वन्य जीवन सरक्षण बनाम टोपीधारी वन्य-जीव प्रेमी!
.....जंगल-जंगल...तो क्या ये सब बेमानी है
...क्या मात्र कथित विरोध दर्ज करना और वन्य जीव अध्ययन के नाम पर पढ़ी किताब को दोहराते रहना वन्य संपदा के सरंक्षण में कितना लाभप्रद है!
कुछ दिनों पूर्व मेरे मित्र सप्तर्षि सहगल के साथ हो रही चर्चा के दौरान एक बात उठी कि क्या मै कभी पारधी जाति के लोगो से मिला हूं , वे लोग कैसे हैं फ़िर चर्चा बाघो के शिकार पर पहुंच गयी , उनका कहना था कि पन्ना मे बाघों के खात्मे के लिये पारधी लोग ही जिम्मेदार हैं । इस बात पर मेरा ध्यान कान्हा मे पिछले दिनो राष्ट्रीय उद्धान की सीमा के भीतर वनोपज एकत्रित करने गये एक आदिवासी के मारे जाने पर फ़ेसबुक मे की गयी टिप्पणियों पर गया जिसमे मारे गये व्यक्ती को बेवकूफ़ ,अच्छा हुआ , इसी के लायक था इस प्रकार की टिप्पणियां की गयी थी एक सज्जन तो और आगे पहुच गये वे अफ़सोस व्यक्त कर रहे थे कि मारे गये व्यक्ति का साथी बच कर निकल गया उसे भी मर जाना था ।
जंगल में किसने किसको नोचा, किसने किसको खाया- देखिए फ़ेसबुकिया !
फ़ेसबुकिया आदि पर शोक प्रगट करते लोग, अक्सर आप को वहाँ वर्चुअल मुण्डन कराते लोग मिल जायेंगें, जबकि पर्यावरण के नाम पर एक पीपल-बरगद रोपने या घर के आस-पास पौधों को पानी देने या फ़िर शिकारियों से वन्य जीवों की सुरक्षा में कोई जमीनी कदम नही उठायेंगे....क्योंकि इन्टरनेट है न! कोई खतरा नही! कोई खर्चा नही!... मामला जम जाता हैं, एक नौटंकी में एक किरदार को क्या चाहिए ? ..वाह-वाही..जो यहां नेट पर आँखें जमाए कुछ खलिहर लोग कर ही देते हैं!
आज भारत मे वनों और वन्यप्राणियों से प्रेम करने वाली एक नयी पीढ़ी तेजी से सामने आ रही है जो येन केन प्रकारेण बाघो को वापस स्थापित करना चाहती है । पर्यावरण तंत्र के लिये यह पुनर्जागरण काल से कम नही है ।
आज भारत मे वनों और वन्यप्राणियों से प्रेम करने वाली एक नयी पीढ़ी तेजी से सामने आ रही है जो येन केन प्रकारेण बाघो को वापस स्थापित करना चाहती है । पर्यावरण तंत्र के लिये यह पुनर्जागरण काल से कम नही है ।
एक एक बाघ की मौत पर देश के बुद्धिजीवी वर्ग मे मुर्दनी छा जाती है वह दिन भी दूर नही जब इस बात पर राष्ट्रीय शोक की घोषणा भी होने लगे । इस प्रबुद्ध वर्ग के बाघ प्रेम मे सबसे बड़ा रोड़ा वे आदिवासी है जो बाघ के रहवास स्थल और इसके आसपास रहते हैं हर शिकार की घटना मे इनका ही नाम सामने आता है पर इन्होने अपने घरों से हटने से इंकार कर दिया है और इनके रहते बाघो के बचने की कल्पना भी नही की जा सकती ऐसा इस प्रबुद्ध वर्ग का मानना है |
क्या मुवावजा कोई मौजूं विकल्प है?
आज सदियो से वन्यप्राणियो के साथ समरसता से रहते आये आदिवासियो की स्थिती अजीब सी हो गयी है प्राक्रुतिक वनो के अभाव मे अमीर आदिवासी गरीब हो गया है वनो मे उसके और उसके पशुधन के लिये कुछ नही है उपर से वन्यप्राणी उसकी फ़सलों और पशुओ कॊ हानी पहुचा रहे है । मुआवजे के लिये दर दर ठोकर खाने के बाद जब वह बदला लेता है तो वह अपराधी बन जाता है । सेव द स्ट्राईप नामक जबलपुर स्थित संस्था के आकलन के अनुसार एक गाय के मरने के बाद वन विभाग के द्वारा दिये जाने वाले महज 2000 रूपये मुआवजे के लिये ग्रामीणो को १००० रूपये रिश्वत देनी होती है इसके कई महिनो बाद मुआवजा प्राप्त होता है ।
नव उदित बाघ प्रेमियो के पास इसका भी जवाब है कि सरकार उचित मुआवजा देगी पर यदि सरकारी तंत्र सही मुआवजा देने मे कुशल होता तो क्यों ये आदिवासी फ़सलो और पशुओ का नुकसान होने के बाद वन्यप्राणियो को मारते । देखिये कुछ आदिवासी पैसों के लिये शिकार करते हैं इसमे कोई शक की बात नही है पर आम आदिवासी बाघो को तभी मारता है जब पशुओ पर हमले लगतार हो रहे हों हाल ही मे सरिस्का मे हुई मौत इसका जीवंत उदाहरण है ST1 नामक बाघ लगातार पशुओ को मार रहा था और वनविभाग ने कॊई कदम नही उठाया निश्चित ही उचित मुआवजा भी नही दिया गया होगा तब जाकर गांव वालो ने उसको मारा । अब उस गांव को हटाने की मांग उठा रहे पर्यावरण वादियो को क्या वन विभाग के अफ़सरॊं को नौकरी से हटाने का खयाल नही आता जिनकी हरामखोरी के कारण पहले एक बाघ का जीवन बरबाद हुआ और अब गांववालो का जीवन बरबाद होगा ।
आज सदियो से वन्यप्राणियो के साथ समरसता से रहते आये आदिवासियो की स्थिती अजीब सी हो गयी है प्राक्रुतिक वनो के अभाव मे अमीर आदिवासी गरीब हो गया है वनो मे उसके और उसके पशुधन के लिये कुछ नही है उपर से वन्यप्राणी उसकी फ़सलों और पशुओ कॊ हानी पहुचा रहे है । मुआवजे के लिये दर दर ठोकर खाने के बाद जब वह बदला लेता है तो वह अपराधी बन जाता है । सेव द स्ट्राईप नामक जबलपुर स्थित संस्था के आकलन के अनुसार एक गाय के मरने के बाद वन विभाग के द्वारा दिये जाने वाले महज 2000 रूपये मुआवजे के लिये ग्रामीणो को १००० रूपये रिश्वत देनी होती है इसके कई महिनो बाद मुआवजा प्राप्त होता है ।
नव उदित बाघ प्रेमियो के पास इसका भी जवाब है कि सरकार उचित मुआवजा देगी पर यदि सरकारी तंत्र सही मुआवजा देने मे कुशल होता तो क्यों ये आदिवासी फ़सलो और पशुओ का नुकसान होने के बाद वन्यप्राणियो को मारते । देखिये कुछ आदिवासी पैसों के लिये शिकार करते हैं इसमे कोई शक की बात नही है पर आम आदिवासी बाघो को तभी मारता है जब पशुओ पर हमले लगतार हो रहे हों हाल ही मे सरिस्का मे हुई मौत इसका जीवंत उदाहरण है ST1 नामक बाघ लगातार पशुओ को मार रहा था और वनविभाग ने कॊई कदम नही उठाया निश्चित ही उचित मुआवजा भी नही दिया गया होगा तब जाकर गांव वालो ने उसको मारा । अब उस गांव को हटाने की मांग उठा रहे पर्यावरण वादियो को क्या वन विभाग के अफ़सरॊं को नौकरी से हटाने का खयाल नही आता जिनकी हरामखोरी के कारण पहले एक बाघ का जीवन बरबाद हुआ और अब गांववालो का जीवन बरबाद होगा ।
आदिवासियों का विस्थापन क्या उचित है?
किसी भी जीव की स्वनिर्भर आबादी को बनाए रखने और उसमे संख्या वृद्धि करने का एक मात्र उपाय उसकी भोजन श्रंखला को अधिक संमृद्ध करना और उसमे बढोत्तरी करना है, मौतों पर नियंत्रण उपाय नही हो सकता ।
बाघो की बची खुची आबादी को बनाए रखने और उनकी संख्या में बढोत्तरी करने का एकमात्र उपाय यह है कि बाघो की भोजन श्रंखला कॊ नये भोजन स्रोत उपलब्ध कराने होंगे प्रजाति विविधता वाले वनो के अभाव मे एक मात्र आसान तरीका जो बचता है वह यह है कि इन अभागे आदिवासियो को बेघर कर के उनके खेतो को घास के मैदानो मे बदल दिया जाय । ये मैदान हिरणो की एक बड़ी आबादी को सहारा देते हैं ,आज जितने भी राष्ट्रीय उद्धानों मे बाघ बड़ी तादाद मे हैं उन सभी मे गावों को हटा कर बनाए गये बड़े बड़े घास के मैदान है
बरबाद होते वन और तबाह होते लोग:
हम शहर वासियो की गाड़ियों और कारखानों से निकलने वाले धुएं की कीमत किसी न किसी को तो चुकानी ही होगी और बाघो के बिना जंगलो का पर्यावरणतंत्र भी असफ़ल होगा । बिना सागौन और साल के हम शान से जी भी नही सकते और अगर हम ठान भी ले तो इमारती वनो को प्राक्रुतिक वनो मे बदलने के लिये जरूरी शासनतंत्र भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका है । बाघ के रहवास स्थलों एवं उसके आस-पास के वन-स्थलों में फ़ल और फ़ूल दार वृक्षों का रोपण करना वन विभाग के न तो मसूबों में है और न ही बस में। ऐसे मे बलि का बकरा तो वनवासियों को ही बनना होगा आखिर देश ने सारे बलिदानो का ठेका तो गरीबो को ही दे रखा है ।
नक्सलवाद और जंगल और घातक-बुद्धिजीवी:
इन सब परिस्थितियों मे कोई आश्चर्य नही की आदिवासियों ने नक्सलवाद का दामन थाम लिया है और एक के बाद एक वनक्षेत्रो मे उनका कब्जा होता जा रहा है । और बाघ प्रेमियो के प्रबुद्ध वर्ग को मै यह भी बताना चाहुंगा कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रो से बाघ और अन्य वन्यप्राणियो की संख्या मे अच्छी व्रुद्धी की खबरें मिल रही हैं और उत्पादन वनमंडल के बहुत बड़े वनक्षेत्र मे प्रक्रुतिक वन फ़िर अपनी जड़े जमाने लगे है । इन इलाको मे जहा वन विभाग का कोई नियंत्रण नही है वनवासियो ने वापस अपनी प्राचीन जीवन शैली को अपना लिया है और बेवार पद्धती की खेती से वन्यप्राणियो को घास के नये मैदान मिलने लगे है और उन्होने फ़िर अपनी संख्या मे बढ़ोतरी कर ली है । हालाकि हमारे उच्चशिक्षा प्राप्त वनाधिकारी भी कैनोपी ओपेनिंग के नाम से यह काम करने का प्रयास कर रहे है पर उनका तरीका कामयाब नही है । शायद नवनियुक्त भारतीय वनसेवा के अधिकारियो को देहरादून मे प्रशिक्षण देने के बजाय उनको नक्सल कब्जे वाले अबूझमाड़ मे २ वर्षो के लिये भेजना ही उचित होगा जहां वे सीख सकते हैं कि कैसे एक जंगल मे आदिवासी और बाघ एवं उसकी प्रजा समरसता से रह रहे है ।
हम शहर वासियो की गाड़ियों और कारखानों से निकलने वाले धुएं की कीमत किसी न किसी को तो चुकानी ही होगी और बाघो के बिना जंगलो का पर्यावरणतंत्र भी असफ़ल होगा । बिना सागौन और साल के हम शान से जी भी नही सकते और अगर हम ठान भी ले तो इमारती वनो को प्राक्रुतिक वनो मे बदलने के लिये जरूरी शासनतंत्र भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका है । बाघ के रहवास स्थलों एवं उसके आस-पास के वन-स्थलों में फ़ल और फ़ूल दार वृक्षों का रोपण करना वन विभाग के न तो मसूबों में है और न ही बस में। ऐसे मे बलि का बकरा तो वनवासियों को ही बनना होगा आखिर देश ने सारे बलिदानो का ठेका तो गरीबो को ही दे रखा है ।
नक्सलवाद और जंगल और घातक-बुद्धिजीवी:
इन सब परिस्थितियों मे कोई आश्चर्य नही की आदिवासियों ने नक्सलवाद का दामन थाम लिया है और एक के बाद एक वनक्षेत्रो मे उनका कब्जा होता जा रहा है । और बाघ प्रेमियो के प्रबुद्ध वर्ग को मै यह भी बताना चाहुंगा कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रो से बाघ और अन्य वन्यप्राणियो की संख्या मे अच्छी व्रुद्धी की खबरें मिल रही हैं और उत्पादन वनमंडल के बहुत बड़े वनक्षेत्र मे प्रक्रुतिक वन फ़िर अपनी जड़े जमाने लगे है । इन इलाको मे जहा वन विभाग का कोई नियंत्रण नही है वनवासियो ने वापस अपनी प्राचीन जीवन शैली को अपना लिया है और बेवार पद्धती की खेती से वन्यप्राणियो को घास के नये मैदान मिलने लगे है और उन्होने फ़िर अपनी संख्या मे बढ़ोतरी कर ली है । हालाकि हमारे उच्चशिक्षा प्राप्त वनाधिकारी भी कैनोपी ओपेनिंग के नाम से यह काम करने का प्रयास कर रहे है पर उनका तरीका कामयाब नही है । शायद नवनियुक्त भारतीय वनसेवा के अधिकारियो को देहरादून मे प्रशिक्षण देने के बजाय उनको नक्सल कब्जे वाले अबूझमाड़ मे २ वर्षो के लिये भेजना ही उचित होगा जहां वे सीख सकते हैं कि कैसे एक जंगल मे आदिवासी और बाघ एवं उसकी प्रजा समरसता से रह रहे है ।
जहाँ तक रही बात प्रबुद्ध बाघ प्रेमियों की जो नचनियों की तरह सज-धज कर जंगल कम इन्टरनेट पर ज्यादा अवतरित होते हैं, तो उनके लिये मै इंटरनेट मे वर्चुअल अबुझमाड़ बनाने का प्रयास कर रहा हूं । ताकि वो अपनी कोरी कल्पनाओं और वर्चुअल प्रयासों को इस आभासी दुनिया में जाहिर कर अपनी ई-कीर्ति बढ़ा सकें।
अरूणेश दवे (लेखक छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहते है, पेशे से प्लाईवुड व्यवसायी है, प्लाई वुड टेक्नालोजी में इंडियन रिसर्च इंस्टीट्यूट से डिप्लोमा।वन्य् जीवों व जंगलों से लगाव है, स्वतंत्रता सेनानी परिवार से ताल्लुक, मूलत: गाँधी और जिन्ना की सरजमीं से संबध रखते हैं। सामाजिक सरोकार के प्रति सजगता, इनसे aruneshd3@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)
सुन्दर आलेख. हमारे ख़याल से आदिवासियों नक्सलियों का दामन नहीं थामा था उलटे आयातित नक्सली सीधे सरल आदिवासियों पर हावी हो गए.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति, "हरामखोर’ व नौटंकी टाइप के टोपीधारी वन्य-जीव प्रेमियों व विशेषज्ञों के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण लेखन के लिए, वैसे एक अचजरज सा हो रहा कि जब आप अबूमाड़ के जंगल इस आभासी दुनिया पर उतार देंगे तो क्या ये हरामखोरों में इतनी माद्दा है कि उस नक्सल प्रभावित इलाकों के आभासी जंगल में कई जेबों व प्योंदा लगी किसी फ़तीचर विदेशी कम्पनी की पतलून व टोपी तथा बाजीगरों सा कैमरा लटका कर यहां इस वर्चुअल नक्सली जंगल में पर्यतन कर पायेंगे ! या इनकी पतलून नक्सली ए०के० ४७ को देखकर गीली हो जायेगी... वैसे ये किसी प्यारे जंगली जानवर को देखकर भी डर जाते है...बाद में बहादुरी के किस्सों का बखान किसी राणा सांगा की तरह करते है...लानत है...
ReplyDeleteEYE OPENER
ReplyDeleteand It has opened my eyes
I am unable to understand, why auther hates tiger conservatioist.
ReplyDeleteWhether he has gone inside 'Abujhmad'forest ? If yes, when & where ? I asked this question to him via mail when he wrote article about 'Abujhmad tribes'. I have not received answer till date.
Tiger and people can not live together , there are so many examples for this, Sariska, Panna, Palamu etc.
The auther is writing about Sariska episode. Whether he has gone there ? Do he know that villagers residing inside Sariska are very cunning & lazy people, who don't want to do any hard work.They allow their numbers of cattles to simply roam in forest, and two times they will milk them to sell it. Very easy job. Many peoples took compensation (10 lakh rupees per adult)to shift from Sariska but still they are living inside forest, some went for 3-4 months and again returned back. Is this not cheating ?
Sariska is most degraded forest- reserve in our country due to overgrazing by cattles. Does he know what will happens when tiger is gone from our forest ? A disaster will take place. No rivers, no fresh air only pollution due to mining & human presence .
Mr. Arunesh please don't misguide peoples.
RAVINDRA YADAV
Mr. Ravindra, The Author is talking about "Tiger Tourists" jackals in the skin of Tiger..!!!
ReplyDeleteOne thing please tell me, A species can conserve nature? ......I think we should be an obedient servent of Mother Nature in place of so-called father? protector? and Masterssssssssssss
Ash ji bahut hi accha likha hai apne....lajab lekhni hai apki...shukriya
ReplyDeleteAnurag Kumar
Vision Dudhwa
I think the whole conservation community is divided into two groups talkers and doers....Rohit Singh
ReplyDeleteravindra ji
ReplyDeletefirst of all sorry for late response as i was away to tadoba national park .secondly i have not recd any email from u regarding abujhmad may be i missed it pls resend it i will be happy to answer ur queries . thirdly i have visited abujhmad and indravati and surrounding areas very often as my maternal uncle was Dfo of aforesaid regions i can take u too there but i am afraid that right now area is very sensitive and we might face trouble from police and naxals as well at last main point u raised about adivasi and tigers not surviving together i am afraid u have not considered our natural history as if both of these were not in harmony tigers would have gone extinct a long time ago .
though i fully understand ur concerns about safety of tigers and current scenario in which adivasi people have turned hostile towards tigers and in turn tiger lovers like u have turn hostile towards adivasi people . my intention of writing articles like these is to make people understand the reason behind disharmony between wild animals and adivasi people below i am giving some links below which might help u understand my point of you
http://www.dudhwalive.com/2010.../07/tribals-in-jungles-of-chhattisgarh.html
http://www.dudhwalive.com/2010/06/naxal-and-tiger.html
Classic peace of writing....
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