अरूणेश सी दवे* "बदलते परिवेश में जंगल व पशुधन के अन्तर्सबंध में एक विमर्श:"
गायें भारतीयों के लिये सदैव ही पूज्यनीय रही है, सदियों से हमारी संस्कृति और जीविका को इनका ही सहारा रहा है । पुरातन गाथाओं में सदैव ये श्र्द्धेय और पूज्यनीय मानी जाती थी और हो भी क्यो ना भोजन स्त्रोत हो आवागमन का साधन या खेती एक भारतीय के लिये इनके बिना जीना असंभव था । और सबसे बड़ा कारण यह भी है कि हम गायों के दूध को मात्रत्व से जोड़कर देखते है और उन्हे माता का दर्जा देते है ।
लेकिन हाल के वर्षों में स्थिति में काफ़ी परिवर्तन आया है भारत में पशु चिकित्सा में हुई उल्लेखनीय प्रगति से हमारे देश में गायों की संख्या बेहद तेजी से बढ़ी है । एक अनुमान के मुताबिक भारत में अब करीब २० करोड़ गायें हैं , और इनकी संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है । वही दूसरी ओर जनसंख्या में हुई बेतहाशा बढ़ोतरी के कारण चारागाहों की भूमि खेतों में बदल दी गयी है, और केवल बंजर भूमि ही चारागाहों के लिए बची है । ऐसे में अत्यधिक चराई के कारण घास की अच्छी किस्में तेजी से विलुप्त होति जा रही है, और जिन जगहों पर वनक्षेत्र बचे हुए है, उन पर चराई के अत्यधिक दबाव के कारण उनकी जैव विविधता को गंभीर संकट खड़ा हो गया है । इसके अलावा गायों का खेती और आवागमन के साधन के रूप मे प्रयोग पहले की तुलना में अब नगण्य रह गया है इस कारण गायो की अब बड़ी आबादी अब अनुपयोगी हो गयी है ।
इसके अलावा अब आवारा पशुओ की संख्या भी तेजी से बढ़ी है हाल ही मे जब नर्मदा बांध के एवज में बनाये गये एक अभ्यारण्य से गावों को जब विस्थापित किया गया तो गावंवालो ने अपने आधे से अधिक पशुओ को वही छोड़ दिया कारण स्पष्ट था कि वे उनके लिये अनुपयोगी थे । उदन्ती सीतानदी नेशनल पार्क मे दर्जनों भैसे जिन्हे उनके मालिको ने आवारा छोड़ दिया था, अब वे जंगली भैसो से संसर्ग कर फ़ेरल भैसो में परिवर्तित हो गयी है, और अब वे जंगल मे ही निवास कर रही है ।
आज भारत मे प्रति वर्ष आवारा पशुओं के कारण होने वाली दुर्घटनाओं को यदि छोड़ भी दिया जाय, तो भी यह बात सपष्ट है, कि आवारा पशुओं के कारण या अनियंत्रित पशुओं के कारण भारत की पुनःवनीकरण नीति भी इसी बात पर निर्भर है, कि कौन से पौधे गाये नही खाती है, क्योंकि नीति नियंताओ को मालूम है, कि जिन पौधों को गाये खाती है, उनका बचना असंभव है ऐसे में जो भी पौधारोपण कार्यक्रम चलाए जाते है, उनमें केवल सागौन गुलमोहर रतनजोत नीलगिरी इत्यादी पौधे लगाए जाते है, इनसे न केवल गाय बल्कि इंसानों को भी खाने के लिये कुछ नही मिलता है, अतः दैवयोग से ये बच भी जाय तो ग्रामीण इन्हे जलाऊ लकड़ी के लिये काट देते है ।
वैसे तो भारत मे किसी भी पौधे का बचना संभव नही है, क्योकि उसके लिये इच्छाशक्ति ना नागरिकों में है, और ना नेताओं में और आज सवाल यह नही है कि वन लगाना क्यो है और कहा है बल्कि यह है कि इस नाम से खेल कितना हो सकता है कौन कितना पैसा बना सकता है । आज कल एक नया खेल चालू हो गया है गिनीस बुक आफ़ वर्ल्ड रिकार्ड मे नाम दर्ज कराने का एक दिन मे एक करोड़ पौधे या इससे भी अधिक । और काम भी आसान है अद्रुश्य पौधो का रोपण ऐसे पौधे जो गायो को नजर ही ना आये ये बात ठीक है कि ये पौधे आम जनता को भी नजर नही आते पर हमारे कर्मठ शासकीय अधिकारी देश हित मे ऐसे पौधो के रोपण मे महारत हासिल कर चुके है । और ये आम जनता और गायो के हितो को ध्यान मे रखते हुए कुछ दिखने वाले वाले पौधो का रोपण भी नेताओ और बड़े अधिकारियो के हाथ से करवा देते है ।
खैर बात मुख्य तो अभी यह है कि भूमी के घास विहीन हो जाने के कारण भूक्षरण की मात्रा भी अत्यधिक बढ़ गयी है स्वच्छ जलधाराऒं का जल अब मटमैला हो गया है और बाधॊ मे तलछ्ट की मात्रा भी अब गंभीर स्तर पर पहुच चुकी है ।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है, कि वनों और खासकर फ़ल और फ़ूलदार पेड़ों की स्वत: पुर्नुत्पादन प्रणाली अब ध्वस्त हो चुकी है । चूंकि इनमें से अधिकांश के पत्ते गाय खाती है, अत: इनके नवीन पौधे पनप नही पा रहे है । वैसे भी इनके अधिकांश बीजों की जीवन लीला महानगरों के कचरा भंडार में जाकर खत्म हो जाती है । चूंकि ऐसे पेड़ों की लकड़ी का इमारती उपयोग नही होता, अत: सरकार इनका रोपण नही करती ।
इन सब बातों का सार एक ही है, कि अब हमको पालतू पशुओं की बेलगाम रूप से बढ़ती आबादी पर नियंत्रण लाना ही होगा और इस देश मे इस काम को करना तो दूर बल्कि इस पर चर्चा करना भी गुनाह है। ऐसे किसी भी प्रयास के सामने धर्म ध्वजा लहराती हुई सेनाए खड़ी हो जायेंगी कई पाठकों के मन में अहिंसा पर भी सवाल पैदा होगा पर तेजी से खत्म होते जा रहे पर्यावास के कारण जिन हजारों प्रकार के पक्षियों वन्यप्राणियों और वनस्पतियों का अस्तित्व ही गंभीर संकट मे आ गया है, क्या वे हिंसा का शिकार नही हो रहे है । क्या किसी जीव का वंश समूल नष्ट होना किसी जीव की आबादी नियंत्रित करने से बड़ी हिंसा नही है ।
सवा अरब की आबादी वाला देश क्या पर्यावरण से छेड़छाड़ की कीमत चुका सकता है ।
लेकिन हाल के वर्षों में स्थिति में काफ़ी परिवर्तन आया है भारत में पशु चिकित्सा में हुई उल्लेखनीय प्रगति से हमारे देश में गायों की संख्या बेहद तेजी से बढ़ी है । एक अनुमान के मुताबिक भारत में अब करीब २० करोड़ गायें हैं , और इनकी संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है । वही दूसरी ओर जनसंख्या में हुई बेतहाशा बढ़ोतरी के कारण चारागाहों की भूमि खेतों में बदल दी गयी है, और केवल बंजर भूमि ही चारागाहों के लिए बची है । ऐसे में अत्यधिक चराई के कारण घास की अच्छी किस्में तेजी से विलुप्त होति जा रही है, और जिन जगहों पर वनक्षेत्र बचे हुए है, उन पर चराई के अत्यधिक दबाव के कारण उनकी जैव विविधता को गंभीर संकट खड़ा हो गया है । इसके अलावा गायों का खेती और आवागमन के साधन के रूप मे प्रयोग पहले की तुलना में अब नगण्य रह गया है इस कारण गायो की अब बड़ी आबादी अब अनुपयोगी हो गयी है ।
इसके अलावा अब आवारा पशुओ की संख्या भी तेजी से बढ़ी है हाल ही मे जब नर्मदा बांध के एवज में बनाये गये एक अभ्यारण्य से गावों को जब विस्थापित किया गया तो गावंवालो ने अपने आधे से अधिक पशुओ को वही छोड़ दिया कारण स्पष्ट था कि वे उनके लिये अनुपयोगी थे । उदन्ती सीतानदी नेशनल पार्क मे दर्जनों भैसे जिन्हे उनके मालिको ने आवारा छोड़ दिया था, अब वे जंगली भैसो से संसर्ग कर फ़ेरल भैसो में परिवर्तित हो गयी है, और अब वे जंगल मे ही निवास कर रही है ।
आज भारत मे प्रति वर्ष आवारा पशुओं के कारण होने वाली दुर्घटनाओं को यदि छोड़ भी दिया जाय, तो भी यह बात सपष्ट है, कि आवारा पशुओं के कारण या अनियंत्रित पशुओं के कारण भारत की पुनःवनीकरण नीति भी इसी बात पर निर्भर है, कि कौन से पौधे गाये नही खाती है, क्योंकि नीति नियंताओ को मालूम है, कि जिन पौधों को गाये खाती है, उनका बचना असंभव है ऐसे में जो भी पौधारोपण कार्यक्रम चलाए जाते है, उनमें केवल सागौन गुलमोहर रतनजोत नीलगिरी इत्यादी पौधे लगाए जाते है, इनसे न केवल गाय बल्कि इंसानों को भी खाने के लिये कुछ नही मिलता है, अतः दैवयोग से ये बच भी जाय तो ग्रामीण इन्हे जलाऊ लकड़ी के लिये काट देते है ।
वैसे तो भारत मे किसी भी पौधे का बचना संभव नही है, क्योकि उसके लिये इच्छाशक्ति ना नागरिकों में है, और ना नेताओं में और आज सवाल यह नही है कि वन लगाना क्यो है और कहा है बल्कि यह है कि इस नाम से खेल कितना हो सकता है कौन कितना पैसा बना सकता है । आज कल एक नया खेल चालू हो गया है गिनीस बुक आफ़ वर्ल्ड रिकार्ड मे नाम दर्ज कराने का एक दिन मे एक करोड़ पौधे या इससे भी अधिक । और काम भी आसान है अद्रुश्य पौधो का रोपण ऐसे पौधे जो गायो को नजर ही ना आये ये बात ठीक है कि ये पौधे आम जनता को भी नजर नही आते पर हमारे कर्मठ शासकीय अधिकारी देश हित मे ऐसे पौधो के रोपण मे महारत हासिल कर चुके है । और ये आम जनता और गायो के हितो को ध्यान मे रखते हुए कुछ दिखने वाले वाले पौधो का रोपण भी नेताओ और बड़े अधिकारियो के हाथ से करवा देते है ।
खैर बात मुख्य तो अभी यह है कि भूमी के घास विहीन हो जाने के कारण भूक्षरण की मात्रा भी अत्यधिक बढ़ गयी है स्वच्छ जलधाराऒं का जल अब मटमैला हो गया है और बाधॊ मे तलछ्ट की मात्रा भी अब गंभीर स्तर पर पहुच चुकी है ।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है, कि वनों और खासकर फ़ल और फ़ूलदार पेड़ों की स्वत: पुर्नुत्पादन प्रणाली अब ध्वस्त हो चुकी है । चूंकि इनमें से अधिकांश के पत्ते गाय खाती है, अत: इनके नवीन पौधे पनप नही पा रहे है । वैसे भी इनके अधिकांश बीजों की जीवन लीला महानगरों के कचरा भंडार में जाकर खत्म हो जाती है । चूंकि ऐसे पेड़ों की लकड़ी का इमारती उपयोग नही होता, अत: सरकार इनका रोपण नही करती ।
इन सब बातों का सार एक ही है, कि अब हमको पालतू पशुओं की बेलगाम रूप से बढ़ती आबादी पर नियंत्रण लाना ही होगा और इस देश मे इस काम को करना तो दूर बल्कि इस पर चर्चा करना भी गुनाह है। ऐसे किसी भी प्रयास के सामने धर्म ध्वजा लहराती हुई सेनाए खड़ी हो जायेंगी कई पाठकों के मन में अहिंसा पर भी सवाल पैदा होगा पर तेजी से खत्म होते जा रहे पर्यावास के कारण जिन हजारों प्रकार के पक्षियों वन्यप्राणियों और वनस्पतियों का अस्तित्व ही गंभीर संकट मे आ गया है, क्या वे हिंसा का शिकार नही हो रहे है । क्या किसी जीव का वंश समूल नष्ट होना किसी जीव की आबादी नियंत्रित करने से बड़ी हिंसा नही है ।
सवा अरब की आबादी वाला देश क्या पर्यावरण से छेड़छाड़ की कीमत चुका सकता है ।
अरूणेश सी दवे (लेखक छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहते है, पेशे से प्लाईवुड व्यवसायी है, प्लाई वुड टेक्नालोजी में इंडियन रिसर्च इंस्टीट्यूट से डिप्लोमा।वन्य् जीवों व जंगलों से लगाव है, स्वतंत्रता सेनानी परिवार से ताल्लुक, मूलत: गाँधी और जिन्ना की सरजमीं से संबध रखते हैं। सामाजिक सरोकार के प्रति सजगता, इनसे aruneshd3@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)
VERY GOOD ARTICLE!!!
ReplyDeleteAND WONDERFUL PICTURE!
NAMASTE!!!!
cow is prone to mycobacterium tuberculi ....may b infected vd a strain of tuberculosis...,so d cow's milk may not b safe for us now.
ReplyDeleteBut this is not true vd d Indian cows as theirs milk quality is different from those of d hybrid cows.Both r of different species.
ReplyDeleteOn d other hand,present production of d milk is not sufficient,there is a need of more milk so we need not to controll d generation of d cows.