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International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Nov 3, 2010

वे आदमखोर नही हैं !

आदमखोर बाघ -- एक मिथक
"मानव-भक्षण की घटनाओं, और उनके पीछे के तमाम कारणों पर अरूणेश दवे  के विचार "दुधवा लाइव" में लेख के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे है। "

भारत वर्ष में लाखों वर्षों से सह-अस्तित्व में रहते आये इसांनो और बाघों के बीच सदा से एक रहस्यात्मक संबंध रहा है । जहां एक ओर मनुष्य ने सदा से बाघ को वीरता और देवत्व के भाव से देखा है, वही बाघों ने भी मनुष्य को सदैव अपनी प्राक्रुतिक भोजन श्रंखला से परे एक जीव के तौर पर रखा है । ऐसा नही है कि मनुष्य और बाघों के बीच टकराव नही होता आया है पर यह टकराव विशेष परिस्थितियों मे ही होता है । अमूमन यह टकराव दोनो के अचानक सामने आ जाने पर ही होता है,  इस टकराव का घातक परिणाम सामने आने पर भी अधिकांश घटनाओं में बाघ मनुष्य को घायल या उसके  शरीर को क्षत-विक्षत करके छोड़ देता है ।

मानव भक्षण की घटनायें आम तौर पर उसी हालात में होती है, जब बाघ वन्य प्राणियों का शिकार करने में असमर्थ हो जाय, इस परिस्थिति में भी आम तौर पर  बाघ पालतू पशुओं के शिकार तक ही सीमित रहता है लेकिन इस दौरान उसे यदि मनुष्य के शिकार का आसान अवसर प्राप्त हो जाय तो फ़िर बाघ अक्सर केवल मनुष्य के शिकार का आदी हो जाता है, इसके परिणाम बड़े घातक सिद्ध होते है । मेरी जानकारी में चम्पावत की आदमखोर बाघिन ने सबसे अधिक इंसानो को (434) को मारा है, इस बाघिन को सुप्रसिद्ध शिकारी जिम कार्बेट ने मारा था । बाघों की ताकत के सामने इंसान एक कमजोर प्राणी है,  इसिलिये मनुष्य ने आदिकाल से बाघों के लिये अनेक किवदंतियों को जन्म दिया है ।


मध्य भारत में आदमखोर बाघों के बारे में अनेक किवदंतियां प्रचलित थी, इन में से एक यह थी कि मैहर के मंदिर के मुख्य पुजारी को बाघों के शरीर में परिवर्तित होने की विद्या आती थी । और जिस भी व्यक्ति को यह विद्या आ जाय उसे बार बार ऐसा करने की इच्छा होती है । अत: पुजारी अपने प्रिय शिष्य को एक अभिमंत्रित माला थमा देता था, उस माला को बाघ के गले में डाल देने से पुजारी पुन: मनुष्य के रूप में आ जाता था ।  लेकिन नया शिष्य बाघ को देखकर डर गया,  और भाग गया। पुजारी साहब जो थे वे सदा के लिये आदमखोर बाघ बन गये ।

कमोबेश कुछ इसी तरह की कहानियां सभी जगह किरदार बदल बदल कर पूरे मध्यभारत में प्रचलित थी और ऐसे बाघों से बचने का जो तरीका अपनाया जाता था, वह यह था कि गोंड या बैगा आदि आदिवासियों को उनके देवता पर चढ़ाने के लिये सामग्री दी जाती थी, चूंकि अब उनके देवता की शान का सवाल होता था, तो ये आदिवासी आदमखोर बाघ के शिकार मे लग जाते थे । इस पर भी अगर बाघ को मारने में सफ़ल न होने पर यह मान लिया जाता था, कि देवता नाराज है, इस परिस्थिति में बाघ के इलाके को खाली कर दिया जाता था चूंकि बेवार (झूम) (shifting cultivation) पद्धति से खेती की जाती थी, अतः गांव वाले वैसे भी दो या तीन साल में जगह बदल लेते थे, और इस पर उन्हे कोई दिक्कत नही होती थी । इसके अलावा भी वनवासी बाघों के परिवेश में सदियों से रहते आये थे, अतः वन में बाघ की उपस्थिति को जान जाते थे, और आमतौर पर टकराव टल जाता था ।

अंग्रेजो के भारत आगमन के कुछ समय पूर्व से ही भारत में बंदूको का आगमन हो गया था और अंग्रेजो के आने के साथ ही बड़ी संख्या मे शिकारियों के पास बंदूके उपलब्ध हो गयी, तथा इसके साथ ही आदमखोर बाघों की संख्या में भी अत्यधिक बढ़ोतरी हो गयी । देखिये आम तौर पर बाघ उम्रदराज होने पर ही सामान्य शिकार में असमर्थ होता । बाघों के आपसी झगड़े में भी आमतौर पर गंभीर रुप से घायल होने के अवसर कम ही आते है और इससे लगी चोटों से भी बाघ अधिकांशतः स्वस्थ हो जाता है । लेकिन शिकार के दौरान गोली के जख्म बाघों को हमेशा के लिये अपाहिज बना देते है, और ऐसे मे बाघ शर्तिया रुप से मानवभक्षी नही तो पालतूपशु भक्षी बन जाता था । ऐसे में कोई घायल युवा बाघ कई सालों तक बड़े इलाके में आतंक फ़ैला देता था ।



आदमखोर बाघों का व्यहवार बहुत कुछ उनके स्वभाव पर निर्भर करता है, पर हर एक सीरियल किलर की तरह वे भी एक निश्चित पैटर्न में ही हत्याये करते है। बांदीपुर का आदमखोर अधिकांशतः बैलगाड़ी चालकों को ही अपना निशाना बनाता था। इसी तरह डाक रनरों पर भी उनकी घंटी की विशेष आवाज के कारण आदमखोर बाघ अपना शिकार बना लेते थे। कोडरमा का आदमखोर लकड़ी काटने की आवाज से आकर्षित होकर लकड़्हारों पर हमला कर देते थे । बाघ आमतौर पर बगल से या पीछे से हमला करते है और शिकार के पास पलटवार करने का कोई मौका नही होता है ।
आदमखोर बाघ के इलाके में रहने वाले लोगो की मनःस्थिति का वर्णन करना बड़ा कठिन कार्य है । ऐसे इलाको में अंधेरा घिरते ही सभी लोग  घर मे दुबक जाते हैं । स्थिति और ज्यादा बिगड़ने पर शौच आदि भी गांव के अंदर करने की नौबत आ जाती है । आइन-ए-अकबरी मे विवरण दर्ज है कि गिधौर और सिमुलताला (झारखंड) के सूबे मे  आदमखोर बाघ के कारण मुगल बादशाह अकबर लगान वसूल नही कर पाया  था । ऐसी स्थितियां तभी आती है जब बाघ केवल मनुष्य के शिकार पर निर्भर हो जाता है । तब बाघ को हर दूसरे या तीसरे दिन शिकार करना पड़ता है । ऐसा बाघ ८ या १० तक गांवो पर शिकार के लिये निर्भर होता है जो लोग बाघ के व्यवहार से परिचित है वे जानते है कि जंगल मे बाघ एक इलाके मे कुछ ही दिन रहता है ज्यादा समय रहने से उसके शिकार इलाके को छोड़ देते है इसी कारण से बाघ को एक बड़ा इलाका चाहिये । इसके अलावा आदमखोर बाघ दिन में ही ज्यादा सक्रिय रहते है । आदमखोर बाघ वह भी अगर केवल मनुष्य भक्षी हो को मारना बेहद मुश्किल कार्य है, क्योंकि वह गारे को नही मारता और वह मनुष्य की उपस्थिति को भांप जाता है, ऐसी स्थिती मे बाघ को मारना महज भाग्य की बात होती है, या यदि परिवार वाले मान जाये तो शव पर घात लगाना भी एक रास्ता है ।

कुछ ऐसे भी अवसर आये है जिनमें जीवित व्यक्तियों ने गारे का काम किया है । कान्हा मे एक लप्सी नाम का बैगा था, जिसने अपनी पत्नी को गारा बनाकर अनेक आदमखोर बाघो का शिकार किया था । उसकी पत्नी तरह तरह की आवाजे निकालकर बाघो को आकर्षित करती थी, और वह मचान पर बैठ कर केवल तीर से बाघो का शिकार किया करता था । एक बार इसी तरह के शिकार में बाघिन ने उसको मार दिया था उसकी मजार कान्हा के मुक्की रेन्ज मे बनी हुई है । एक अन्य घटना में कारवासा के अ के द्वारा पति और एकलौते बच्चे को मार दिये जाने पर साशा नाम की एक महिला ने स्वयं को गारा बनाकर और जान देकर उस बाघ को मरवाया था ।


बाघों के आदमखोर होने की घटनायें बेहद कम होती है, इसे कान्हा के उदाहरण से समझा जा सकता है, जहां बाघों की बड़ी संख्या होने के बावजूद पिछले कई दशको मे इक्का दुक्का घटनाएं ही हुई है, इनमें भी अधिकांश मे बाघों ने शव को नही खाया है । इनमें भी ऐसी घटनाएं ही ज्यादा है, जिनमें बच्चो वाली बाघिन के सामने अचानक कोई मनुष्य पड़ जाये ।

लेकिन अब एक नयी तरह की घटनाएं सामने आ रही है । संरक्षित क्षेत्रों से बाहर निकलने वाले बाघ और मनुष्य के टकराव की । ऐसे बाघ जिनमे नरों की संख्या ज्यादा है, मनुष्यों पर लगातार हमले कर रहे है, ऐसी घटनाए राजस्थान और यूपी मे ज्यादा हो रही है । कारण स्पष्ट है कि बाहरी इलाकों के जंगल या तो काट दिये गये हैं या उन्हे सागौन साल जैसे इमारती वनो में तब्दील कर दिया गया है और ऐसे में बाघो के लिये भोजन उपलब्ध नही होता और वनों में ग्रामीणो और उनके पशुओं की आमदरफ़्त भी बहुत ज्यादा होती है 
अतः टकराव तो होना ही है ।


बाघों के संरक्षण और संख्या वृद्धि के लिये बाघ परियोजना में अनेको कदम उठाने की आवश्यता है, बाघ परियोजना में आने वाले वनों में बफ़र क्षेत्र का निर्माण करना और उसमे फ़लदार पेड़ों का रोपण करना होगा तभी भारत मे बाघों का भविष्य सुरक्षित रहेगा ।


अरूणेश सी दवे (लेखक छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहते है, पेशे से प्लाईवुड व्यवसायी है, प्लाई वुड टेक्नालोजी में इंडियन रिसर्च इंस्टीट्यूट से डिप्लोमा।वन्य् जीवों व जंगलों से लगाव है, स्वतंत्रता सेनानी परिवार से ताल्लुक, मूलत: गाँधी और जिन्ना की सरजमीं से संबध रखते हैं। सामाजिक सरोकार के प्रति सजगता,  इनसे aruneshd3@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।) 


3 comments:

  1. बहुत सुन्दर आलेख. काश हमारी मुलाक़ात अरूणेश जी से हो पाती. हम भी रायपुर में १९९५ से १९९९८ तक कार्यरत थे.

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  2. मैं पहली बार आपके ब्लाग पर आया। बेहद प्रभावित होकर जा रहा हूं। सुंदर और उपयोगी ब्लाग। जारी रखिए। इसे रायपुर की उपलब्धि बनाइए। शुभकामनाएं।

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