गोला रेंज के वनटांगियों ने नही देखा कभी बैलेट पेपर
-१७५ लोगों के कुनबे में १ ही हैं मिडिल पास
(खीरी) गोला-टांगिया गांव से। देश को आजादी मिले ६३ साल हो गए, लेकिन गोला रेंज के जंगल में बसे टांगिया गांव को अभी तक लोकतंत्र में वोट डालने का हक तक हासिल नहीं हुआ। ३७ परिवारों के इस कुनबे में अपने हांथो से लाखो पेड़ो का वृक्षारोपण किया, आज वही जंगल इनके लिए कैदगाह बन गये है।
गोला वन बैरियर से इस गांव की दूरी महज आठ किमी है, लेकिन बस्ती तक जाने के लिए महज दो पहिया वाहन का ही रास्ता बना हुआ है। यह इनकी बदनसीबी ही है कि अगर गांव में कोई बीमार हो जाये या किसी के घर में नन्ही किलकारी गूंजने वाली हो तो उसे अस्पताल ले जाने के लिए जनाजे की तरह चारपाई पर चार कांधो की जरूरत पड़ती है। इस गांव का नाम भी बदकिस्मती से टांगिया ही पड़ गया है, पड़ोस में एक कटैला फार्म भी मिली जुली पहचान है। कुनबे के मुखिया रामलखन बताते है कि उनके पिता जोखू भी उन ५०० लोगों में से एक थे, जो ६० के दशक में गोरखपुर से भीरा रेंज में वृक्षारोपण के लिए आये थे। १९७२ में कुछ लोगों का भीरा रेंज से गोला रेंज में ट्रांसफर कर दिया गया था। सबसे पहले यह लोग पश्चिमी बीट में केतवार पुल के किनारे लाये गये, यहां वृक्षारोपण हुआ,पांच साल बाद कलंजरपुर उसके बाद सिकंदरपुर में हजारों पौधो का रोपण किया। पिछले १७ साल से यह लोग पूर्वी बीट में वृक्षारोपण करने के बाद इस स्थान पर रह रहे है।
-१७५ लोगों के कुनबे में १ ही हैं मिडिल पास
(खीरी) गोला-टांगिया गांव से। देश को आजादी मिले ६३ साल हो गए, लेकिन गोला रेंज के जंगल में बसे टांगिया गांव को अभी तक लोकतंत्र में वोट डालने का हक तक हासिल नहीं हुआ। ३७ परिवारों के इस कुनबे में अपने हांथो से लाखो पेड़ो का वृक्षारोपण किया, आज वही जंगल इनके लिए कैदगाह बन गये है।
गोला वन बैरियर से इस गांव की दूरी महज आठ किमी है, लेकिन बस्ती तक जाने के लिए महज दो पहिया वाहन का ही रास्ता बना हुआ है। यह इनकी बदनसीबी ही है कि अगर गांव में कोई बीमार हो जाये या किसी के घर में नन्ही किलकारी गूंजने वाली हो तो उसे अस्पताल ले जाने के लिए जनाजे की तरह चारपाई पर चार कांधो की जरूरत पड़ती है। इस गांव का नाम भी बदकिस्मती से टांगिया ही पड़ गया है, पड़ोस में एक कटैला फार्म भी मिली जुली पहचान है। कुनबे के मुखिया रामलखन बताते है कि उनके पिता जोखू भी उन ५०० लोगों में से एक थे, जो ६० के दशक में गोरखपुर से भीरा रेंज में वृक्षारोपण के लिए आये थे। १९७२ में कुछ लोगों का भीरा रेंज से गोला रेंज में ट्रांसफर कर दिया गया था। सबसे पहले यह लोग पश्चिमी बीट में केतवार पुल के किनारे लाये गये, यहां वृक्षारोपण हुआ,पांच साल बाद कलंजरपुर उसके बाद सिकंदरपुर में हजारों पौधो का रोपण किया। पिछले १७ साल से यह लोग पूर्वी बीट में वृक्षारोपण करने के बाद इस स्थान पर रह रहे है।
खुद की पहचान है सबसे बड़ा सवाल ?
-इस कुनबे के लोगो के पास पहचान के नाम पर सरकारी चिट तक नहीं है। १७ साल से एक जगह पर रह रहे इनके नाम न तो किसी वोटर लिस्ट में शामिल हैं और न ही इनके पास पहचान पत्र है। सरकार की योजनायें इस गांव के लिए पोस्टर के सिवा कुछ नही है। राशनकार्ड,जाबकार्ड पर देश के हर नागरिक का हक है, लेकिन यहां के बाशिंदो को सरकार ने कभी इस लायक भी नहीं समझा। कक्षा आठ तक पढ़े रमाकांत सबसे पढ़े लिखे बाशिंदे है। अब गांव के ६ से १४ साल के लगभग ४० बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकार ने कोई इंतजाम नही किया। रमाकांत बताते है कि जब वनविभाग की वह लोग चाकरी करते थे, तब विभाग ने पढ़ाने का कुछ इंतजाम जरूर किया था। बीच में विधायक अरविंद गिरि के प्रयास से एक केंद्र चलाया गया, जो डेढ़ साल बाद बंद भी हो गया।
-इस कुनबे के लोगो के पास पहचान के नाम पर सरकारी चिट तक नहीं है। १७ साल से एक जगह पर रह रहे इनके नाम न तो किसी वोटर लिस्ट में शामिल हैं और न ही इनके पास पहचान पत्र है। सरकार की योजनायें इस गांव के लिए पोस्टर के सिवा कुछ नही है। राशनकार्ड,जाबकार्ड पर देश के हर नागरिक का हक है, लेकिन यहां के बाशिंदो को सरकार ने कभी इस लायक भी नहीं समझा। कक्षा आठ तक पढ़े रमाकांत सबसे पढ़े लिखे बाशिंदे है। अब गांव के ६ से १४ साल के लगभग ४० बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकार ने कोई इंतजाम नही किया। रमाकांत बताते है कि जब वनविभाग की वह लोग चाकरी करते थे, तब विभाग ने पढ़ाने का कुछ इंतजाम जरूर किया था। बीच में विधायक अरविंद गिरि के प्रयास से एक केंद्र चलाया गया, जो डेढ़ साल बाद बंद भी हो गया।
अब्दुल सलीम खान (लेखक युवा पत्रकार है, वन्य-जीवन के सरंक्षण में विशेष अभिरूचि, जमीनी मसायल पर तीक्ष्ण लेखन, खीरी जनपद के गुलरिया (बिजुआ) गाँव में निवास, इनसे salimreporter.lmp@)gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं)
BAHUT SUNDAR KHOJPRK RIPORT BADHAI.....
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