"मुकद्दर में लिखा के लाये हैं दर-बदर फिरना
परिंदे कोई मौसम को परेशानी में रहते हैं"
गुरबत की कहानी, वनटांगिया की जुबानी- भूंख से बिलबिलाते बच्चे देखकर बाप बना था चोर
-बीते लम्हों को याद कर लरजे होंठ और भीग गई पलके
(अब्दुल सलीम खान की एक टांगिया से हुई बातचीत पर आधारित)
गोला गोकरण नाथ के टांगिया गांव से। पिछले ५० साल से खानाबदोशों की जिंदगी बसर कर रहे वन टांगियों ने मौसम के हर तेवर झेले हैं। कभी भूंख से बिलबिलाते बच्चों को देखकर मजबूर एक बाप रोटी चोर बन जाता है। तो जेठ की तपिस में भूंखे पेट खेतों में मिट्टी के ढेले फोड़ रहे अपने शौहर के लिए बीबी कई फिट ऊंचे पेड़ो से जामुन तोड़कर लाती थी। तो कभी फसल के बीज जब खराब निकल गये तो पूरे साल बेल,तेंदू, जामुन और आम के फलों के सहारे खुद को और बच्चों को जिंदा रखा। तब जाकर यह लहलहाते खीरी की शान जंगल जिंदा हुए।
याद आये लम्हे तो बरस पड़ी आंखे
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गोला रेंज के टांगिया के लोगों से जब पुराने दिनो को कुरेद कर बात की गई तो कई अनछुए पहलू सामने आये। बातों-बातों में टांगियों की आंखे भर आई लेकिन हमारी भी आंखो की कोरे आंसुओं से गीली हो गई। बुजुर्ग त्रिभवन से पूंछा कैसे गुजरे थे शुरूआती दिन? बूढ़ी आंखो कुछ सोचने लगी बोले कि सन् ६२ में जब हमें भीरा रेंज में जंगल चैनी कर वृक्षारोपण के साथ खेती की जगह दी गई, तो हम लोग अपने घर से कोदो, सावां, काकून,मक्का, मेंडुआ,के बीज लाये थे। किस्मत खराब थी, फसल के साथ बांस जम गया, भीरा रेंज में वह बांस का जंगल इस बात की आज भी गवाही देता है। फसल खराब होने से भूंखे मरने की नौबत आ गई, कुनबे के पट्टू उनकी पत्नी समेत बच्चे तीन दिन तक भूंख से छटपटाते रहे। भूंखे बच्चों की बेबसी पट्टू से देखी न गई, और वह भीरा में चक्की से आंटे की बोरी लेकर भाग खड़ा हुआ। पीछे से आई भीड़ ने जंगल के पास ही पट्टू को पकड़ लिया, गुस्साई भीड़ को देखकर बेबस बाप के लरजते होंटो से सिर्फ इतना निकला कि हम चोर नही है,बच्चे भूंख से मरे जा रहे है, इस लिए चोर बन गये। भूंखे परिवार की हालत देखकर आंटा चक्की वाले ज्ञानी जी ने दो पसेरी आंटा देकर उन्हें भूंख से तब मरने नहीं दिया।
ऐसी बेबसी कि जामुन और प्याज से मिटाई भूख
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६५ साल के रम्मन काका बोले बात उन दिनो की है जब महकमें ने जंगलात को चैनी कर खेती करने के लिए दिया था, गोरखपुर से लाये हुए मक्का, कोदो को खाकर दिन गुजार रहे थे, खेत तैयार करने में कहीं फावड़े, कहीं हांथो से ही ढेले फोडऩे पड़ते थे। ऐसे भी दिन थे जब घर के मर्द भूंखे पेट खेत में काम करते थे, तो उनकी औरतें जामुन के पेड़ो से जामुन तोड़कर एक टाईम के खाने का बंदोबस्त होता था। तो शाम के खाने में नमक लगे प्याज के टुकड़े से मियां बीबी की भूंख मिटती थी। धीरे-धीरे कुछ इस तरह बुरा वक्त बीत गया, और लाखों पेड़ इनके हांथो से जिंदगी पा गये। लेकिन यह बेचारे आज भी गुरबत भरी जिंदगी जी रहे है।
अब्दुल सलीम खान (लेखक युवा पत्रकार है, वन्य-जीवन के सरंक्षण में विशेष अभिरूचि, जमीनी मसायल पर तीक्ष्ण लेखन, खीरी जनपद के गुलरिया (बिजुआ) गाँव में निवास, इनसे salimreporter.lmp@)gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं)
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