जो जीवन में एक बार खिलता है!
बाँस के 1500 उपयोग-
गरीबों का टिम्बर कहा जाने वाला बांस जिसका हमारी ग्रामण अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान है। जो बढ़ती मानव आबादी, व लगातार दोहन के कारण प्राकृतिक रूप से नष्ट होता जा रहा है। एक वक्त था कि प्रत्येक गांव में कई तरह के बांसों की झाड़ियां होती थी। बांस के लगभग 1500 उपयोग लिखित रूप से दर्ज है। किन्तु अब इनके सीमित व बुनियादी जरूरतों वाले कुछ मुख्य उपयोग बचे हुए हैं। जैसे ग्रामीण अपना घर बनाने में, कृषि यन्त्र बनाने के अलावा रोजमर्रा की जिन्दगी में न जाने कितने प्रकार से बांस को उपयोग में लाते रहे हैं। बांस के बने हैंडीक्राफ़्ट की चीजों का व्यापार कुटीर उद्योग की शक्ल ले चुका था, पर अब धरती के लिये जहर जैसा प्रभाव डालने वाली प्लास्टिक के आ जाने से, ये छोटे व पर्यावरण के लिये उत्तम उद्योग चौपट हो चुके हैं।
बाँस की रंग-बिरंगी लाठियां-
उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में झंकरा बांस की लाठिया तो इतनी लोकप्रिय रही कि आज भी गाँव-जेवार में लगने वाले मेलों में आप को तेल पिलाई हुई प्राकृतिक रंगों द्वारा विभिन्न तरह के रेखाचित्रों से सुसज्जित लाठिया बिकती हुई देख सकते हैं।
भारत में बाँस की स्थिति-
बांस के मामले में भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य के जंगल पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। भारत में बांस के वन 10 मिलियन भूमि को आच्छादित किये हुए हैं, जो हमारे देश के कुल वन क्षेत्रफ़ल का 13 प्रतिशत है, इनमें से 28 प्रतिशत बांस के वन उत्तर-पूर्वी राज्यों में मौजूद हैं। बांस पूरे भारतवर्ष में हर जगह प्राकृतिक रूप से पाया जाता हैं, इसकी मुख्य वजह है, कि कम पानी व कम उपजाऊ भूमि में यह आसानी से उग आता है। बांस की पृथ्वी पर पाई जाने वाली कुल 1250 प्रजातियों में से भारत में 145 प्रजातियां पाई जाती हैं। लेकिन अब भारत में उत्तर-पूर्वी राज्यों को छोड़कर अन्य जगहों पर बांस की प्रजातियों का विलुप्तीकरण शुरू हो गया है, उत्तर प्रदेश में यह दर सबसे अधिक है! जबकि बांस कृषि क्षेत्र की बड़ी समस्याओं से निपतने मेम सक्षम हैं, जैसे जानवरों द्वारा अन्य फ़सलों को नष्ट किया जाना, अत्यधिक रोगों का लगना जो उत्पादन को अत्यधिक कम कर देता है, पानी की कमी, आदि समस्याओं से बांस की खेती करके छुटकारा पाया जा सकता है। सूखी व परती भूमि पर बांस की खेती की जा सकती है, और बांस की विस्तारित जड़े मृदा अपरदन को भी रोकती हैं, इस प्रकार बांस भूमि सरंक्षण में भी सहायक है। बांस की शूट का उपयोग भोजन के रूप में, व तनें में इकठ्ठा पानी अचार के रूप में भी उपयोग किया जाता है।
बाँस की खेती-किसानों के लिए, पर्यावरण व भूमि सरंक्षण में मुफ़ीद-
बांस की बिना कांटेदार, उन्नत प्रजातियां शोध संस्थानों में मौजूद हैं, जहां से किसान इन्हे प्राप्त कर सकते हैं। बांस दुनिया की सबसे लम्बी घास हैं, इसकी लम्बाई एक दिन में एक फ़ीट तक बढ़ सकती है, और बांस का एक तना 30 दिनों में अपनी पूरी लम्बाई प्राप्त कर लेता है। लेकिन बांस के पूर्ण परिपक्वन में 4 से 5 वर्ष लग जाते हैं। यह ग्रेमिनी कुल से है, और इसी कुल में दूब घास व गन्ना, गेहूं जैसी प्रजातिया शामिल हैं, संयुक्त जोड़दार तना इसकी मुख्य पहचान है! किसानों के अतरिक्त सरकार भी ग्राम सभा व अन्य परती भूमियों पर विदेशी व हमारे पर्यारण के लिये नुकसानदायक प्रजातियों यूकेलिप्टस, पापुलर आदि के बजाए बांस का उत्पादन करा सकती है! जिससे रेवन्यू में बढ़ोत्तरी के अतिरिक्त हमारे पर्यावरण को बहुत फ़ायदा पहुंचेगा।
जीवन में एक बार ही खिलता हैं बाँस-
बांस में फ़ूल आना अकाल का सूचक माना जाता रहा है, और बांस में पुष्पन अभी भी रहस्य बना हुआ है! क्योंकि बांस में फ़ूल आने की कोई निश्चित समयावधि नही होती, पारम्परिक ज्ञान व वैज्ञानिक शोधों से जो तथ्य सामने आये हैं, उनमें बांस की विभिन्न प्रजातियों में विभिन्न समयान्तराल में फ़ूल आते हैं, और यह समयावधि 40 से लेकर 90 वर्ष तक की हो सकती है।
बाँस के बीज में टाइम मशीन-
जब बांस फ़ूल देना आरम्भ करता है, तो उसकी पूरी की पूरी समष्टि में एक साथ पुष्पन होता है, फ़िर चाहे उस बीज से उगाया गया बांस अमेरिका में हो या बांग्लादेश में! लगता है जैसे प्रकृति ने इन बीजों में टाइम मशीन लगा दी हो..एक साथ फ़ूल खिलने की!
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बाँस का खिलना उसके नष्ट होने की निशानी है, तो दुर्भिक्षता की सूचक भी-
बांस खिलने के बाद नष्ट होना शुरू हो जाता है, और इन फ़ूलों में बने बीज जो बहुत पौह्टिक होते हैं, चूहों के लिये सर्वोत्तम आहार है, नतीजतन चूहों की संख्या में अचानक वृद्धि होती है, बांस के पौष्टिक बीज उनकी प्रजनन क्षमता को बढ़ा देते है! किन्तु जब ये बांस नष्ट हो जाते हैं तो यह चूहों की फ़ौज गाँवों की तरफ़ रूख करती है, नतीजा यह होता है, कि किसान की फ़सलों से लेकर घरों में इकठ्ठा अनाज ये चूहे चट करने लगते हैं। साथ ही इन चूहों द्वारा तमाम तरह की बीमारियां भी मानव घरों तक पहुंचती हैं। ऐसे हालात इन इलाकों में अकाल व दुर्भक्षिता के दिन आ जाते हैं।
बाँस मिजों आन्दोलन का कारण बना-
सन 1959-60 में ऐसे हालात मिंजों जनपद में पैदा हुए थे। आज का मिजोरम तब आसाम प्रदेश का एक जनपद हुआ करता था। चूंकि मिजोरम बांस का सबसे अधिक उत्पादन वाला क्षेत्र था, इसके अतीत में बांस फ़ूलने से अकाल पड़ जाने की कई घटनायें हुई, इस लिए सन 1958 में जब बांस फ़ूलना शुरू हुआ तो पूर्वानुमान व दुर्भक्षिता से बचने के लिये मिजो लोगों ने असम सरकार से 15 लाख रूपयों की मांग की, लेकिन असम सरकार ने यह कहकर मना कर दिया कि भविष्यवाणी व अवैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर वे सहायता नही दे सकते और संकट में इस उपेक्षा से मिजो जनपद के लोगों ने "मिजो नेशनल फ़ेमाइन फ़्रन्ट की स्थापना कर जनपद वासियों के लिये सहायता का प्रबन्ध किया, फ़िर यही MNFF राजनैतिक संगठन के तौर पर नये नाम मिजो नेशनल फ़्रन्ट के नाम से जाना गया।
यहीं से मिजो में अवमानना व अलगाववाद की भावना भड़क उठी। जिसे बुझने में बीस बरस लग गये! 1 मार्च 1966 को एम०एन०एफ़० ने भारत सरकार से सन्धि कर ली और 20 फ़रवरी 1987 को मिजो जनपद मिजोरम राज्य के रूप में इण्डियन यूनियन का 23वाँ प्रदेश घोषित हुआ।
2003-04 में खीरी जनपद में बाँस में खिले फ़ूल-
उत्तर भारत में बांस की इतनी तादाद नही है कि बांस खिलने से अकाल की स्थिति आ जाये, किन्तु यहां भी बांस फ़ूलने को अपशगुन माना जाता है। और बारिश न होना, सूखा पड़ जानें जैसी भ्रान्तियां प्रचलित हैं! उत्तर प्रदेश के खीरी जनपद में अप्रैल 2003 में पुष्पन हुआ था और यह प्रक्रिया 2004 तक जारी रही। जिससे यहां के सारे बांसों के समूह नष्ट हो गये, जिनमें पुष्पन हुआ था। इसी के साथ बांस की तमाम देशी प्रजातियां नष्ट हो गयी। खीरी में राजा लोने सिंह मार्ग पर बबौना गांव के समीप स्थित 60-70 वर्ष पुराना बांस का झुरूमुट पुष्पित हुआ, वहीं पदमभूषण बिली अर्जन सिंह के फ़ार्म टाइगर हैवेन में लगे नवीन बांस जिसकी लम्बाई चार-पांच गीट तक थी, में फ़ूल आ गये थे..ये है बीजों की टाइम मशीन...यह दोनों जगह के बांसों का जेनेटिक रिस्ता है!
बाँस में फ़ूल आने की इतनी अधिक लम्बी अवधि के कारण, कहा जाता है! कि आदमी अपने जीवन काल में एक ही बार बांस का फ़ूलना देख पाता है!
कृष्ण कुमार मिश्र* ( लेखक वन्य जीवन सरंक्षण, पारंपरिक ज्ञान, और अतीत(इति) के मामलों में अखबारों, पत्रिकाओं, और ब्लाग जगत में कुछ न कुछ बूकते रहते हैं, साथ ही पर्यावरण सरंक्षण में आन्दोलनी विचार धारा के प्रवाह के लिए भागीरथी प्रयास का अनुपालन करने की कोशिश!, लखीमपुर खीरी के मैनहन गाँव में निवास, इनसे krishna.manhan@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं)
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Photo: 2- Photo by Steve Webel via Flickr
beautiful article!
ReplyDeleteand flowers!
wonderful way to start a week!!!