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दिल्ली के सियासी गलियारों से अनेकों प्रकाशवर्ष की दूरी पर एक ऐसी दुनिया है जो बाहरी दुनिया और उसके विकास के सिद्धांत से अनछुई है । उस जगह का नाम है अबूझमाड़ । जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है अबूझ मतलब जिसको बूझना संभव ना हो और माड़ मायने गहरी घाटिया और पहाड़ । यह एक अत्यंत ही दुर्गम इलाका है ।
अबूझमाड़ छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में स्थित है । इसका कुछ हिस्सा महाराष्ट्र और आन्ध्रप्रदेश मे है । यदि आप गुगल मैप खोलेंगे तो आप को करीब ५००० किलोमीटर का एक ऐसा इलाका नजर आयेगा जिसमे कोई सड़्क नही है । यहां करीब २०० ऐसे गांव है जिनकी जगह बदलती रहती है क्योंकि यहां रहने वाले माड़िया आदिवासी जगह बदल बदल कर बेरवा पद्धती से खेती करते हैं
देश मे विलुप्त होते बाघो के लिये यह इलाका अत्यंत महत्वपूर्ण है । यह देश के ६ प्रमुख बाघ आश्रय स्थलो इन्द्रावती , नल्लामल्ला , कान्हा , नागझीरा ,ताडोबा और उदन्ती सीतानदी राष्ट्रीय उद्यान से जंगलो के द्वारा संपर्क मे है ।
अबूझमाड़ और इसके निवासी आज तक अपने आदिकालीन स्वरूप मे है। लेकिन चूंकि यहां रहने वाले माड़िया आदिवासी बाहरी लोगों से संपर्क रखना पसंद नही करते इस कारण अभी तक यहां पायी जाने वाली पेड़ पौधों और वन्य प्राणियो की संख्या और प्रकार के बारे में हमें सही जानकारी नही है । और यहां के बाघों की गणना भी नही हुई है । इसकी सीमा पर रहने वाले व्यापारियों जो इनसे आज भी तेल और नमक का वनोंपज के साथ विनिमय करते है। कुछ आदिवासियों से जो मुझे जानकारी मिली उसके अनुसार यहा बाघ वनभैंसा गौर सांभर चौसिंगा इत्यादि प्रचुर मात्रा में है । लेकिन पहाड़ी इलाका होने के कारण यहां चीतलों की संख्या कम है । अन्य भी कुछ जानवरों के नाम बताये गये लेकिन वे स्थानीय बोली मे होने के कारण और उनकी तस्वीर ना होने के कारण समझना असंभव था ।
सबसे बडी बात यह है कि यहां कभी वनों की कटाई नही हुई और मध्य भारत में यह एकमात्र ऐसी जगह है जहां हम हमारे मूल जंगलो मे पाई जाने वाली वनस्पतियों और वन्य प्राणियों जो जंगलों की कटाई कर उनका कोयला बना कर वहां सागौन नीलगिरी साल इत्यादि का रोपण करने के कारण विलुप्त हो चुके है का अध्ययन करने का सुनहरा अवसर मिल सकता है । और यह इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दक्षिण भारत की अनेक नदियों का जलग्रहण क्षेत्र है ।
लेकिन अब इस सुरम्य अनगढ़ वनक्षेत्र पर विनाश के बादल मंडराने लगे है । इस दुर्गम भौगोलिक क्षेत्र पर नक्सलवादियो ने अपना कब्जा जमा लिया है । और इसे मुक्त नक्सल क्षेत्र घोषित कर यहां अपना मुख्यालय बना लिया है । जहां आज तक कोई सरकारी कर्मचारी गया ही नही वहां न जाने किस अत्याचार की दुहाई देकर इन्होने तीर कमान वाले आदिवासियो के हाथो मे बंदूक थमा दी है ।
बात इतने पर ही खत्म नही होती एक नया ऐसा संकट भी आ चुका है जिसके सामने यह कुछ भी नही । प्राकृतिक वनों का यह अखिरी गढ़ आज तक इसलिये बचा हुआ था क्योंकि इस जगह से राजनीतिज्ञों और व्यापारियों को लाभ हानि की कोइ उम्मीद नही थी । पर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती । हाल ही में इसरो के द्वारा उपग्रहो की मदद से अबूझमाड़ का भौगोलिक और खनिजीय नक्शा तैयार कर लिया है । और जैसा कि भारतीय परंपरा मे दशकों से होता आया है यह सारी जानकारी सरकारी बाबुओं ने नेताओ और उद्योगपतियों तक पहुचां दी है और शुरु हो चुका है दिल्ली में बैठे अबूझमाड़ की खदानों का नाप जोख और बटंवारा और कोई आश्चर्य नही यदि यह संपन्न भी हो चुका हो ।
आज के इस दौर मे जहां चांद की जमीने भी खरीदी बेची जा रही है अबूझमाड़ तो भारत में ही है । एक सुनी सुनाई बात यह भी है कि आपरेशन ग्रीन हंट अबूझमाड़ की अरबों खरबों की दौलत पर कब्जा करने के लिये ही शुरू किया गया है । एक भारतीय होने के नाते इस बात पर मेरा दिल इसे सच नही मानता पर यदि इस दिशा में सोचा जाय तो जब रेड्डी बंधु महज कुछ हजार एकड़ की खदानों से कर्नाटक सरकार को बंधुआ मजदूर बना सकते है तो अबूझमाड़ की ५००० वर्ग किलोमीटर खदानों के लिये क्या कुछ संभव नही ।
लोकतंत्र में जनता सरकार बदलती है लेकिन भारत में हमारी सरकार ने जनता बदलने का फ़ैसला ले लिया है उन्हे आदिवासी नही खदान मजदूर जनता चाहिये । आखिर आदिवासियों का अर्थव्यवस्था में क्या योगदान है ये मुए तो खाली नमक लेकर अपना जीवन खुशी खुशी व्यतीत कर लेते है ।
अबूझमाड़ का किला ढहना तो तय है! आदिवासी नक्सली या तो पकड़े जायेंगे या मारे जायेंगे और कस्बाई और महानगरीय नक्सली बिक जायेंगे और रही बात हमारे जवानों की तो उनके मरने के बाद उनको सैल्यूट करने और घड़ियाली आंसू बहाने में हमारे नेता तो पहले से माहिर है । बाकी बचे खदानपति तो उन्हें पहले से पता है, कि इंतजार का फ़ल हरदम मीठा होता है ।
और रही बात मेरी मैं तो सरकार से इतनी ही गुजारिश करूंगा कि कम से कम ५ गांव जितना जंगल छोड़ दे ताकी हमारे नेता वहां पांचसितारा होटल खोल सके और भारत की आने वाली पीढी अपनी धरती के मूल प्राकृतिक जंगलो को निहार सके ।
अरुणेश सी दवे* (लेखक छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहते है, पेशे से प्लाईवुड व्यवसायी है, प्लाई वुड टेक्नालोजी में इंडियन रिसर्च इंस्टीट्यूट से डिप्लोमा।वन्य् जीवों व जंगलों से लगाव है, स्वतंत्रता सेनानी परिवार से ताल्लुक, मूलत: गाँधी और जिन्ना की सरजमीं से संबध रखते हैं। सामाजिक सरोकार के प्रति सजगता, इनसे aruneshd3@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)
मित्र घोटुल परंपरा जो रहस्यमय व विश्वविख्यात है, उसके बारे कुछ प्रकाश डाले, साथ ही अबूझ्मड़िया संप्रदाय के बारे में भी बतायें, क्योंकि परंपरा और जाति के विवरण के बिना किसी स्थान या लोगों के बारे में कुछ जान पाना मुश्किल ही होता है!
ReplyDeleteविचारोत्तेजक लेख
ReplyDeletethey are so beautiful ... but ..
ReplyDeletethe guns .... oh
nooooooooooooooooooooo
good one...
ReplyDeleteI really wonder when the nature would seen something to conserve than to exploit for individual gains.. wake up India..
ReplyDeletean eye opener on the role of the government and operation green hunt
ReplyDeleteसुंदर जानकारी
ReplyDeleteधन्यवाद
aroonesh ji!! abhinandan!!!! is lekh k liya aapka pichhale dino main rajgopal ji ki yaatra meni thi tab bhi aur baghelkhand mein umaria(m.p.) k ilaake mein main kaam karti thi tab bhi main edkh chuki hoon aur bheetar tak mehsoos kar chuki hoon hamare vanvaasi bhaiyon ki pidaa ko!!! jal,jangal zameen unhi k nhi rhe jinke kaaran wo tike hue the.... loktantra mein logon ke vajood ko sire se mitaa diya gaya hai......sarkaari vikaas ki avdhaarnaaein to logon k astitva ko hi khatm kar rhi hein.... tabhi kahin chhatisgarh ka sawaal hai to kahinabujamaad ka par mujhe lagta hai hum sabko jinhe samajh mein aata hai unki zimmedaari zyada hai...... shukriya bahut bahut!!!!
ReplyDeleteThank for information sir..
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