बाघ और उनके आवास
अब न प्राकृतिक जंगल हैं और न ही परती भूमियां जो घर हुआ करती थी हजारों किस्म के जीवों का........
©Krishna K Mishra |
जनपद खीरी हिमालय की तराई का एक विशाल भू-भाग, जहाँ छोटी-बड़ी नदियों का जाल इस धरती पर विभिन्न प्रकार की जैव-विविधिता को पोषित करता है, यही विशाल नदियों और स्थानीय नदियों की तलहटियों में उगे वृक्षों, झाड़ियों और विशाल घासों ने वन्य जीवन को सुन्दर ठिकाने प्रदान किए, और यही वजह थी कि वन्य जीव एक स्थान से दूसरे स्थानों तक इन्ही नदियों के किनारों की झाड़ियों की ओट लेकर एक जंगल से दूसरे जंगल तक विचरण किया करते थे, साथ ही परती पड़ी भूमि जो घास के मैदान हुआ करते थे जंगली व पालतू पशुओं के लिए पोषण का बेहतरीन जरिया थे और मांसभक्षी बाघ, तेन्दुआ, भेड़िया, एंव सियार जैसे जानवरों के लिए ये सब्जीखोर पशु आहार के रूप में उपलब्ध थे, बाघ और तेन्दुओं जैसे खूबसूरत माँसभक्षी जानवरों के लिए खीरी जनपद की भौगोलिक व प्राकृतिक स्थितियां एक दम अनुकूल थी। किन्तु मौजूदा अनियोजित विकास ने इन नदियों के किनारों की जैव-विविधिता को नष्ट कर दिया, साथ ही परती भूमियां कृषि व औद्योगिक ईकाइयों की भेट चढ़ गयी।
सबसे गौर तलब बात यह कि खीरी ही नही ब्रिटिश-भारत में जंगलों का अन्धाधुन्ध कटान किया गया, और उनकी जगह एक ही प्रजाति के वनों का रोपण हुआ, नतीजा प्राकृतिक व जैव-विविधता वाले जंगल समाप्त हो गये, साथ ही भारत की आजादी के उपरान्त तकरीबन दो दशकों तक जंगलों का बेदर्दी से सफ़ाया किया गया, ताकि सरकार रेवन्यु मिल सके और भारत के विभिन्न भू-भागों से लाकर गरीब जनों को इन भूमियों पर बसाया जा सके, भू-दान आन्दोलन आदि इसकी एक मिसाल है, आज उन वनों की जगहों पर रिहाइशी इलाके या कृषि भूमियां हैं।
यदि किसी प्रजाति को नष्ट करना हो तो उसका घर उजाड़ दो, मानव अपनी महत्वाकाक्षाओं के चलते इस अनियोजित विकास में सभी के घर उजाड़ देना चाहता है, किन्तु क्या एसा करके वह अपना अकेला घर इस ग्रह पर बचा सकेगा!
हम आदिवासियों को खदेड़ कर बाघ बचाना चाहते है! क्या जहां जहां ऐसा किया गया वहां बाघ बच पाये? जंगल आदिवासी का घर है और जीव को अपने घर से प्रेम होता है, वह कभी नही चाहेगा कि उसका घर या उसके घर की को चीज नष्ट हो, पर आदिवासी और जंगल के मध्य समन्वय स्थापित करने में हम असफ़ल रहे, कानून किसी समस्या का हल नही हो सकता। फ़िर मौजूदा वनों में आदिवासियों या इन वनों के आस-पास रह रहे लोगों से वन व वन्य प्राणियों के प्रति संवेदना की उपस्थिति हो यह सोचना वेवकूफ़ी है, क्योंकि कोई भी बाग-वान बिना फ़लोम वाली बाग को बचाने में अभिरूचि नही दिखायेगा, यदि वह पागल नही है तो? आज के वन जो मुख्यत: इमारती लकड़ी के लिए रोपे गये, शाखू, सागौन आदि, जिनमें विविधिता का अभाव है, केवल एक वृक्ष प्रजाति ही मौजूद है, ऐसे जंगल में न तो पक्षियों की विविधता मौजूद होगी और न ही कीटों की.......फ़ल दार व औषधीय वृक्षों के अभाव ने मनुष्य का वनों के प्रति आकर्षण समाप्त कर दिया। हां जहां महुआ आदि के वृक्ष मौजूद है वहां के वनों में आदिवासी को वह अधिकार प्राप्त नही जिससे वह इन प्राकृतिक स्रोतों से अपनी जीविका चला सके।
हमें परती भूमि, नदियों व तालाबों के आस-पास के छोटे-छोटे वन-समूहों को दोबारा विकसित करना होगा, ताकि यह जंगल-झाड़िया व खुले मैदान शिकार और शिकारी (prey &predator) को आश्रय प्रदान कर सके व जीवों के आवागमन में कारीडोर का कार्य भी।
यदि हम बाघ के आवास और उसके भोजन को सुरक्षित रख सके तो ही यह प्रजाति हमारी धरती पर जीवित रह सकेगी अन्यथा सारी कवायदे बेवकूफ़ाना साबित होगी, शिकार एक समस्या है, पर उससे भी बड़ी समस्या है इस प्रजाति के नष्ट होते आवास और आहार।
जब वास्तविक जंगल और उसमेम प्रचुर मात्रा में जीव जन्तु होगे तो आहार श्रंखला में समन्वय स्थापित रहेगा। नतीजतन मानव-जानवर के मध्य में टकराव की संभावना भी समाप्त हो जायेगी। अतीत में सारे धर्म प्रचारक यानि रिषि-मुनि जगलों में निवास करते थे किन्तु किसी साधु को बाघ या शेर खा गया हो ऐसे वृतान्तों का जिक्र नही मिलता।
ग्यारहवीं सदी में महमूद गजनवी के साथ भारत आये विद्वान अलबरूनी ने अपनी पुस्तक में गंगा की तलहटी में गैन्डों को सामान्य तौर से मवेशियों की तरह विचरण करते देखा, आज उसी गंगा की तलहटी में गैन्दे क्या गाय-भैंस के चरने या विचरण करने के लिए जगह नही बची...हम अनियोजित विकास को बन्द कर दे, बेहतर नतीजे खुद-ब-खुद हमारे सामने होंगें।
हम प्राकृतिक वन, नदियां, जलाशय और परती-जलीय-नम भूमियों को सरंक्षित कर ले तो धरती की जैव-विविधता पल्लवित होती रहेगी।
सबसे गौर तलब बात यह कि खीरी ही नही ब्रिटिश-भारत में जंगलों का अन्धाधुन्ध कटान किया गया, और उनकी जगह एक ही प्रजाति के वनों का रोपण हुआ, नतीजा प्राकृतिक व जैव-विविधता वाले जंगल समाप्त हो गये, साथ ही भारत की आजादी के उपरान्त तकरीबन दो दशकों तक जंगलों का बेदर्दी से सफ़ाया किया गया, ताकि सरकार रेवन्यु मिल सके और भारत के विभिन्न भू-भागों से लाकर गरीब जनों को इन भूमियों पर बसाया जा सके, भू-दान आन्दोलन आदि इसकी एक मिसाल है, आज उन वनों की जगहों पर रिहाइशी इलाके या कृषि भूमियां हैं।
यदि किसी प्रजाति को नष्ट करना हो तो उसका घर उजाड़ दो, मानव अपनी महत्वाकाक्षाओं के चलते इस अनियोजित विकास में सभी के घर उजाड़ देना चाहता है, किन्तु क्या एसा करके वह अपना अकेला घर इस ग्रह पर बचा सकेगा!
हम आदिवासियों को खदेड़ कर बाघ बचाना चाहते है! क्या जहां जहां ऐसा किया गया वहां बाघ बच पाये? जंगल आदिवासी का घर है और जीव को अपने घर से प्रेम होता है, वह कभी नही चाहेगा कि उसका घर या उसके घर की को चीज नष्ट हो, पर आदिवासी और जंगल के मध्य समन्वय स्थापित करने में हम असफ़ल रहे, कानून किसी समस्या का हल नही हो सकता। फ़िर मौजूदा वनों में आदिवासियों या इन वनों के आस-पास रह रहे लोगों से वन व वन्य प्राणियों के प्रति संवेदना की उपस्थिति हो यह सोचना वेवकूफ़ी है, क्योंकि कोई भी बाग-वान बिना फ़लोम वाली बाग को बचाने में अभिरूचि नही दिखायेगा, यदि वह पागल नही है तो? आज के वन जो मुख्यत: इमारती लकड़ी के लिए रोपे गये, शाखू, सागौन आदि, जिनमें विविधिता का अभाव है, केवल एक वृक्ष प्रजाति ही मौजूद है, ऐसे जंगल में न तो पक्षियों की विविधता मौजूद होगी और न ही कीटों की.......फ़ल दार व औषधीय वृक्षों के अभाव ने मनुष्य का वनों के प्रति आकर्षण समाप्त कर दिया। हां जहां महुआ आदि के वृक्ष मौजूद है वहां के वनों में आदिवासी को वह अधिकार प्राप्त नही जिससे वह इन प्राकृतिक स्रोतों से अपनी जीविका चला सके।
हमें परती भूमि, नदियों व तालाबों के आस-पास के छोटे-छोटे वन-समूहों को दोबारा विकसित करना होगा, ताकि यह जंगल-झाड़िया व खुले मैदान शिकार और शिकारी (prey &predator) को आश्रय प्रदान कर सके व जीवों के आवागमन में कारीडोर का कार्य भी।
यदि हम बाघ के आवास और उसके भोजन को सुरक्षित रख सके तो ही यह प्रजाति हमारी धरती पर जीवित रह सकेगी अन्यथा सारी कवायदे बेवकूफ़ाना साबित होगी, शिकार एक समस्या है, पर उससे भी बड़ी समस्या है इस प्रजाति के नष्ट होते आवास और आहार।
जब वास्तविक जंगल और उसमेम प्रचुर मात्रा में जीव जन्तु होगे तो आहार श्रंखला में समन्वय स्थापित रहेगा। नतीजतन मानव-जानवर के मध्य में टकराव की संभावना भी समाप्त हो जायेगी। अतीत में सारे धर्म प्रचारक यानि रिषि-मुनि जगलों में निवास करते थे किन्तु किसी साधु को बाघ या शेर खा गया हो ऐसे वृतान्तों का जिक्र नही मिलता।
ग्यारहवीं सदी में महमूद गजनवी के साथ भारत आये विद्वान अलबरूनी ने अपनी पुस्तक में गंगा की तलहटी में गैन्डों को सामान्य तौर से मवेशियों की तरह विचरण करते देखा, आज उसी गंगा की तलहटी में गैन्दे क्या गाय-भैंस के चरने या विचरण करने के लिए जगह नही बची...हम अनियोजित विकास को बन्द कर दे, बेहतर नतीजे खुद-ब-खुद हमारे सामने होंगें।
हम प्राकृतिक वन, नदियां, जलाशय और परती-जलीय-नम भूमियों को सरंक्षित कर ले तो धरती की जैव-विविधता पल्लवित होती रहेगी।
कुदरती जंगल होंगे, उनमें फ़ूल और फ़ल होंगे तो चिड़िया भी चहचहाएंगी और मोर भी नाचेंगे, यकीन मानिए आदमी इन फ़ल-फ़ूलों से सुसज्जित जंगलों की सुरक्षा भी करेगा और उसकी बढ़ोत्तरी में सहयोग भी देगा....नही तो सिर्फ़ टिम्बर उगाने से आम आदमी जो कभी निर्भर था इन प्राकृतिक वनों पर, इन लकड़ी के लठ्ठों की निगेहबानी नही करेगा !
कृष्ण कुमार मिश्र ( स्वतंत्र पत्रकारिता-लेखन, अध्यापन, वन्य-जीवन का अध्ययन व सरंक्षण, युवराज दत्त महाविद्यालय लखीमपुर में दो वर्षों (2001-2002)तक जन्तु-विज्ञान प्राध्यापक के तौर पर कार्यानुभव, विश्व-प्रकृति निधि के पांडा न्युजलेटर, न्युजलेटर फ़ॉर बर्डवाचर्स, आदि में वैज्ञानिक लेखन के अतिरिक्त हिन्दुस्तान दैनिक लखनऊ में कई वर्षों तक "प्रदेश के रंग" कॉलम में प्रदेश के इतिहास व वन्य-जीवन पर नियमित लेखन, हिन्दुस्तान दैनिक लखीमपुर-लखनऊ में दुधवा डायरी कॉलम के प्रवर्तक,सहारा समय साप्ताहिक में खीरी जनपद से रिपोर्टिंग, जनसत्ता, डेली-न्युज एक्टिविस्ट, प्रभात खबर, डिग्निटी डॉयलॉग, उदन्ती आदि पत्र।पत्रिकाओं में लेखन के साथ-साथ पर्यावरण व वन्य-जीव सरंक्षण में अलख जगाते रहने की हर मुमकिन कोशिश, एशियन ओपनबिल्ड स्टॉर्क पर शोध कार्य, लखीमपुर खीरी में निवास, इनसे krishna.manhan@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं)
पोस्ट भी बढ़िया , शीर्षक बहुत ध्यान खींचने वाला है ..
ReplyDeleteExellent Article.
ReplyDeleteI think evergrowing population is root cause for all the destruction we are seeing.