चारू "चंचल"*
अपने अब्बा के-
आँगन में
मैंने
देखी हैं
अपने खड़िए से-
स्लेट पर
मैंने
उतारी है
गौरैया
अपने दृष्टिपट के-
संघर्षों में
मैंने
खोजी है
गौरैया
और तो और
अपने भविष्य की-
कोरी संवेदना में
मैंने
उभारी है
गौरैया
इस तृष्णा के साथ कि-
शायद
शायद
बचपन से उतारकर
संघर्षों के बाद उभारी गई
जिंदगी
जिंदा रहे
सिर्फ़-
स्मरण
शब्द
खोज या
परिचय बनकर नही
बल्कि
बनकर
फ़ुदकती हुई
गौरैया
गौरैया।
गौरैया॥
चारू ’चंचल’ (लेखिका ,इलाहबाद विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिग्री , इलाहबाद और लखनऊ से प्रकाशित हिंदी के बड़े अख़बारों में काम किया है। इन दिनों स्वतंत्र लेखन.वाक् ,गुफ्तगू .परिकथा और आरोही जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं में कवितायेँ छ्प रही है , दुधवा लाइव के लिए पहली रचना, इनसे mishracharu699@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं)
(गौरैया की यह तस्वीर साभार: सतपाल सिंह संपर्क: satpalsinghwlcn@gmail.com)
inki kavita padhkar bahut achchha laga...
ReplyDeleteaapka shukriya
nice poem............."
ReplyDeleteamitraghat.blogspot.com
bahut sundar
ReplyDeleteGOOD POEM
ReplyDeleteमैंने चारू को दुधवा लाइव पर पढ़ा था उनकी कविता के साथ ..! अपने अब्बा के आंगन में मैंने देखि है गौरैया ...!!कविता के संग एक और तत्व जो मुझे बेहद गहरे तक ले गया और भावनात्मक रूप से मै ये सोचने पे मजबूर हो गया की क्या एक लड़की और गौरैया में बेहद समानता है !मै चारू जी को जनता हूँ और ये भी जनता हूँ की वह बेहद गहरे से न सिर्फ लिखती है बल्कि सोचती भी है और समझती भी है! हिंदी के साथ मै पंजाबी भाषा भी जनता हूँ ! उसके एक महान लेखक गुरदास मान जी के एक गीत की प्रतिछाया मिली है उझे चारू जी की कविता में ! चारू के अंदाज में गुरदास मान जी ने लिखा था कभी की '' बाबुल तेरे डा दिल करे धिये मेरिये नी..तैनू कड़ी डोली न बिठावा सदा रहे गुद्दियाँ पटोले नी तू खेड्ती '' यानि की तेरे बाबुल यानि पिता का दिल कहता है की तुझे कभी डोली में न बिठाना पड़े ...! इस कविता की गहरे उसी मजबूर पिता की तरह है जिसे न चाहते हुए भी अपने कलेजे के टुकड़े को रुखसती देनी होती है ...! एक शब्द के प्रयोग है '' कोरी संवेदना ''! भविष्य की संवेदनाएं क्या वाकई कोरी होती है ? मै कहुगा हा ..! हा अगर हमें अपनी संवेदनाओं का साक्षी नहीं मिलता है तो..! गारा हम अपनी संवेदनाओं को आवाज नहीं दे पाते तो ..! शायद किसी अगन की वो बिटिया ..या कोई गौरैया उसी संवेदना का शिकार हो गई जिसे कोई आवाज नहीं मिल सकी ..!चारू ने जिस गहरे से हमें उन संवेदनाओं की याद दिलाई है उसी सिद्दत से ये भी लिखा है की ...''सिर्फ स्मरण या खोज बनकर नहीं ..बल्कि बनकर फुदकती गौरैया ....!!! '' मेरा वादा है की इस गौरिया को हम सिर्फ स्मरण और कोरी संवेदनाओं के बिच सिमटने नहीं देगे ..उसे एक आकाश भी देगे ..जो आज आपकी कविता ने दिया है !!!!
ReplyDeleteमयंक बाजपेयी (हिंदुस्तान लखीमपुर )
mayank ji ke comment ke liye badai wo comment nahi khud artile likhte hai
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