कभी इन वन-ग्रामों में रहने वाली महिलाओं के अंगों पर प्राकृतिक रंगों व पुष्पों से बने आभूषण सुसज्जित होते थे जो कालान्तर में धातुओं में और फ़िर प्लास्टिक में तब्दील होते चले गये-अतीत की इसी कथा-व्यथा का जिक्र इस लेख में है, बदलता परिवेश हमारी जीवन शैली, विचारधाराओं, संस्कृति, और परंपराओं को ध्वस्त कर अपनी नवीन छाप छोड़ रहा है, और हम अपने उस अतीत को संजोनें में भी अक्षम ही प्रतीत हो रहे है!, नतीजतन हमारी एतिहासिकता पर दूसरों की छाप ने हमारी असलियत को ही परदानशीं करने की कामयाब कोशिश की है, जो जारी है..........
दरसल हम जिस भारतीय ज्वैलरी को जानते है, वह असल में हमारी नही है, प्रदर्शनियों, और संग्रहालयों में सुसज्जित जेवरात मुगल शैली के है, जो पूर्व से आये खानाबदोशों, आक्रमणकारियों और लुटेरों द्वारा भारत वर्ष की धरती पर दाखिल हुई। और हमारी चीजो से मिलकर परिवर्धित, इसका एक पुख्ता सबूत यह है, कि भारत की प्राचीन से प्राचीन सभ्यताओं में किसी भी मूर्ति कों देखे तो उसमें नाक में कोई आभूषण नही मिलेगा, जबकि कान यानी कर्ण में विविध प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित होगी ये मूर्तिया!
मनुष्य से जुड़ी हुई सारी चीजें गवाह होती हैं, मानवता के विकास की। वह चाहे बात-चीत की शैली हो या पहनावा। हर बात का इतिहासकारों के लिए खास महत्व होता है, आभूषणों के महत्व को भी इस लिहाज से नकारा नही जा सकता। ऐसी ही इतिहासकार है, जर्मनी की डा० वालट्राउड, आप का इस शोधकार्य में जुटने की वजह भी काफ़ी दिलचस्प है! द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद जर्मनी में जो बर्बादी हुई, उसकी भरपाई के लिए जर्मनों ने संग्राहलयों का निर्माण शुरू किया, ताकि उनके बीते इतिहास की यादें हमेशा सुरखित रह सकें। इस बीच तमाम लोगों ने अपनी एतिहासिक व बेशकीमती वस्तुओं को संग्रहालय में दान किया। यह सब देखकर डा० वालट्राउड ने एतिहासिक चीजों का संग्रह करना शुरू ए कर दिया, खासतौर से कान में पहने जाने वाले आभूषणों का। इसी दौरान उनका अपने भारतीय मूल के पति के साथ भारत आना हुआ, तो उन्हें यहाँ की प्राचीन मूर्तियों के कान के आभूषणों ने अत्यधिक आकर्षित किया और तभी से उन्होंने भारतीय कर्ण-आभूषणों पर अपना शोध केन्द्रित कर दिया। आज उनके व्यक्तिगत संग्रहालय में 400 से अधिक कर्ण-आभूषण हैं। जो भिन्न-भिन्न आकृतियों व धातुओं द्वारा निर्मित हैं।
जर्मन महिला का भारतीय कर्ण आभूषणों पर शोध:
लगभग आठ वर्षों तक वह भारत के विभिन्न प्रदेशों में रहने वाली आदिम जातियों के कर्ण आभूषणों का अध्ययन व संग्रहण करने के बाद वह खीरी जनपद के दुधवा टाइगर रिजर्व के जंगलों में रहने वाली थारू जनजाति के आभूषणों का अध्ययन करने आई। थारू ट्राइब की संस्कृति व आभूषणों का अपना खासा एतिहासिक महत्व है।
भारतीय संस्कृति में आभूषणों की परंपरा का अध्ययन करने वाली प्रथम महिला मिस कोनार्क है, इस ब्रिटिश महिला ने 1878 ई० में इस तरह का अध्ययन कर उनका दस्तावेज तैयार किया।
डा० वालट्राउड से जब मेरा वार्तालाप दुधवा के जंगलों में रहने वाली थारू जनजाति के सन्दर्भ में हुआ, तो उन्होनें यहाँ की संस्कृति व आभूषणों को देखने की इच्छा जाहिर की, वन्य-जीवों पर मेरे शोध कार्य से इतर यह अध्ययन मुझे इस लिए प्रिय था क्योंकि अतीत के प्रति मेरा अगाध प्रेम जो गाहे-बगाहे मेरे लेखों में परिलक्षित होता रहता है, मेरा नज़रिया ये था कि इस महिला से मैं दुधवा में रहने वाले लोगों की संस्कृति को एक अलग नज़रिये से देख पाऊँगा- एक जर्मन महिला की नज़र से! इसी दौरान दुधवा टाइगर रिजर्व के तत्कालीन उप-निदेशक पी०पी० सिंह से मैने इस बावत बात की, तो उन्होंने डा० वाल्ट्राउड को एक बेशकीमती व अदभुत उपहार भेट किया- "प्राचीन सिक्कों से जड़ा हुआ ब्लाउज" जिसमें आना से लेकर पचास पैसे तक के सिक्के गुंथे हुए थे, जो भारत की विभिन्न शासन सत्ताओं के गवाह थे। वह जर्मन महिला अवाक सी उस आभूषण को देखती रह गयी थी! और उसके अनमोल होने का मूल्य वह जान रही थीं, जो कि उनकी हिचकिचाहट में जाहिर हो रहा था। वह कृतज्ञता के भाव से सरोबार थीं!
दुधवा में थारू जनजाति और उनके आभूषण:
दुधवा के जंगलों में बसे आदिवासी गाँवों में सुरमा, पोया, मौरा, मुड़नोचनी प्रमुख है। इन गाँवों में अभी भी वन संस्कृति मौजूद है। महिलायें रंग-बिरंगे चोली घांघरा पहनती हैं, जो बहुत ही कलात्मक व जड़ाऊँ होते हैं। इन पर कसीदाकारी, शीशे की जड़ाई, बड़ी जटिल होती है। इनके यहाँ दुपट्टे के एक छोर पर रंग बिरंगी ऊन का एक टुकड़ा जोड़ दिया जाता है, जिसे ऊनिया कहते हैं। इसको थारू महिलायें एक विशेष अन्दाज से ओढ़ती हैं। ब्लाउज को अंगिया व घेंघरा को घेंघरिया कहा जाता है।
कानों में विभिन्न प्रकार के कर्ण आभूषण होते हैं। जिनमें झिबझिबी, चोंगला, झुमका, तरकी आदि हैं। यह आभूषण सोने, चांदी व गीलट की धातुओं के बने होते हैं।
बीर, गरैला, व झिमिली महिलाओं के सिर की सज्जा के प्रमुख आभूषण है, बीर नेपाली शब्द है, जिसका तात्पर्य होता है पुष्प की तरह का आभूषण जो कानों में पहना जाता है। बीर और गरैला जो कि एक चेन द्वारा सिरबिन्दी से जुड़ा होता है, इस प्रकार इन तीनों आभूषणों के पहनने पर सिर का पूर्ण श्रंगार माना जाता हैं।
बीर, गरैला, व झिमिली महिलाओं के सिर की सज्जा के प्रमुख आभूषण है, बीर नेपाली शब्द है, जिसका तात्पर्य होता है पुष्प की तरह का आभूषण जो कानों में पहना जाता है। बीर और गरैला जो कि एक चेन द्वारा सिरबिन्दी से जुड़ा होता है, इस प्रकार इन तीनों आभूषणों के पहनने पर सिर का पूर्ण श्रंगार माना जाता हैं।
पैरों में ये अजीब से आभूषण पहनती हैं, जिसमें, झुन्नी व पैड़ा प्रमुख है। ये आभूषण टांगों का लगभग पूरा निचला हिस्सा ढक लेता है। इसका ऊपरी भाग झुन्नी व निचला भाग पैडा कहलाता है। जो कि आपस में जुड़ा रहता है। चूंकि थारू नेपाल व भारत दोंनों देशों में रहते है, इसलिए इन लोगों की जीवन शैली और वेशभूषा भिन्न भिन्न संस्कृतियों के बावजूद काफ़ी मिलती जुलती है। नेपाली थारू महिलाओं व भारतीय थारू महिलाओं के कर्ण आभूषणों में कोई खास बदलाव नही है।
दुधवा के जंगलों में थारू जनजाति:
दुधवा की थारू जाति कई उपजातियों में विभाजित है। जिसमें तीन वर्ग राना, कठेरिया, डंगरिया प्रमुख हैं, रावत, खुफ़ा, रजिया, सक्सा, जजिया और बुक्शा जातियां हैं। डंगौरिया जाति के लोग नेपाल में अधिक रहते है, जो अपने को चौधरी बताते है, भारतीय थारू इन्हे निम्न कोटि का मानते है। इनके मध्य वैवाहिक संबध नही होते। दरअसल थारू जनजाति अपने को राजस्थानी राजपूतों का वंशज बताती है, और मुगल शासन के दौरान विस्थापित होने के कारण से तराई के जंगलों में नैनीताल से बिहार के चंपारन तक ये लोग आकर बस गये, महिलाओं की अधिकता थी, बाद में इन महिलाओं ने अपने खिचमिचदारों से वैवाहिक संबध बनाये, पर इसके बावजूद इन्होंने पुरूषों का आधिपत्य स्वीकार नही किया। शायद इसी लिए आप को अधिकांशत: थारू समुदाय में महिला प्रधान समाज मिलेगा। राजस्थान को अपनी वास्तविक पितृ भूमि बताने वाले इस समुदाय के पास वहाँ से जुड़े होने का कोई ठोस सबूत नही है, बजाय इनके रंग-बिरंगे पहनावें के जिसमें घेघरा-चोली प्रमुख हैं। परन्तु इनकी शारीरिक बनावट से ये मंगोलों से अधिक जुड़े लगते है। चूंकि चीन व नेपाल में मंगोलों की अधिकता है, और 2000 वर्ष पूर्व से कुषाण जो मूल रूप से मंगोल थे, ने भारत के इन भू-भागों पर तीन सौ वर्षों तक निर्बाध रूप से शासन किया। उनके शासन के विनाश के बावजूद उत्तर भारत की तराई में बहुत से कुषाण (मंगोल) बस गये थे इसलिए ये संभावनायें प्रबल हो जाती है, कि ये आनुवंशिक तौर पर मंगोलियाई हैं।
अन्य जंगली जातियां:
पहले उत्तर प्रदेश के खीरी जनपद में थारूओं के अतिरिक्त अन्य बर्बर जातियाँ भी रहती थी, जो आज बिलुप्त हो चुकी हैं। इनमें सांसिया, हबूड़ा, गोरखा, कंजर, खांगर, बंजारा आदि, ये लोग या तो धर्म परिवर्तित कर चुके हैं, या फ़िर जंगलों से निकल कर समाज की मुख्य धारा से जुड़ गये। जंगलों में मानव इतिहास के अतीत का कोई हिस्सा बाकी है, तो इन थारूओ में जो कुछ वर्षों बाद यहाँ से भी विलुप्त हो जायेगा। इसलिए इनकी संस्कृति, बोली, आभूषणों व इनके पारंपरिक ज्ञान को रिकार्ड किया जाए, ताकि यह अतुल्य ज्ञान का खजाना हमारी अगली पीढ़ियों तक पहुंच सके और वह भी हमारे द्वारा, न कि किसी विदेशी संग्रहालय या विदेशी लेखक की किताब में, क्योंकि आजादी की बाद अब हमारे पास यह कह कर बच निकलने की कोई गुंजाइश नही बचती कि हम.........और यह नही कर सकते थे।
एक्यूपंचर चिकित्सा पद्धति भी थी भारतीय:
सच्चाई तो यह है, कि एक्यूपंचर जैसी प्राचीन चिकित्सा भी हमारे भारत की ही देन है, जो इन थारू महिलाओं के द्वारा शरीर गुदवाने, नाक-कान छिदवाने व शरीर पर ऐसे आभूषणों को धारण करना जो शरीर के विशेष अंगों पर दबाव डालते हों। यह सब एक्यूपंचर के ही रूप है, मगर अफ़सोस इस पद्धति को चीन ने अधिग्रहीत कर रखा है।
दुधवा के वनों में मौजूद थारू संस्कृति को, इनकी भाषा को और इनके पारंपरिक ज्ञान जिसमें औषधीय और वन्य-जीवों के व्यवहार का सदियों पुराना इनका अनुभव, वन्य जीवन और वनों के महत्व को समझने में मददगार होगा और शोध के नवीन रास्ते भी देगा।
बहुत रोचक जानकारी.... ऐसी कितनी सारी छोटी-बड़ी जानकारियों हमारे आसपास के माहौल में बिखरी पड़ी है.. लेकिन हमारा ध्यान उसपर नहीं जाता...आपका काम सराहनीय।
ReplyDeleteजानकारियों से भरे लेख के लिए हृदय से आभार । उत्तराखंड के बनने के बाद उ.प्र.की जनगणना में अनुसूचित जनजाति की आबादी शून्य है । थारू लोगों की गिनती आपके जिले में बतौर जनजाति न होगी ।
ReplyDeleteAflaatoon ji, Tharu, Lakhimpur mein ST mein hi aati hai...shayad isiliye Lakhimpur UP ka shayad sabse bada ST population ka district hai...
ReplyDeleteRefer to www.tigerlink.org
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा जानकारी से परिपूर्ण लेख है भाईसाहब ..
ReplyDeletenice
ReplyDeleteGAGER ME SAGER SIR
ReplyDeleteआपका काम बहुत ही सराहनीय है ...........................
ReplyDeletegood work and very good information.
ReplyDeleteDear Mishraji,
ReplyDeleteVery nice and thought provoking article.History has always been my interest.Preservation of cultural history is definitely a good idea, but by the time we are enabled with the required capacity , we would have lost some more bits of cultural history.
The main requirement for this noble task would be
1. to form an effective organisation to achieve this goal. and
2. to have a sufficient source of money.
I think the first requirement is more difficult to be fulfilled.
Let us hope to see that day.
The arts of India are among the greatest aesthetic achievements of mankind ...
ReplyDeleteas roulers and patrons of foreign origin have come and gone, its artists have readily accepted outside influences, but the deeper roots of indigenous traditions have persisted too, and the dialogue continues to enrich this still-vital art ....
krishna ji
ReplyDeletevery good article here
and because that photo...
i wanna add
some words to the women.workers..
"i will grow my hair long as a falling river.
When i die thats all I'll take with me.
No authority and no property.
Even newly hatched chickens claw at her.
and
the kurmi women's interest in the welfare of the crop was expressed in the following manner:
ek pan jo barse swati
kurmi pahire sore ke pati
(with the first shower in Swati, the Kurmi woman wears rings of gold.)