31 जुलाई को किशनपुर वन्य जीव विहार में आइरन क्लैम्प में फ़ंसे हुए तेन्दुए को दुधवा प्रशासन ने इलाज के बाद एक अगस्त की रात में तेन्दुए को जंगल में छोड़ दिया गया। ज्ञात हो कि तेन्दुए को ग्रामीणों की सूचना पर रेस्क्य़ू किया गया था, जिससे वह शिकारियों के चंगुल से तो निकाल लिया गया, पर उसका अगला बायाँ पैर बुरी तरह से छतिग्रस्त हो चुका था।
31 जुलाई और एक अगस्त की रात लगभग एक-दो बजे उसे जंगल में छोड़ा गया! इस अन्तराल में उसका इलाज ड्ब्ल्य़ु टी आई (WTI) के डाक्टर व स्थानीय पशु-चिकित्सकों से कराया गया, गौर तलब हो कि दुधवा में कोई चिकित्सीय संसाधन नही है और न ही कोई वाइल्ड लाइफ़ एक्सपर्ट है जिसे वन्य-जीवों के इलाज का अनुभव हो! ऐसे हालात में वन्य-जीव प्रेमियों द्वारा कई सवाल खड़े किए जा रहे हैं, कि आखिर घायल तेन्दुए को इतना जल्दी क्यों छोड़ा गया?, बिना एक्स-रे के कैसे इस बात के लिए मुतमईन हो गये कि तेन्दुए के पैर में कोई फ़्रैक्चर नही है? बरसात के मौसम में जब जल-भराव के कारण संक्रामक रोगों की अत्यधिक संभावनायें होती है, जिसमें तेन्दुए के जख्म न भरने की आंशकायें बढ़ जाती हैं! कुछ ही घंटों के इलाज के बाद घायल तेन्दुए को रात के अंधेरे में चुपचाप जंगल में छोड़ा जाना, वन्य जीव प्रेमियों के लिए तमाम शंकायें छोड़ गया!
उपरोक्त सन्दर्भ में दुधवा टाइगर रिजर्व के पूर्व फ़ील्ड डाइरेक्टर जी सी मिश्र ने दुधवा लाइव को बताया कि वो इस बात से आश्वस्त हो सकते हैं, कि WTI के डॉक्टर वहां मौजूद थे, जाहिर है, उन्होंने तेन्दुए को तभी रिलीज किया होगा, जब वह पूर्ण रूप से तेन्दुए के जंगल में स्वस्थ हो जाने की संभावने देख चुके होगें। साथ ही श्री मिश्र ने बताया कि तेन्दुआ जैसे जंगली जीव को यदि पिजंड़े में या जू में कई दिनों तक रखा जाता, तो उससे उसमें मानव के प्रति भय समाप्त होने की प्रबल आंशका रहती है, जिससे यह जीव छोड़े जाने पर मानव जाति के लिए खतरा बन सकता है। घायल तेन्दुए में संक्रामक रोगों की आंशका पर जी सी मिश्र ने कहा कि जानवर प्रकृति प्रदत्त वृत्तियों के चलते अपनी बीमारियों से लड़ने और उनसे बचाव की क्षमता रखते हैं, लिहाजा तेन्दुए के सरवाइवल पर उन्होंने कई उदारहण दिए, जैसे बाघ और तेन्दुओं के घाव हो जाने पर वह उस हिस्से को पानी और कीचड़ के संपर्क में लाते है, ताकि मिट्टी से वह घाव ढक जाये और मक्खियां और अन्य संक्रामक जीव उस जगह को संक्रमित न कर पायें। बाघों और कुत्तों आदि में पेट में समस्या होने पर अक्सर उन्हे घास खाते देख गया है। यही सब वजहे है जो इन जीवों को जंगल में विपरीत परिस्थितियों में जीने में मदद करती हैं।
प्रकृति प्रदत्त प्रवृत्तियों (Instincts) पर मानव जनित कारणों से घायल वन्य जीव को उसके हाल पर छोड़ना कितना उचित होगा! यह एक सवाल कई सवालों को जन्म देता है? घायल तेन्दुआ क्या अपना प्राकृतिक शिकार करने में सक्षम होगा? क्या वह घायल अवस्था में आसान शिकार यानी मानव या मवेशियों की तरफ़ आकर्षित नही होगा? क्या घायल तेन्दुआ शिकारियों के लिए आसन शिकार नही बन जायेगा? इन सब सवालों का एक जबाव हो सकता है कि उसे मॉनीटर किया जाय! ताकि उसकी सुरक्षा के साथ-साथ तेन्दुए कि हर गतिविधि पर नज़र रखी जा सके, और जरूरत पड़ने पर उस वन्य जीव की चिकित्सिकीय या अन्य मदद की जा सके।
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