है। फिर वह शासन और प्रशासन को अपनी बर्बादी के लिए जिम्मेदार ठहराने लगता है।
बीमा के बाद भी दिक्कत
वैसे तो बहुत ही कम किसान अपनी फसल का बीमा कराते हैं, अगर उनकी फसल दैवीय आपदा की भेंट चढ़ जाती है तो उसका क्लेम लेना भी आसान नहीं होता है, क्योंकि उसकी प्रक्रिया इतनी जटिल है। क्लेम करते वक्त नुकसान हुई फसल का सर्वे होता है, जिसको किसान समय से करा नहीं पाता है और किसान को क्लेम नहीं मिल पाता है। यानी सुरक्षा के उपाय करने के बाद भी वह अपनी थोड़ी सी चूक से फसल का मुआवजा पाने से रह जाता है।
प्रचार-प्रसार की कमी
कहीं न कहीं तो सिस्टम में खोट है। कृषि प्रधान देश, कृषि प्रधान प्रदेश और कृषि प्रधान बरेली मंडल और कृषि प्रधान जिला होने के बाद भी यहां का किसान जागरूक नहीं है। वह खेती जैसा व्यवसाय तो करता है, लेकिन उसकी नई टेक्नालाजी के बारे में जानना नहीं चाहता है या उसे बताया नहीं जा रहा है। होता यह है कि किसानों को जानकारी देने के लिए कृषि गोष्ठी आयोजित की जाती हैं, लेकिन इन गोष्ठियों में केवल किसान ही नहीं होता है, बाकी सब होते हैं। किसानों को जागरूक करने के नाम पर एनजीओ केवल अपनी जेब गरम कर रहे हैं, इसको देखने वाला कोई नहीं है। एनजीओ जब भी कोई कार्यक्रम करते हैं, उसमें घुमाफिरा कर हमेशा दिखने वाले चेहरे नजर आते हैं। मंडल और जिला स्तर के सरकारी अधिकारी भी इन गोष्ठियों में जाने से कतराते हैं, उनकी दिलचस्पी केवल बजट में ही रहती है, किसानों में नहीं।
कोशिश
सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर सबसे बड़ी कोशिश होनी चाहिए किसानों को जोड़ने की। गोष्ठी में किसान ही पहुंचें, दुकानदार नहीं। किसान को मुनाफा लेने के लिए खुद ही जागरूक होना होगा, किसी की राह देखने की जरूरत नहीं है। अब कोई भी किसान की मदद नहीं करना चाहता है, उसे लूटना चाहता है। इस लूटपाट बचने को खुद शिक्षित बने, बच्चों को पढ़ाएं, उनहें मिड डे मील और वजीफा पर न छोड़ें। नई तकनीकी के बारे में जाने और उसे अपनाएं भी।
दुनिया का सबसे बड़ा जुंआरी किसान है। ताश के पत्ते खेलते वक्त तो कोई न कोई एक जुंआरी जीतता है, लेकिन किसान हर बार हार जाता है...फिर भी वह हर बार अपना सबकुछ दांव पर लगाता है। वह गिरता है और उठ कर फिर से चलने लगता है। इसी में किसान की पूरी जिंदगी गुजर जाती है।
किसान के खून पसीने की कमाई पर हर कोई डाका डालने पर जुटा हुआ है। खेत किसान का, उसमें बोई जाने वाली फसल की लागत किसान की, लेकिन उसका मुनाफा लेते हैं बिचौलिए। खेत की जुताई करने के लिए ट्रैक्टर की जरूरत पड़ती है, तो किसान को डीजल भी शुद्ध नहीं मिलता है। इसके बाद बीज बोता है, उसकी भी कोई गारंटी नहीं, उसे शुद्ध प्रजाति ही मिल जाए। खाद लेने जाता है तो वहां भी निर्धारित मूल्य से ज्यादा देने पड़ जाते हैं। खाद असली मिल जाए यह भी बहुत बड़ी बात है। सिंचाई कई दौर में होती है, इसी दौरान डीजल के दामों में बढ़ोतरी भी हो जाती है। इस दौरान किसान को ऊपर वाले की मार झेलनी पड़ती है। बाढ़, ओलावृष्टि से अगर बचकर फसल पक गई तो तमाम हिस्सेदार आ जाते हैं। गेहूं, धान, गन्ना की प्रमुख फसल का मुनाफा बिचौलिए ही ले जाते हैं, किसान मूल लागत बचा ले, यही बहुत है। किसान जब धान की फसल काटता है तो उससे नमी का पैसा काट लिया जाता है, लेकिन जब रबी की फसलें काटता है तो उस समय फसलों के दानों में लगभग आठ से नौ प्रतिशत नमी होती है, जबकि मूल्य निर्धारण 12 प्रतिशत नमी पर किया जाता हैं, इस सूख का पैसा किसानों को आज तक कोई नहीं देता है।
कौन है जिम्मेदार
किसान की फसल को हर वक्त खतरा रहता है। कहीं बाढ़ का, कहीं ओलावृष्टि का, कहीं आग का। ऐसे में वक्त में भी किसान यह जानने की कोशिश नहीं करता है कि आखिर वह अपनी फसल की सुरक्षा के लिए क्या उपाय करे। दरअसल, बड़े और पढ़े-लिखे किसान तो अपनी फसलों को बीमा करा लेते हैं, लेकिन छोटे या मझोले किसानों को इसकी जानकारी ही नहीं रहती है। फसल बर्बाद होती है तो किसान कर्ज लेता है, जमीन गिरवी रख देता है, एक दिन वहीं किसान जो जमीनदार था, भूमिहीन हो जाता है। फिर वह शासन और प्रशासन को अपनी बर्बादी के लिए जिम्मेदार ठहराने लगता है।
बीमा के बाद भी दिक्कत
वैसे तो बहुत ही कम किसान अपनी फसल का बीमा कराते हैं, अगर उनकी फसल दैवीय आपदा की भेंट चढ़ जाती है तो उसका क्लेम लेना भी आसान नहीं होता है, क्योंकि उसकी प्रक्रिया इतनी जटिल है। क्लेम करते वक्त नुकसान हुई फसल का सर्वे होता है, जिसको किसान समय से करा नहीं पाता है और किसान को क्लेम नहीं मिल पाता है। यानी सुरक्षा के उपाय करने के बाद भी वह अपनी थोड़ी सी चूक से फसल का मुआवजा पाने से रह जाता है।
प्रचार-प्रसार की कमी
कहीं न कहीं तो सिस्टम में खोट है। कृषि प्रधान देश, कृषि प्रधान प्रदेश और कृषि प्रधान बरेली मंडल और कृषि प्रधान जिला होने के बाद भी यहां का किसान जागरूक नहीं है। वह खेती जैसा व्यवसाय तो करता है, लेकिन उसकी नई टेक्नालाजी के बारे में जानना नहीं चाहता है या उसे बताया नहीं जा रहा है। होता यह है कि किसानों को जानकारी देने के लिए कृषि गोष्ठी आयोजित की जाती हैं, लेकिन इन गोष्ठियों में केवल किसान ही नहीं होता है, बाकी सब होते हैं। किसानों को जागरूक करने के नाम पर एनजीओ केवल अपनी जेब गरम कर रहे हैं, इसको देखने वाला कोई नहीं है। एनजीओ जब भी कोई कार्यक्रम करते हैं, उसमें घुमाफिरा कर हमेशा दिखने वाले चेहरे नजर आते हैं। मंडल और जिला स्तर के सरकारी अधिकारी भी इन गोष्ठियों में जाने से कतराते हैं, उनकी दिलचस्पी केवल बजट में ही रहती है, किसानों में नहीं।
कोशिश
सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर सबसे बड़ी कोशिश होनी चाहिए किसानों को जोड़ने की। गोष्ठी में किसान ही पहुंचें, दुकानदार नहीं। किसान को मुनाफा लेने के लिए खुद ही जागरूक होना होगा, किसी की राह देखने की जरूरत नहीं है। अब कोई भी किसान की मदद नहीं करना चाहता है, उसे लूटना चाहता है। इस लूटपाट बचने को खुद शिक्षित बने, बच्चों को पढ़ाएं, उनहें मिड डे मील और वजीफा पर न छोड़ें। नई तकनीकी के बारे में जाने और उसे अपनाएं भी।
डा. केएम सिंह शाहजहांपुर के कृषि विज्ञान केंद्र में बतौर शस्य वैज्ञानिक तैनात हैं। यह जिला फिरोजाबाद के रहने वाले हैं। इनकी शिक्षा आरवीएस कालेज आगरा और पंतनगर में हुई है। इन्होंने मेडिशनल क्राप पर पीएचडी और धान की विभिन्न पद्धतियों पर फेलोशिप किया है। गन्ना उत्पादन में डेवलपमेंट मैनेजर के रूप में शाहजहांपुर में कार्य किया है। साथ ही पंजाब में डीएससीएच गु्रप में डेवलपमेंट आफिसर रहे हैं।
Sengar Bhai Lekh sarahneeya hai.
ReplyDeletekirmani